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बुधवार, 9 अगस्त 2017

संगीत और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह : कुलदीप कुमार




पश्चिम के साथ साक्षात्कार की प्रक्रिया में उन्नीसवीं सदी में हिंदुओं और मुसलमानों ने अपनी-अपनी अस्मिता को अपने “गौरवपूर्ण अतीत” के आलोक में समझने और परिभाषित करने का प्रयास किया और इस प्रक्रिया में स्वयं को न केवल सांस्कृतिक बल्कि एक राजनीतिक समुदाय के रूप में भी पुनर्गठित किया। सांप्रदायिकता इसी प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न विचारधारा है जिसकी बुनियाद अपने समुदाय के हितों को दूसरे समुदाय के हितों के खिलाफ समझने पर रखी गई है। ज़ाहिर है कि इस क्रम में अपने समुदाय का गौरवगान करने और दूसरे समुदाय से नफरत करने की प्रवृत्ति का पैदा होना बहुत स्वाभाविक है। 

भारतीय उपमहाद्वीप का संगीत उसमें रहने वाले सभी निवासियों के योगदान से बना संगीत है जिस पर किसी एक समुदाय का एकाधिकार नहीं है। ऐतिहासिक कारणों से किसी एक समुदाय का अल्प या दीर्घ अवधि के लिए वर्चस्व तो स्थापित हो सकता है लेकिन एकाधिकार कभी भी स्थापित नहीं हो सकता; और, यह वर्चस्व भी स्थायी नहीं होता क्योंकि दूसरा समुदाय स्थापित सत्ता-समीकरण को बदलने के लिए हमेशा सक्रिय रहता है। यदि इस सक्रियता के पीछे केवल बेहतर कलासृजन की प्रेरणा हो तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन यदि इसके पीछे शुद्ध सांप्रदायिक आग्रह हो समस्या पैदा होती है। 

संगीतकार संगीत को ईश्वर की आराधना बताते हैं। अक्सर उन्हें यह कहते हुए भी पाया जाता है कि संगीत उनके लिए ईश्वर तक पहुँचने का साधन है। नाद को ब्रह्म भी माना जाता है और कहा जाता है कि संगीत देश, काल, जाति, धर्म और संप्रदाय---सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है क्योंकि वह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक है। संगीतकार का धर्म केवल संगीत है क्योंकि स्वरों का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन यह आदर्श स्थिति का वर्णन है, वास्तविक स्थिति का नहीं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर अब तक सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में जिस तरह सांप्रदायिकता की विषबेल फली-फूली है, उसके कारण देश का विभाजन करने वाली इस विचारधारा के जहरीले असर से संगीत भी अछूता नहीं रह सका है। 

पुरानी पत्रिकाएँ उलटने-पलटने के क्रम में ‘अकार’ का एक अंक (अगस्त 2013-नवंबर 2013) हाथ में आया जिसमें सैयद जुल्फिकार अली बुखारी की आत्मकथा ‘सरगुजश्त’ का एक अंश छपा है। सैयद जुल्फिकार अली बुखारी सैयद अहमद शाह बुखारी (उर्दू के मशहूर व्यंग्यकार पितरस बुखारी) के छोटे भाई थे और आजादी के पहले इन दोनों भाइयों का ऑल इंडिया रेडियो पर ऐसा वर्चस्व था कि उसे मज़ाक में लोग बीबीसी (बुखारी ब्रदर्स कॉर्पोरेशन) कहने लगे थे। विभाजन के बाद जुल्फिकार बुखारी रेडियो पाकिस्तान में काफी समय तक काम करने के बाद उसके महानिदेशक भी बने। यह आत्मकथा उन्होंने पाकिस्तान में ही लिखी लेकिन इस अंश का संबंध 1930 के बाद के विभाजनपूर्व भारत से है। 

