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अशोक
कुमार पाण्डेय
1-
1990
के दशक में कश्मीर घाटी में आतंकवाद के चरम के समय बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों
ने घाटी से पलायन किया. पहला तथ्य संख्या को लेकर. कश्मीरी पंडित समूह और कुछ
हिन्दू दक्षिणपंथी यह संख्या चार लाख से सात लाख तक
बताते हैं. लेकिन यह संख्या वास्तविक संख्या से बहुत अधिक है. असल में कश्मीरी
पंडितों की आख़िरी गिनती 1941 में हुई थी और उसी से 1990 का अनुमान लगाया जाता है.
इसमें 1990 से पहले रोज़गार तथा अन्य कारणों से कश्मीर छोड़कर चले गए कश्मीरी
पंडितों की संख्या घटाई नहीं जाती. अहमदाबाद में बसे कश्मीरी पंडित पी एल डी परिमू
ने अपनी किताब “कश्मीर एंड शेर-ए-कश्मीर : अ रिवोल्यूशन डीरेल्ड” में 1947-50 के
बीच कश्मीर छोड़ कर गए पंडितों की संख्या कुल पंडित आबादी का 20% बताया है. (पेज़-244)
चित्रलेखा ज़ुत्शी ने अपनी किताब “लेंग्वेजेज़ ऑफ़ बिलॉन्गिंग : इस्लाम, रीजनल
आइडेंटीटी, एंड मेकिंग ऑफ़ कश्मीर” में इस विस्थापन की वज़ह नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा
लागू किये गए भूमि सुधार को बताया है (पेज़-318) जिसमें जम्मू और कश्मीर में ज़मीन
का मालिकाना उन ग़रीब मुसलमानों, दलितों तथा अन्य खेतिहरों को दिया गया था जो
वास्तविक खेती करते थे, इसी दौरान बड़ी संख्या में मुस्लिम और राजपूत ज़मींदार भी
कश्मीर से बाहर चले गए थे. ज्ञातव्य है कि डोगरा शासन के दौरान डोगरा राजपूतों, कश्मीरी
पंडितों और कुलीन मुसलमानों के छोटे से तबके ने कश्मीर की लगभग 90 फ़ीसद ज़मीनों पर
कब्ज़ा कर लिया था. (विस्तार के लिए देखें “हिन्दू रूलर्स एंड मुस्लिम सब्जेक्ट्स”,
मृदु राय) इसके बाद भी कश्मीरी पंडितों का नौकरियों आदि के लिए कश्मीर से विस्थापन
जारी रहा (इसका एक उदाहरण अनुपम खेर हैं जिनके पिता 60 के दशक में नौकरी के
सिलसिले में शिमला आ गए थे) सुमांत्रा बोस ने अपनी किताब “कश्मीर : रूट्स ऑफ़कंफ्लिक्ट, पाथ टू पीस” में यह संख्या एक लाख बताई है,( पेज़ 120) राजनीति विज्ञानी अलेक्जेंडर इवांस विस्थापित
पंडितों की संख्या डेढ़ लाख से एक लाख साठ हज़ार बताते हैं, परिमू यह संख्या ढाई लाख
बताते हैं. सी आई ए ने एक रिपोर्ट में यह संख्या तीन लाख बताई है. एक महत्त्वपूर्ण
तथ्य अनंतनाग के तत्कालीन कमिश्नर आई ए एस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह कश्मीरी पंडित
संघर्ष समिति श्रीनगर की 7 अप्रैल, 2010 प्रेस रिलीज़ के हवाले से बताते हैं कि
लगभग 3000 कश्मीरी पंडित परिवार स्थितियों के सामान्य होने के बाद 1998 के आसपास
कश्मीर से पलायित हुए थे. (देखें, पेज़ 79,माई कश्मीर : द डाइंग ऑफ़ द लाईट, वजाहत
हबीबुल्ला). बता दूँ कि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति इन भयानक स्थितियों के बाद भी
कश्मीर से पलायित होने से इंकार करने वाले पंडितों का संगठन है. अब भी कोई साढ़े
तीन हज़ार कश्मीरी पंडित घाटी में रहते हैं, बीस हज़ार से अधिक सिख भी हैं और नब्बे
के दशक के बाद उन पर अत्याचार की कोई बड़ी घटना नहीं हुई, हाँ हर आम कश्मीरी की तरह
उनकी अपनी आर्थिक समस्याएं हैं जिस पर अक्सर कोई ध्यान नहीं देता. हाल में ही
तीस्ता सीतलवाड़ ने उनकी मदद के लिए अपील जारी की थी. साथ
ही एक बड़ी समस्या लड़कों की शादी को लेकर है क्योंकि पलायन कर गए कश्मीरी पंडित
अपनी बेटियों को कश्मीर नहीं भेजना चाहते.
