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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

क्या अम्बेडकर दलितों के मसीहा थे?

डा अम्बेडकर

(यह जाने माने विचारक सुभाष गाताडे के लंबे आलेख का एक हिस्सा है जिसे युवा संवाद ने एक पुस्तिका के रूप में छापा है)




एक बात जो लगभग हमारे सहजबोध (कामन सेन्स) का हिस्सा बन गयी है - जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं - जो डा अम्बेडकर के बारे में कही जाती है, कि वह ‘दलितों के मसीहा’ थे। दिलचस्प है कि समूचे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में यह बात स्वीकार्य है। अपने आप को उनका सच्चा वारिस घोषित करनेवालों के लिए भी यह बात सुनकर कोई बेआरामी नहीं होती।


क्या उनका यह चित्रण पूरी तौर पर सही है ? या उनको दलितों का मसीहा कह देने से उनके जीवन के तमाम पक्ष छूट जाते हैं और उनकी एकांगी किस्म की छवि बनती है





अगर उनके इस चित्रण को सही मान लें तो उनके लगभग चालीस साला राजनीतिक-सामाजिक जीवन के कई अहम पहलुओं पर चुप्पी साधनी पड़ती है। और यही बात स्वीकारनी पड़ती है कि मनु के विधान की स्वीकार्यतावाले हमारे समाज में - जिसने शूद्रों-अतिशूद्रों-स्त्रिायों की विशाल आबादी को तमाम मानवीय हकों से वंचित किया था - उन्होंने अतिशूद्रों के अधिकारों के लिए कुछ संघर्ष किया एवम कुछ रिआयतें हासिल कीं।


फिर इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन हो जाता है कि
क्या वे स्त्रिायों के अधिकारों के लिए संघर्षरत नहीं रहे या क्या किसानों-मजदूरों की समस्या की ओर उनकी दृष्टि नहीं गयी, क्या जनता के आर्थिक सवालों से वह बेख़बर रहे या क्या वह शूद्रों-अतिशूद्रों का नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर करनेवाली जाति/जातियों के खिलाफ थे या उस मानसिकता के खिलाफ थे जिसने इस स्थिति का निर्माण किया था ? शिक्षा संस्थानों का जाल बिछाने के पीछे तथा अख़बार-पत्रा-पत्रिकाओं को शुरू करने के पीछे उनका क्या मकसद था ? और सबसे बढ़ कर क्या उन्होंने उपनिवेशवादियों के खिलाफ जारी राजनीतिक आन्दोलन की सीमा को उजागर नहीं किया जिसके लिए उन्हें जोखिम उठाना पड़ा



एक गुलाम मुल्क में उपनिवेशवादियों के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलनों के साथ एक सुविधा रहती हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समूचे जनसमुदाय का उन्हें समर्थन प्राप्त रहता है लेकिन बाबासाहेब की अपनी जद्दोजहद का अच्छा खासा हिस्सा समाज की अपनी बीमारियों, परम्पराओं, संस्थाओं के खिलाफ, उपनिवेशवादियों के आगमन से पहले से चली आ रही उस सामाजिक-धार्मिक निज़ाम के खिलाफ था। उनके सामने खड़ी चुनौती को आसानी से समझा जा सकता है जहां उन्हें उन लोगों को भी निशाने पर लेना पड़ रहा था जो खुद साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित थे या उसके विरोध में संघर्ष के लिए तैयार थे मगर जो खुद भारतीय समाज की उस मंज़िलनुमा बनावट के खिलाफ खडे़ होने के लिए तैयार नहीं थे। अपने एक आलेख में डा अम्बेडकर ने उच्चनीचअनुक्रम, शुद्धता एवम प्रदूषण पर टिकी भारतीय समाज रचना की तुलना उस बहुमंजिली इमारत से की थी जिसमें एक मंज़िल से दूसरी पर जाने के तमाम दरवाजे़ बिल्कुल बन्द थे। वे लोग जो जातिप्रथा को श्रम का विभाजन कह कर महिमामण्डित करते थे, उन्हें करारा जवाब देते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘जातिप्रथा श्रम का नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है।’


उनके जीवन एवम संघर्ष को सरसरी निगाह से देखने पर पता चलता है कि तमाम शोषितों-उत्पीड़ितों के हालात के प्रति उनका गहरा सरोकार एवम उसको बदल डालने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। और अहम बात जो उनके यहां नज़र आती है वह है राजनीतिक-आर्थिक संघर्षों में या सामाजिक-सांस्कृतिक हलचलों के बीच उनके यहां किसी ‘चीन की दीवार’ की अनुपस्थिति।
( क्या यह कहना अनुचित होगा कि उत्तरअम्बेडकर आन्दोलन में इस सिलसिले का बनाये नहीं रखा जा सका)