बुखारी लिखते हैं: “अब इनको कौन बताए कि मद्रास को छोड़कर बाकी तमाम हिंदुस्तान में अगर मौसिकी का इल्म है तो सिर्फ मुसलमानों को, मौसिकी हिंदुओं के नजदीक भी नहीं गई। मैं ये बात किसी तअस्सुब (पूर्वाग्रह) की बिना पर नहीं कहता, इल्म के मामले में तअस्सुब कैसा? हकीकत ये है कि हमारे हिंदुस्तान में आने से कब्ल (पहले) यहाँ सिर्फ चार सुर रायज (प्रचलित) थे। मुसलमानों ने सात सुर यहाँ आकर रायज किए। ये तमाम मौसिकी मुसलमानों की आवरदा (लाई हुई) है। मद्रास में इस मौसिकी को अरब लाये और शुमाली (उत्तरी) हिंदुस्तान में ईरान के रास्ते से आने वाले मुसलमान।” विष्णु दिगंबर पलुस्कर--- जिनके ओंकारनाथ ठाकुर, विनायकराव पटवर्धन, नारायणराव व्यास, डी. वी. पलुस्कर और बी. आर. देवधर जैसे यशस्वी शिष्य हुए--- के बारे में बुखारी साहब के उद्गार कुछ यूं निकले हैं: “भाईजान मरहूम और मैं दोनों विष्णु दिगंबर के लाहौर वाले स्कूल में दाखिल हुए ताकि देखें तो सही कि ये लोग क्या करते हैं। मगर चंद ही दिनों में लाहौल पढ़कर बाहर आ गए। अब कौन बैठकर भजन गाता और वो भी बेसुरे उस्ताद की आवाज के साथ आवाज मिलाकर।” 

पाकिस्तानी फिल्मों के मशहूर संगीत निर्देशक खुर्शीद अनवर ने वॉइस ऑफ अमेरिका की उर्दू सर्विस के प्रमुख ब्रायन सिल्वर को दिये एक इंटरव्यू में भी यही बात कही थी कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत मुसलमानों का है। कान्हड़ा का जिक्र आने पर उन्होंने कहा कि सभी तरह के कान्हड़े, चाहे वह दरबारी कान्हड़ा हो या कौंसी कान्हड़ा या हुसैनी कान्हड़ा या नायकी कान्हड़ा—ये सभी मुसलमानों के ही बनाए हुए हैं। यूं सभी यह जानते हैं कि दरबारी कान्हड़ा, मियां की तोड़ी, मियां की सारंग, मियां मल्हार जैसे मशहूर राग तानसेन के बनाए हुए हैं जिनके बारे में अभी तक तय नहीं हो पाया है कि वे अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बने थे या नहीं। आचार्य बृहस्पति जैसे प्रकांड विद्वान और संगीतशास्त्री का मत है कि तानसेन ने कभी इस्लाम स्वीकार नहीं किया क्योंकि समकालीन ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस बात का कोई जिक्र नहीं है और इसका पहले-पहल उल्लेख अठारहवीं सदी में मिलता है।

संगीत जगत हिन्दू सांप्रदायिक भावनाओं और उद्देश्यों से अछूता रहा हो, ऐसा भी नहीं है। विष्णु दिगंबर पलुस्कर और विष्णु नारायण भातखंडे ने संगीत-शिक्षण की जो संस्थाएं खोलीं, उनके द्वारा काफी हद तक इनकी पूर्ति हुई। पलुस्कर के यशस्वी शिष्यों ने उनकी परंपरा को देश भर में फैलाया और आज वह लगभग वर्चस्व वाली स्थिति में है। लेकिन यह भी एक विचारणीय विषय है कि उनकी शिष्य-परंपरा में एक भी ऐया मुस्लिम संगीतकार क्यों नहीं है जो संगीत सम्मेलनों के मंचों पर नज़र आता हो। जबकि सच्चाई यह है कि अगर ग्वालियर घराने के संस्थापक हद्दू खां-हस्सू खां अपनी गायकी हिन्दू शिष्यों को न सिखाते तो विष्णु दिगंबर पलुस्कर का उदय ही न होता। शिक्षित हिन्दू मध्यवर्ग में संगीत के प्रचार के उद्देश्य से पलुस्कर ने तुलसीदास, सूरदास, मीरा और नानक जैसे संत कवियों की पंक्तियां लेकर उन्हें रागों में बांधा, भजन के अतिरिक्त संगीत के अन्य प्रकारों को त्याज्य माना और इस तरह इस धारणा को बल प्रदान किया कि भारतीय संगीत मुख्यतः धर्म से जुड़ा है और मुस्लिम शासकों के दौर में संगीतकारों और संगीत, दोनों के (चारित्रिक) स्तर में गिरावट आई। 