गुजरात हो कि कश्मीर, भय से एक आदमी
का भी अपनी ज़मीन छोड़ना भयानक है, लेकिन संख्या को बढ़ा कर बताना बताने वालों की
मंशा तो साफ़ करता ही है.
2-
उल्लिखित
पुस्तक में ही परिमू ने बताया है कि उसी समय लगभग पचास हज़ार मुसलमानों ने घाटी
छोड़ी. कश्मीरी पंडितों को तो कैम्पों में जगह मिली, सरकारी मदद और मुआवज़ा भी.
लेकिन मुसलमानों को ऐसा कुछ नहीं मिला (देखें, वही) सीमा क़ाज़ी अपनी किताब “बिटवीन
डेमोक्रेसी एंड नेशन” में ह्यूमन राईट वाच की एक रपट के हवाले से बताती हैं कि
1989 के बाद से पाकिस्तान में 38000 शरणार्थी कश्मीर से पहुँचे थे. केप्ले महमूद
ने अपनी मुजफ्फराबाद यात्रा में पाया कि सैकड़ों मुसलमानों को मार कर झेलम में बहा
दिया गया था. इन तथ्यों को साथ लेकर वह भी उस दौर में सेना और सुरक्षा बलों के
अत्याचार से 48000 मुसलमानों के विस्थापन की बात कहती हैं. इन रिफ्यूजियों ने
सुरक्षा बलों द्वारा, पिटाई, बलात्कार और लूट तक के आरोप लगाए हैं. अफ़सोस कि 1947
के जम्मू नरसंहार (विस्तार के लिए इंटरनेट पर वेद भसीन के उपलब्ध साक्षात्कार या
फिर सईद नक़वी की किताब “बीइंग द अदर” के पेज़ 173-193) की तरह इस विस्थापन पर कोई
बात नहीं होती.
3-
1989-90
के दौर में कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के लेकर भी सरकारी आँकड़े सवा सौ और कश्मीरी
पंडितों के दावे सवा छः सौ के बीच भी काफ़ी मतभेद हैं. लेकिन क्या उस दौर में मारे
गए लोगों को सिर्फ़ धर्म के आधार पर देखा जाना उचित है.
परिमू के अनुसार हत्यारों का
उद्देश्य था कश्मीर की अर्थव्यवस्था, न्याय व्यवस्था और प्रशासन को पंगु बना देने
के साथ अपने हर वैचारिक विरोधी को मार देना था. इस दौर में मरने वालों में नेशनल
कॉन्फ्रेंस के नेता मोहम्मद युसुफ़ हलवाई,
मीरवायज़ मौलवी फ़ारूक़, नब्बे वर्षीय
पूर्व स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी मौलाना मौदूदी, गूजर समुदाय के सबसे प्रतिष्ठित
नेता क़ाज़ी निसार अहमद, विधायक मीर मुस्तफ़ा,
श्रीनगर दूरदर्शन के डायरेक्टर लासा कौल, एच एम टी के जनरल मैनेज़र एच एल
खेरा, कश्मीर विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रोफ़ेसर मुशीर उल हक़ और उनके सचिव अब्दुल
गनी, कश्मीर विधान सभा के सदस्य नाज़िर अहमद वानी आदि शामिल थे (वही, पेज़ 240-41)
ज़ाहिर है आतंकवादियों के शिकार सिर्फ़ कश्मीरी पंडित नहीं, मुस्लिम भी थे. हाँ,
पंडितों के पास पलायित होने के लिए जगह थी, मुसलमानों के लिए वह भी नहीं. वे
कश्मीर में ही रहे और आतंकवादियों तथा सुरक्षा बलों, दोनों के अत्याचारों के शिकार
होते रहे.
