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रविवार, 18 जुलाई 2010

हिसप्रस से कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम तक - पंकज बिष्ट के अज्ञेय पर संस्मरण की अंतिम क़िस्त

(अज्ञेय पर लिखे पंकज बिष्ट के संस्मरण 'अज्ञेय : छवि और प्रतिछवि' की आख़िरी क़िस्त आज प्रस्तुत है। पिछली पोस्ट पर भाई बोधिसत्व ने कुछ प्रश्न खड़े किये थे…शायद उनमें से कुछ का जवाब इसमे हो और कुछ नये सवाल भी। हां मुझे लगता है कि पिछली पोस्ट का शीर्षक थोड़ा भड़काऊ हो गया था…बाज़ार अचेतन में हम सबको प्रभावित करता ही है…आगे और सावधान रहुंगा…जिन साथियों ने सावधान किया उनका हृदय से आभार्…इस दौर में यह परस्पर सावधानी शायद ज़्यादा ज़रूरी है।)

पहली क़िस्त यहां और दूसरी यहां…अब आगे

पाण्डेय जी मेरी बात सुन कर हंसे। बोले, ‘‘अरे क्या हो गया?’

मैंने पूरा किस्सा सुना दिया। उन्होंने शांत करने वाले अंदाज में कहा, ‘‘छोड़ एक लेख लिखवा दे।’’ और खुद, जैसा कि उनकी आदत थी, उठ कर दूसरी जगह चले गए।

एक-आध घंटे बाद जगदीश गोयल, जो पुस्तकों के संपादक थे, आजकल के कमरे में आये और पूछने लगे, ‘‘अरे भई, क्या हुआ? सुना तुम बड़े गुस्से में हो।’’
गोयल जी पाण्डेय जी के परम भक्त थे, गोकि वे समकालीन थे और लगभग समान पद पर थे इस पर भी उनका गुरू-शिष्य जैसा नाता था। जो भी हो पाण्डेय जी अक्सर उनके पास ही बैठे मिलते थे। वे दोनों आकाशवाणी में वर्षों साथ काम कर चुके थे। मैंने टालने की कोशिश की। वैसे भी गोयल कोई साहित्यिक आदमी तो थे नहीं। दूसरा, मैं अपनी ज्यादा भद्द भी नहीं पिटवाना चाहता था। मैंने उसी अंदाज में कहा, कुछ नहीं। एक साक्षात्कार करना था, नहीं हो पायेगा।
किस का साक्षात्कार?’’ उन्होंने जानते-बूझते साग्रह पूछा। पाण्डेय जी ने निश्चित ही उन्हें सब कुछ बता दिया था।
‘‘अज्ञेय जी का!’’ मैंने खीझते हुए कहा था। मुझे इस में भी शक था कि वह अज्ञेय जी के नाम से भी परिचित होंगे।
‘‘हुआ क्या?’’ उन्होंने मेरा पिंड नहीं छोड़ा।

पूरी अनिच्छा के बावजूद मुझे किस्सा बतलाना पड़ा। जितना संक्षेप में हो सकता था मैंने बयान कर दिया।

वह मुस्कराए, बोले, ‘‘चाहते क्या हो?’’
‘‘क्या चाहते हैं! कुछ नहीं। वह साक्षात्कार नहीं देना चाहते तो न सही। इसमें पाखंड की क्या बात है।’’ मेरी खीझ न चाहते हुए भी छिप नहीं पा रही थी।
‘‘तुम साक्षात्कार चाहते हो न!’’ उन की गंभीरता ने मुझे चैंका दिया। मेरे भीतर बैठे संपादक के कान खड़े हो गए।
‘‘चाहते हैं, पर चाहने से क्या होता है?’’, सारे गुस्से के बावजूद, गोयल साहब की बातों ने एक हल्की-सी ही क्यों न हो, पर उम्मीद जगा ही दी थी। एक संपादक के नाते अज्ञेय जी से कहीं ज्यादा बड़ी मेरी जिम्मेदारी आजकल के पाठकों के प्रति थी, जिसकी मैं रोटी खाता था। ज्ञानपीठ मात्र अज्ञेय नामक व्यक्ति को नहीं बल्कि हिंदी भाषा को भी मिला था।
अचानक गोयल साहब ने टेलीफोन की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘मिलाओ फोन।’’
मैं उन के अंदाज से घबड़ा गया। गोयल साहब अपने अक्खड़पन और दुस्साहसिकता के लिए बदनाम थे। सोचा अज्ञेय जी को कहीं कुछ अंटबंट ही न बोल दें। मैं ऐसी स्थिति भी नहीं चाहता था। आखिर वह इतने बड़े और सम्माननीय लेखक थे।
उन्होंने फिर कहा, ‘‘अरे मिलाओ फोन!’’
इस पर भी मेरा हाथ नहीं बढ़ा।
‘‘लाओ, मुझे दो नंबर,’’ उन्होंने फोन अपनी ओर खींचते हुए कहा।