सांप्रदायिक दृष्टि से संगीत को देखने के परिणामस्वरूप पाकिस्तान और भारत, दोनों में एक अजीब किस्म की कोशिश की गई और रागों के नाम बदले गए। सौभाग्य से यह कोशिश कामयाब नहीं हो सकी। पाकिस्तान में रामकली, दुर्गा, भैरव, शंकरा, श्याम कल्याण जैसे उन रागों के नाम बदलने की कोशिश हुई जिनमें  हिन्दू देवी-देवताओं के नाम आते थे और बन्दिशों में भी ऐसे ही परिवर्तन किए गए लेकिन यह कोशिश विफल रही। भारत में ओंकारनाथ ठाकुर ने राग जौनपुरी को जीवनपुरी कहना शुरू किया जबकि यह सर्वमान्य तथ्य है कि इस राग की रचना जौनपुर के सुल्तान हुसैन शाह शर्क़ी ने की थी। पुराने लोग अभी भी याद करते हैं कि ओंकारनाथ ठाकुर संगीत सम्मेलन के मंच को गंगाजल से शुद्ध करके और उस पर अपनी मृगछाला बिछाकर बैठने के बाद ही अपना गायन शुरू करते थे। इसी तरह यमन को केवल कल्याण कहने की परंपरा भी डाली जा रही है। लेकिन सौभाग्य से यह प्रयास भी परवान नहीं चढ़ पा रहा है। 

विष्णु नारायण भातखंडे ने संगीत के हिंदूकरण की कोशिश नहीं की, लेकिन उनका संस्कृत में लिखे गए प्राचीन संगीत ग्रन्थों पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर था। जानकी बाखले ने अपनी पुस्तक “टु मेन एंड म्यूज़िक” में विस्तार से वर्णन किया है कि किस तरह वे मुस्लिम उस्तादों से संस्कृत ग्रन्थों के बारे में सवाल करते थे और यह सिद्ध करते थे कि उनकी गायकी का कोई प्रामाणिक सैद्धान्तिक आधार नहीं है। लेकिन इन्हीं उस्तादों की सहायता लेना उनकी मजबूरी थी और उनसे ही राग-चर्चा करके और बन्दिशें एकत्रित करके भातखंडे ने अपनी पुस्तकें लिखीं। यही नहीं, जब उन्होंने लखनऊ में संगीत शिक्षण के लिए मैरिस कॉलेज की स्थापना की तब खानदानी संगीतजीवी मुस्लिम संगीतकारों को अध्यापन के लिए नियुक्त करना पड़ा। मैक्स कैट्ज़ ने ‘सांस्थानिक सांप्रदायिकता’ पर लखनऊ में किए गए अपने शोध के आधार पर दर्शाया है कि किस तरह इस विद्यालय में, जिसे अब भातखंडे संगीत संस्थान के नाम से जाना जाता है और 2000 से जिसे विश्वविद्यालय का दर्जा भी प्राप्त है, मुस्लिम उस्तादों और छात्रों की संख्या में लगातार कमी आती गई। यह प्रक्रिया इस विद्यालय में ही नहीं, समूचे संगीत जगत में चली है जिसके कारण मुस्लिम उस्तादों से संगीत सीखने वाले शिक्षित हिन्दू मध्यवर्ग के संगीतकारों की व्यापक उपस्थिति के कारण खानदानी मुस्लिम संगीतकार लगातार हाशिये की तरफ ठेले जाते रहे। इन संगीत विद्यालयों के कारण संगीत का प्रचार-प्रसार तो हुआ लेकिन ये एक भी बड़ा कलाकार देने में असमर्थ रहे। 