जगमोहन के कश्मीर में शासन के समय
वहाँ के लोगों के प्रति रवैये को जानने के लिए एक उदाहरण काफी होगा. 21 मई 1990 को
जब मौलवी फ़ारूक़ की हत्या के बाद जब लोग सड़कों पर आ गए तो वह एक आतंकवादी संगठन के
ख़िलाफ़ थे लेकिन जब उस जुलूस पर सेना ने गोलियाँ चलाईं और भारतीय प्रेस के अनुसार
47 (और बीबीसी के अनुसार 100 लोग) गोलीबारी में मारे गए तो यह गुस्सा भारत सरकार
के ख़िलाफ़ हो गया. (देखें, कश्मीर : इंसरजेंसी एंड आफ़्टर, बलराज पुरी, पेज़-68)
गौकादल में घटी यह घटना नब्बे के दशक में आतंकवाद के मूल में मानी जाती है. इन
दो-तीन सालों में मारे गए कश्मीरी मुसलमानों की संख्या 50000 से एक लाख तक है.
श्रीनगर सहित अनेक जगहों पर सामूहिक क़ब्रें मिली हैं. आज भी वहाँ हज़ारो माएं और
व्याह्ताएं “आधी” हैं – उनके बेटों/पतियों के बारे में वे नहीं जानती कि वे ज़िंदा
हैं भी या नहीं, बस वे लापता हैं. (आप तमाम तथ्यों के अलावा शहनाज़ बशीर का उपन्यास
“द हाफ़ मदर” पढ़ सकते हैं.)
4-
कश्मीर
से पंडितों के पलायनों में जगमोहन की भूमिका को लेकर कई बातें होती हैं. पुरी के
अनुसार जगमोहन को तब भाजपा और तत्कालीन गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के कहने पर
कश्मीर का गवर्नर बनाया गया था. उन्होंने फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार को बर्ख़ास्त कर
सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे. अल जज़ीरा को दिए एक साक्षात्कार में मृदु राय
ने इस संभावना से इंकार किया है कि योजनाबद्ध तरीक़े से इतनी बड़ी संख्या में पलायन
संभव है. लेकिन वह कहती हैं कि जगमोहन ने पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए प्रेरित
किया. वजाहत हबीबुल्लाह पूर्वोद्धरित किताब में बताते हैं कि उन्होंने जगमोहन से
दूरदर्शन पर कश्मीरी पंडितों से एक अपील करने को कहा था कि वे यहाँ सुरक्षित महसूस
करें और सरकार उनकी पूरी सुरक्षा उपलब्ध कराएगी. लेकिन जगमोहन ने मना कर दिया,
इसकी जगह अपने प्रसारण में उन्होंने कहा कि “पंडितों की सुरक्षा के लिए रिफ्यूजी
कैम्प बनाये जा रहे हैं, जो पंडित डरा हुआ महसूस करें वे इन कैम्पस में जा सकते
हैं, जो कर्मचारी घाटी छोड़ कर जायेंगे उन्हें तनख्वाहें मिलती रहेंगी.” ज़ाहिर है
इन घोषणाओं ने पंडितों को पलायन के लिए प्रेरित किया. (पेज़ 86 ;
मृदु राय ने भी इस तथ्य का ज़िक्र किया है). कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और
पत्रकार बलराज पुरी ने अपनी किताब “कश्मीर : इंसरजेंसी एंड आफ़्टर” में जगमोहन की
दमनात्मक कार्यवाहियों और रवैयों को ही कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का मुख्य
ज़िम्मेदार बताया है.(पेज़ 68-73). ऐसे ही निष्कर्ष वर्तमान विदेश राज्य मंत्री और
वरिष्ठ पत्रकार एम जे अकबर ने अपनी किताब “बिहाइंड द वेल” में भी दिए हैं. (पेज़
218-20) कमिटी फॉर इनिशिएटिव ऑन कश्मीर की जुलाई 1990 की रिपोर्ट “कश्मीर