उनके जीवन के सबसे पहले ऐतिहासिक संघर्ष को ही देखें जब 1927 में महाड के चवदार तालाब पर सत्याग्रह करने वह पहुंचते हैं (19-20 मार्च 2008) जिसके बारे में मराठी में हम कहते हैं कि जब ‘उन्होंने पानी में आग लगा दी।’ मालूम हो कि महाराष्ट्र के कोकण नामक इलाके के महाड नामक क्षेत्रा के सार्वजनिक तालाब पर हजारों की संख्या में दलितों ने अन्य तमाम समानविचारी लोगों डाॅ बाबासाहेब आम्बेडकर के नेतृत्व में एक सत्याग्रह किया था। यूं तो कहने के लिए यह महज पानी पीने का हक था लेकिन इसकी विशिष्टता इसी में निहित थी कि सदियों से उच्चनीचअनुक्रम पर टिके, प्रदूषण एवम शुद्धता पर आधारित समाज केे उत्पीड़ित जनों ने अपने विद्रोह का एक संगठित हुंकार भरा था।



इस अवसर पर आयोजित सम्मेलन के प्रस्ताव गौर करनेलायक हैं। प्रस्तुत सम्मेलन में कई सारे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये। जंगल की जमीन दलितों को खेती के लिये दी जाय, उन्हें सरकारी नौकरियां मिलें, सरकार न केवल शिक्षा को अनिवार्य करे बल्कि 20 साल के छोटे लड़कों तथा 15 साल से छोटी लड़कियों की शादी पर भी पाबन्दी लगाये आदि विभिन्न आर्थिक सामाजिक मसलों पर प्रस्ताव मंजूर हुए । सरकार से अपील की गयी वह शराबबन्दी लागू करे तथा मरे हुए जानवरों का मांस खाने पर पाबंदी लगा दे । सम्मेलन में उच्चवर्णीयों से भी आवाहन किया कि वे अछूतों को उनके नागरिक अधिकार दिलाने में सहायता करें, उन्हें नौकरियां दें, अपने मरे हुए जानवरों को खुद दफनायें।



सत्याग्रह के दूसरे चरण में उन्होंनेे शुचिता तथा प्रदूषण के आधार पर उनके अपमान को जायज ठहराने वाले पवित्र कहलानेवाले मनुस्मृति नामक ग्रंथ को भी आग के हवाले किया था। (25 दिसम्बर 1927)



सम्मेलन के अपने शुरूआती वक्तव्य में बाबासाहेब ने प्रस्तुत सत्याग्रह परिषद का उद्देश्य स्पष्ट किया ‘‘ अन्य लोगों की तरह हमभी इन्सान है इस बात को साबित करने के लिए हम तालाब पर जाएंगे अर्थात यह सभा समता संग्राम की शुरूआत करने के लिए ही बुलायी गयी है । आज की इस सभा और 5 मई 1789 को फ्रांसीसी लोगों की क्रांतिकारी राष्ट्रीय सभा में बहुत समानताएं हैं । .. इस राष्ट्रीय सभा ने राजारानी को सूली पर चढ़ाया था, सम्पन्न तबकों के लिए जीना मुश्किल कर दिया था, उनकी सम्पत्ति जब्त की थी । 15 साल से ज्यादा समय तक समूचे यूरोप में इसने अराजकता पैदा की थी ऐसा इस पर आरोप लगता है। मेरे खयाल से ऐसे लोगों को इस सभा का वास्तविक निहितार्थ समझ नहीं आया।.. इसी सभा ने ‘जन्मजात मानवी अधिकारों को घोषणापत्रा जारी किया था.. इसने महज फ्रान्स में ही क्रान्ति को अंजाम नहीं दिया बल्कि समूची दुनिया में एक क्रांति को जनम दिया ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा‘‘ उन्होंने अपील की थी इस सभा को फ्रेंच राष्ट्रीय सभा का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए..‘‘ हिन्दुओं में व्याप्त वर्णव्यवस्था ने किस तरह विषमता और विघटन के बीज बोये हैं इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘
समानता के व्यवहार के बिना प्राकृतिक गुणों का विकास नहीं हो पाता उसी तरह समानता के व्यवहार के बिना इन गुणों का सही इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। एक तरफ से देखें तो हिन्दु समाज में व्याप्त असमानता व्यक्ति का विकास रोक कर समाज को भी कुंठित करती है और दूसरी तरफ यही असमानता व्यक्ति में संचित शक्ति का समाज के लिए उचित इस्तेमाल नहीं होने देती।…‘सभी मानवों की जनम के साथ बराबरी की घोषणा करता हुआ मानवी हकों का एक ऐलाननामा भी सभा में जारी हुआ।



सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें जातिभेद के कायम होने के चलते स्थापित विषमता की भत्र्सना की गयी तथा यहभी मांग की गयी कि धर्माधिकारी पद पर लोगों की तरफ से नियुक्ति हो। इसमें से दूसरा प्रस्ताव मनुस्मृतिदहन का था जिसे सहस्त्राबुद्धे नामक एक ब्राहमण जाति के सामाजिक कार्यकर्ता ने प्रस्तुत किया था । प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘‘शूद्र जाति को अपमानित करनेवाली उसकी प्रगति को रोकनेवाली उसके आत्मबल को नष्ट कर उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूती देनेवाली मनुस्मृति के श्लोकों को देखते हुए … ऐसे जनद्रोही और इन्सानविरोधी ग्रंथ को हम आज आग के हवाले कर रहे हैं।’



इस सत्याग्रह के अवसर महिलाओं को दिया गया उनका स्वतंत्रा उद्बोधन काफी चर्चित रहा है। मनुस्मृति दहन के बाद रात में स्त्रिायांे को अलग सम्बोधित करते हुए डा अम्बेडकर ने जोर देकर कहा था:



‘‘ परिवार की दिक्कतें स्त्राी एवम पुरूष दोनों मिला कर ही सुलझाते है और उसी तरह समाज की, दुनिया की कठिनाइयों को भी स्त्रिायों एवम पुरूषों को दोनों को मिला कर ही सुलझानी चाहिए। स्त्रिायां ही इस काम को बखूबी कर सकती हैं, इस पर मुझे पूरा यकीन है। इसके आगे आप को भी सभाओं एवम सम्मेलनों में आना चाहिए।आप ने हम पुरूषों को जन्म दिया है। आप के पेट से जन्म लेना आखिर अपराध क्यों माना जाता है और ब्राह्मण स्त्री के पेट से जन्म लेना पुण्य क्यों समझा जाता है ? ..
स्त्रिायां गृहलक्ष्मी बनें यही हमें क्यों सोचना चाहिए, इसके आगे की मंजिल उन्हें क्यों नहीं पार करनी चाहिए ? ... ज्ञान और विद्या की आवश्यकता सिर्फ पुरूषों के लिए नहीं है वह स्त्रिायों के लिए भी उतनीही जरूरी है इसलिए आनेवाली पीढ़ी को सुधारना हो तो आप को चाहिए कि बेटों के साथ बेटियों को भी शिक्षा दें।स्त्रियों को राजनीतिक-सामाजिक सक्रियताओं में उतारने की, उन्हें अधिकारों से लैस करने की चिन्ता हमें उनके समूचे जीवन में दिखती है।



अगर हम 50 के दशक में नेहरू मंत्रिमण्डल से उनके इस्तीफे पर गौर करें तो क्या वजह समझ में आती है। जहां वे इस बात के प्रति क्षुब्ध है कि अनुसूचित जातियों एवम जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के प्रति सरकार पर्याप्त गम्भीरता का परिचय नहीं दे रही हैं वहीं वे इस बात को विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि उनके इस निर्णय लेने के पीछे ‘हिन्दु कोड बिल’ को लेकर नज़र आती सरकार की आनाकानी का मसला अहम था।आखिर क्या था ‘हिन्दु कोड बिल’ ? दरअसल हिन्दु कोड बिल के जरिये आपसी सम्बन्ध विच्छेद एवम जायदाद के मामले में हिन्दु महिलाओं को अधिकार दिए जा रहे थे। सभी जानते हैं कि उसके पहले हिन्दुओं में बहुपत्नीप्रथा कायम थी, यहां तक कि तलाक या सम्पत्ति के मामले में उन्हें कोई अधिकार नहीं प्राप्त थे। हिन्दु कोड बिल को लेकर डा अम्बेडकर को जो जद्दोजहद करनी पड़ी वह अपने आप में एक रोचक इतिहास है।
स्त्रिायों को अधिकारसम्पन्न कर ‘हिन्दु संस्कृति एव परम्परा को ध्वस्त करने’ की कोशिश करने के लिए कई बार उनके घर पर प्रदर्शन भी हुए। इस बिल को न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध था बल्कि कांग्रेस के अन्दर मौजूद रूढिवादी/सनातनी तत्वों ने भी उनके इस कदम की लगातार मुखालिफत की थी जिसमें अग्रणी थे बाबू राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि।नेहरू मंत्रिमण्डल से इस्तीफा सौंपते हुए प्रस्तुत वक्तव्य में उन्होंने लिखा था:



‘हिन्दु कोड बिल एक तरह से इस मुल्क की विधायिका द्वारा हाथ में लिया गया समाज सुधार का सबसे बड़ा कदम था। अतीत में हिन्दोस्तां की विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून से या भविष्य में पारित किए जा सकनेवाले किसी भी कानून से इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
वर्ग और वर्ग के बीच की गैरबराबरी, लिंगों के बीच की गैरबराबरी - जो हिन्दु समाज की आत्मा है - को अक्षुण्ण बनाये रखना तथा आर्थिक समस्याओं को लेकर एक के बाद एक विधेयक पारित करते रहना, एक तरह से संविधान का माखौल उड़ाना है और गोबर के ढेर पर महल खड़े करने जैसा है मेरे लिए हिन्दु कोड का यही महत्व रहा है। और अपने मतभेदों के बावजूद इसी वजह से मैं मंत्रिमण्डल का सदस्य बना रहा।’



डा अम्बेडकर के जीवन और संघर्षों की व्यापकता जानना हों तो तीस का दशक कई मायनों में अहम दिखता है जिसमें वह सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर भी नयी जमीन तोड़ते प्रतीत होते हैं वहीं वह राजनीतिक-आर्थिक मसले पर भी एक अलग रास्ता अख्तियार करते नज़र आते हैं



8 टिप्‍पणियां:

  1. महाड के ऐतिहासिक सत्याग्रह तथा मनु स्मृति की प्रति जलाने के बाद कौन - कौन से सत्याग्रह बाबासाहब के आवाहन पर हुए ? यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि महाड़ के सत्याग्रह के दौरान बाबा साहब के कार्यकर्ताओं पर सवर्णों का हमला भी हुआ था।

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  2. THIS ARTICLE IS AN IMPORTANT INTERVENTION AT A VERY APPROPRIATE TIME. THE RULING CLASSES; BOTH HINDUS AND MUSLIMS PRESENTED AMBEDKAR AS SOMEBODY WHO REPRESENTED THE INTERESTS OF DEPRESSED CLASSES OR STOOD FOR RESERVATION. IT IS A VERY SMALL TRUTH. HE WANTED AN INDIA WHERE THERE WILL BE JUSTICE, NO MILITARIZATION, NO RELIGIOUS BASED POLITICS AND NO ROOM FOR CASTEISM. IF WE HAD INDIA OF AMBEDKAR'S VIEWS IT WOULD HAVE BEEN A MORE HUMANE INDIA FOR ALL OF US.

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  3. जिस सामाजिक ढाँचे ने शूद्रों को सदियों से दलित बनाये रखा, उसी ढाँचे ने स्त्रियों को भी कभी उनके अधिकार नहीं दिये. डॉ. अम्बेडकर ये जान्ते थे कि भारत की स्वतन्त्रता के बाद सत्ता एक शासक वर्ग के हाथों से निकलकर दूसरे सम्भ्रान्त वर्ग के हाथों में चली जायेगी, जो उस सामाजिक ढाँचे के ऊपरी पायदान पर स्थित है और नीचे वालों के लिये लोहे के दरवाजे बना रखे हैं, ऊपर आने के लिये...जिन्हें बेधकर कोई ऊपर नहीं आ सकता...
    इसीलिये अम्बेदकर ने उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द की... ये आवाज़ हर उस वर्ग के पक्ष में थी, जिसे हमेशा से नीचे के पायदान पर रखा गया था, न कि सिर्फ़ दलितों के पक्ष में...
    गाताड़े जी के लेख गहन अध्ययन और गम्भीर विमर्श से निकले होते हैं...यह लेख अत्यधिक प्रासंगिक है...अम्बेदकर के जन्मदिन को एक पर्व की तरह न मनाकर एक आत्ममन्थन के अवसर की तरह मनाना चाहिये..अम्बेदकर न सिर्फ़ चिंतक, बल्कि एक कार्यकर्ता भी थे...क्या अम्बेडकर के बाद का कोई दलित चिंतक इस परम्परा को आगे बढ़ा पाया है?

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  4. वर्तमान में जबकि महिला आरक्षण, दलितों के अधिकारों पर बहस गर्म है, निश्चित ही यह एक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक आलेख है।

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  5. संग्रहणीय लेख! हिन्दू कोड बिल के बारे में पढा। अच्छा लगा जानकर हमारे महान नेताओं का दोहरा चरित्र!

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