यह मान्यता भी फैलाई गई कि मुसलमानों के आगमन के कारण उत्तर भारत का संगीत दूषित हो गया लेकिन दक्षिण भारत का संगीत इससे बचा रहा। 1974 में प्रकाशित पुस्तक “मुसलमान और भारतीय संगीत” में आचार्य बृहस्पति ने इस धारणा का खंडन करते हुए सिद्ध किया कि किस तरह मुसलमानों के साथ आए ईरानी संगीत के साथ संपर्क में आने से भारतीय संगीत की श्रीवृद्धि हुई और उसमें परिवर्तन आए। मूर्छना-पद्धति के स्थान पर मेल-पद्धति आ गई और “संस्कृत के अनेक ग्रंथ मेल पद्धति के आधार पर लिखे गए”। भातखंडे ने भी मेल-पद्धति के आधार पर ही रागों का वर्गीकरण और रूप-निर्धारण किया। उन्होंने तो अपने विचारों को मनवाने के लिए ‘चतुर पंडित’ के छद्मनाम ने संस्कृत में ग्रन्थों की रचना भी कर डाली ताकि उन पर प्राचीनता की प्रामाणिकता का ठप्पा लग जाए। 

अब तो कैथरीन बटलर स्कोफील्ड जैसे शोधकर्ताओं ने निर्णायक रूप से सिद्ध कर दिया है कि मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने संगीत को देशनिकाला नहीं दिया था, केवल पकी उम्र होने पर दरबार में उसके इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन आचार्य बृहस्पति ने तो 1974 में प्रकाशित इस पुस्तक में ही स्पष्ट शब्दों में लिख दिया था कि “1667-1668 में औरंगजेब ने आदेश दिया कि गायक लोग दरबार में आयें, पर गाना न गायें। इस आदेश के कारण विशुद्ध राजनीतिक थे। इटालियन इतिहासकर मनुक्कि के अनुसार इस प्रतिबंध के बाद भी औरंगजेब बेगमों और शाहज़ादियों के मनोरंजन के लिए गायिकाओं और नर्तकियों की नियुक्ति करता था और अंतःपुर में गाना-बजाना होता था”। लेकिन सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण औरंगजेब की संगीत-विरोधी कट्टर मुस्लिम शासक वाली छवि आज भी बनी हुई है जबकि आचार्य बृहस्पति उसके इस प्रकार के निर्णयों के पीछे विशुद्ध राजनीतिक कारण मानते हैं।  

इस सबके बावजूद अच्छी बात यह है कि इन सांप्रदायिक रुझानों के बावजूद अभी तक हिंदुस्तानी संगीत जगत में सांप्रदायिक सद्भाव बना हुआ है।  हालांकि इसके साथ ही यह भी सही है कि खानदानी घरानेदार मुस्लिम गायकों और वादकों की संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। खयाल के कुछ घरानों में तो मुस्लिम गायक लगभग विलुप्त-से होते जा रहे हैं। संगीत सम्मेलनों के मंच पर अब ग्वालियर, आगरा और जयपुर जैसे घरानों समादृत मुस्लिम कलाकार ढूँढने पर ही मिलेंगे। संगीत को समाज और राज्य की ओर से मिलने वाले आर्थिक-राजनीतिक समर्थन और संरक्षण की संरचनागत समस्याओं की भी इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका है। इस महत्वपूर्ण विषय पर आगे कभी चर्चा करेंगे। 

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