इम्प्रिजंड” में नातीपुरा, श्रीनगर में रह रहे एक कश्मीरी पंडित ने कहा कि “इस
इलाक़े के कुछ लोगों ने दबाव में कश्मीर छोड़ा. एक कश्मीरी पंडित नेता एच एन जट्टू
लोगों से कह रहे थे कि अप्रैल तक सभी पंडितों को घाटी छोड़ देना है. मैंने कश्मीर
नहीं छोड़ा, डरे तो यहाँ सभी हैं लेकिन हमारी महिलाओं के साथ कोई ऐसी घटना नहीं
हुई.” 18 सितम्बर, 1990 को स्थानीय उर्दू अखबार अफ़साना में छपे एक पत्र में के
एल कौल ने लिखा – “पंडितों से कहा गया था कि सरकार कश्मीर में एक लाख मुसलमानों
को मारना चाहती है जिससे आतंकवाद का ख़ात्मा हो सके. पंडितों को कहा गया कि उन्हें
मुफ़्त राशन,घर, नौकरियाँ आदि सुविधायें दी जायेंगी. उन्हें यह कहा गया कि नरसंहार
ख़त्म हो जाने के बाद उन्हें वापस लाया जाएगा.” हालाँकि ये वादे पूरे नहीं किये गए पर कश्मीरी
विस्थापित पंडितों को मिलने वाला प्रति माह मुआवज़ा भारत में अब तक किसी विस्थापन
के लिए दिए गए मुआवज़े से अधिक है. समय समय पर इसे बढ़ाया भी गया, आख़िरी बार उमर
अब्दुल्ला के शासन काल में. आप गृह मंत्रालय की वेबसाईट पर इसे देख सकते हैं.
बलराज पुरी ने अपनी किताब में दोनों समुदायों की एक संयुक्त समिति का ज़िक्र किया
है जो पंडितों का पलायन रोकने के लिए बनाई गई थी. इसके सदस्य थे – पूर्व हाईकोर्ट
जज मुफ़्ती बहाउद्दीन फ़ारूकी (अध्यक्ष), एच एन जट्टू (उपाध्यक्ष) और वरिष्ठ वक़ील
ग़ुलाम नबी हग्रू (महासचिव). ज्ञातव्य है कि 1986 में ऐसे ही एक प्रयास से पंडितों
को घाटी छोडने से रोका गया था. पुरी बताते हैं कि हालाँकि इस समिति की कोशिशों से
कई मुस्लिम संगठनों, आतंकी संगठनों और मुस्लिम नेताओं से घाटी न छोड़ने की अपील की,
लेकिन जट्टू ख़ुद घाटी छोड़कर जम्मू चले गए. बाद में उन्होंने बताया कि समिति के
निर्माण और इस अपील के बाद जगमोहन ने उनके पास एक डीएसपी को जम्मू का एयर टिकट
लेकर भेजा जो अपनी जीप से उन्हें एयरपोर्ट छोड़ कर आया, उसने जम्मू में एक रिहाइश
की व्यवस्था की सूचना दी और तुरंत कश्मीर छोड़ देने को कहा! ज़ाहिर है जगमोहन ऐसी
कोशिशों को बढ़ावा देने की जगह दबा रहे थे. (पेज़ 70-71)
कश्मीरी पंडितों का पलायन भारतीय
लोकतंत्र के मुंह पर काला धब्बा है, लेकिन यह सवाल अपनी जगह है कि क़ाबिल अफ़सर माने
जाने वाले जगमोहन कश्मीर के राज्यपाल के रूप मे लगभग 400000 सैनिकों की घाटी मे
उपस्थिती के बावज़ूद इसे रोक क्यों न सके? अपनी किताब “कश्मीर : अ ट्रेजेडी ऑफ़
एरर्स” में तवलीन सिंह पूछती हैं – कई मुसलमान यह आरोप लगाते हैं कि जगमोहन ने
कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने के लिए प्रेरित किया. यह सच हो या नहीं लेकिन यह तो
सच ही है कि जगमोहन के कश्मीर में आने के कुछ दिनों के भीतर वे समूह में घाटी छोड़
गए और इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि जाने के लिए संसाधन भी उपलब्ध कराये गए.”