मैंने नंबर देने से पहले आखिर पूछ ही लिया, ‘‘आप जानते हैं उन्हें?’’
‘‘अरे भई नंबर तो दो!’’ मेरी बात का जवाब न देकर वह अपने आग्रह पर अड़े रहे। उनके आत्मविश्वास के आगे मैं टिक नहीं सका और मेरे नंबर बोलने के साथ ही साथ टेलीफोन का डायल घूमने लगा।
‘‘मैं गोयल बोल रहा हूं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘क्या वात्स्यायन जी से बात हो सकती है?’’
जैसा कि होना था, फोन इला जी ने उठाया होगा। वैसे भी अज्ञेय जी शायद ही कभी फोन उठाते हों। ष्

कुछ देर के इंतजार के बाद, दूसरी ओर की आवाज का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘वात्स्यायन जी, नमस्कार मैं जगदीश गोयल बोल रहा हूं।’’ सामान्य औपचारिकताओं के बाद गोयल साहब को मुद्दे पर आने में देर नहीं लगी। मेरे सामने अजूबा हो रहा था। कल्पनातीत। मेरा दिल धड़कने लगा। जैसा कि होना था, उधर से मना किया गया। पर गोयल साहब ने हार नहीं मानी बल्कि पूरे अधिकार के साथ बोले, और जिसे मैंने अपने कानों से सुना, ‘‘नहीं, वात्स्यायन जी आप को साक्षात्कार देना ही होगा। मैं वचन दे चुका हूं।’’
आश्चर्यों का आश्चर्य यह हुआ कि देखते ही देखते अज्ञेय जी ने गोयल साहब के सामने हथियार डाल दिए।

अंत में गोयल साहब ने कहा, ‘‘तो ठीक है भेज देता हूं।’’
मुझे आदेश हुआ, अगले दिन उनसे जा कर मिल लूं।

मैं डरता हुआ-सा फिर निजामुद्दीन के उस घर में पहुंचा। अज्ञेय जी ने पूछा, ‘‘साक्षात्कार कौन करेगा?’’
मैंने कहा, ‘‘आप जिससे कहें!’’
‘‘नहीं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘नाम सुझाइये।
मैंने विष्णु नागर, नेत्र सिंह रावत और प्रयाग शुक्ल सहित कुछ नाम सुझाए पर वह आश्चर्यजनक रूप से नाटककार कुसुम कुमार पर सहमत हुए। मैं जबकि सोच रहा था वह रघुवीर सहाय या मनोहरश्याम जोशी जैसे किसी लेखक के नाम पर सहमत होंगे। अपनी सीमाओं के कारण मैं ये नाम नहीं सुझा पाया था। मनोहरश्याम जोशी से मेरा संवाद था, रघुवीर सहाय से तो कभी हो ही नहीं पाया। वैसे भी इतने बड़े लोग किसी सामान्य-सी सरकारी पत्रिका के लिए यह काम क्यों करते। वैसे अज्ञेय जी के कहने पर संभवतः रघुवीर सहाय कर देते क्योंकि वह तब तक दिनमान से हटाये जा चुके थे या हटाये जा रहे थे। खैर, यह नौबत आई ही नहीं। चुनाव अज्ञेय जी का था, मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी! मेरे हाथ में कुछ रह ही नहीं गया था। हां, निराशा जरूर हुई।

‘‘प्रश्न बना कर दे दीजिएगा,’’ उनका आदेश था।

हम दोनो ने मिल कर प्रश्न बनाए और कुसुम कुमार ही उन्हें लेकर अज्ञेय जी के पास गईं। मैं तब भी नहीं समझ पाया क्या होनेवाला है, उल्टा योजना बनाता रहा कि जब कुसुम कुमार साक्षात्कार करने जाएंगी साथ चला जाऊंगा और कुछ अतिरिक्त प्रश्न तो पूछ ही लूंगा। अज्ञेय जी ने प्रश्नावली रख ली और टाइप किए हुए जवाब हमें मार्फत कुसुम कुमार यथासमय भिजवा दिए। उस निर्जीव साक्षात्कार से, जो जरा भी असुविधाजनक सवाल हो सकते थे, बदल दिए गए थे।