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मित्रों से अनुरोध है कि कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों के संगठन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति और उसके कर्ता धर्ता संजय टिक्कू के बयान और साक्षात्कार पढ़ लें। मिल जाएंगे इंटरनेट पर बिखरे।
असल मे जैसा कि एक कश्मीरी पंडित उपन्यासकार निताशा कौल कहती हैं - कश्मीरी पंडित हिंदुत्व की ताक़तों के राजनीतिक खेल के मुहरे बन गए हैं। विस्तार के लिए वायर में छपा उनका 7 जुलाई 2016 का लेख पढ़ लें। जब निताशा ने अल जज़ीरा के एक प्रोग्राम में राम माधव का प्रतिकार किया तो कश्मीरी पंडितों के संघ समर्थक समूह के युवाओं ने उनको भयानक ट्रॉल किया। दिक़्क़त यह है कि भारतीय मीडिया संघ से जुड़े पनुन कश्मीर (पूर्व में सनातन युवक सभा) को ही कश्मीरी पंडितों का इकलौता प्रतिनिधि मानता है। वह दिल्ली में रह रहे बद्री रैना जैसे कश्मीरी पंडितों के पास भी नहीं जाना चाहता।
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मित्रों से अनुरोध है कि कश्मीर में रह रहे कश्मीरी पंडितों के संगठन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति और उसके कर्ता धर्ता संजय टिक्कू के बयान और साक्षात्कार पढ़ लें। मिल जाएंगे इंटरनेट पर बिखरे।
असल मे जैसा कि एक कश्मीरी पंडित उपन्यासकार निताशा कौल कहती हैं - कश्मीरी पंडित हिंदुत्व की ताक़तों के राजनीतिक खेल के मुहरे बन गए हैं। विस्तार के लिए वायर में छपा उनका 7 जुलाई 2016 का लेख पढ़ लें। जब निताशा ने अल जज़ीरा के एक प्रोग्राम में राम माधव का प्रतिकार किया तो कश्मीरी पंडितों के संघ समर्थक समूह के युवाओं ने उनको भयानक ट्रॉल किया। दिक़्क़त यह है कि भारतीय मीडिया संघ से जुड़े पनुन कश्मीर (पूर्व में सनातन युवक सभा) को ही कश्मीरी पंडितों का इकलौता प्रतिनिधि मानता है। वह दिल्ली में रह रहे बद्री रैना जैसे कश्मीरी पंडितों के पास भी नहीं जाना चाहता।
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ये बस कुछ
तथ्य हैं, लेकिन इनके आधार पर आप चीज़ों का दूसरा चेहरा दिखा सकते हैं.
एक सवाल और
है – क्या कश्मीरी पंडित कभी घाटी में लौट सकेंगे?
अभी मै दो सवाल
छोड़कर जा रहा हूँ –
क्या
कश्मीरी पंडित घाटी लौटना चाहते हैं?
क्या
दिल्ली और श्रीनगर चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित घाटी में लौटें?
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सबरंग हिन्दी से साभार
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लेखक इन दिनों “कश्मीरनामा : भविष्य की क़ैद में इतिहास” नामक किताब लिख रहे हैं)
bhaut umda, khanhi bhi, koi bhi atirek aakhir me nehi reha, jo log atirek rekhtie hai, wo kuch bhi tippadi ker sektie hai, aap vichlit na ho, aapni kittab anie die, ager ho sakie to iis lekh ki tarj per na ho sirf, koshish kerie, mai aap kie saath her jageh rehnie ki koshish karounga, mera mananna hai, aap beech beech me kashmir aatie jattie rehie kitab pourn kernie se pehlie. haa me ye khounga aap kuch cigrate kum ker ie, aur uss paise ko joudie gullak me, kashmir yatrao kie liye, jisse mukammal kitab bun paiye.
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