आजकल का जून, 1979 अंक, अज्ञेय केंद्रित अंक के रूप में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष उनके साक्षात्कारों की किताब अपरोक्ष में इस अंक में प्रकाशित वह साक्षात्कार भी शामिल है। साथ में उनकी दो नई कविताएं भी प्रकाशित हुईं। चाहता तो था कि कोई गद्यांश भी मिले और उनके खींचे फोटोग्राफ भी। उन्हें फोटोग्राफी का शौक था, यह बात मैं आंगन के पार द्वार संग्रह से जानता था जिसमें उनके खींचे कई सुंदर फोटोग्राफ शामिल थे। पर यह तब हो पाता जब थोड़ी भी सहजता बन पाती। मेरा शुरू में जो भी उत्साह था, साक्षात्कार के साथ ही ठंडा हो चुका था। कविताएं भी संभवतः कुसुम कुमार ने ही ला कर दीं। प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्तऔर प्रयाग नारायण त्रिपाठी ने उन पर लेख लिखे थे। मुक्तका लेख कैसे आया यानी उनसे लिखने को किसने और क्यों कहा, यह याद नहीं है, इतना जरूर याद है कि मुक्त एवरीमैन्स के हिंदी संस्करण प्रजानीति के संपादक थे। प्रयाग नारायण त्रिपाठी से मैंने आग्रह किया था। यद्यपि त्रिपाठी जी हमारे बाॅस रह चुके थे पर वह अत्यंत सरल आदमी थे और उनसे मेरे मित्रतापूर्ण संबंध थे। वह तीसरे सप्तक के पहले कवि थे। इस सप्तक में विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह और कीर्ति चैधरी के अलावा कुंवर नारायण भी शामिल हैं जिन्हें इस वर्ष ज्ञानपीठ मिला है। नवभारत टाइम्स के लेखों की श्रृंखला के बावजूद चैथा सप्तक कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया। एक अर्थ में यह इस बात का भी प्रमाण था कि तब तक अज्ञेय जी की समकालीन रचनाकर्म की नब्ज पर पकड़ नहीं रही थी। जो युवा उनसे संपर्क में थे या उसके बाद वत्सल निधि के माध्यम से जुड़े, उनमें से शायद ही कोई साहित्य में अपना स्थान बना पाया हो।

आजकल के उस अंक की सबसे बड़ी विशेषता उसका आवरण रही। हमने अज्ञेय जी के विशेष रंगीन फोटो खिंचवाए जो प्रकाशन विभाग के प्रमुख फोटोग्राफर मोतीलाल जैन ने खींचे थे। उन दिनों रंगीन चित्र सिर्फ ट्रांसपेरेंसी में ही संभव हुआ करते थे। और भी समस्याएं थीं। जैसे कि आजकल तब तक लैटरप्रेस पर छपता था यानी फोटो के हाॅफटोन ब्लाॅक बनवाने पड़ते थे। जिस प्रेस के पास आजकल छापने का अनुबंध था वह ब्लाॅक किसी ऐरे-गैरे ब्लाॅक मेकर से कम से कम लागत पर बनवाता था। उस आवरण के लिए हमने विशेष अनुमति ली और स्टेट्समैन प्रेस से स्वयं ब्लाॅक बनवा कर प्रेस को दिए। पूरे पृष्ठ के इस चित्र में अज्ञेय जी के पीछे थोड़ी ऊंचाई पर एक बड़ी-सी राजस्थानी पटचित्र या मधुबनी पेंटिंग लटकी हुई है। वह सोफे पर बैठे हैं और उनकी बायीं ओर कोने की मेज पर एक लैंप है। कुर्ता-पायजामा नहीं बल्कि नीली कमीज और उस पर खुली जैकेट पहने हैं। बहुत संभव है यह फोटोग्राफर के आग्रह पर हुआ हो, जो अपने चित्र में रंग चाहता होगा। उनके जैकेट से एक बात तो साफ है कि यह चित्र मार्च महीने के आसपास का रहा होगा। कंपोज के लिए हम प्रेस को सामग्री डेढ़ महीना पहले दे दिया करते थे।

जो भी हो, जैसा कि मैं बतला चुका हूं, यह आजकल के इतिहास में पहली बार हुआ था कि किसी समकालीन लेखक के चित्र को पूरे पृष्ठ और वह भी आवरण पर छापा गया हो। उसी दौरान हमारे एक मित्र ने जो कोलकाता से आए थे मुझे एक मजेदार बात बतलाई। बोले मैं रविवार के दफ्तर गया था। वहां सुरेन्द्र प्रताप सिंह के कमरे में आजकल का (अज्ञेय जी वाला) आवरण चिपका हुआ था। उत्साहविहीनता से भरे उस काम का यह बड़ा पुरस्कार था। निश्चय ही यह अज्ञेय जी के कारण रहा होगा, पर उसे प्रस्तुत तो हमने ही किया था।

यह बतलाना तो रह ही गया है कि गोयल साहब की बात अज्ञेय जी मान कैसे गए। असल में अज्ञेय जी असम में सेना के प्रचार विभाग से लौटने के बाद, दो-ढाई वर्ष (1952-1955) आकाशवाणी के हिंदी समाचार विभाग से सलाहकार के रूप में जुड़े रहे थे। वैसे उनका सेना और वह भी अंग्रेजी सेना के प्रचार विभाग के लिए काम करना (1943-1945) भी कम रहस्यमय नहीं रहा है। 1942 में दिल्ली में फासिस्ट विरोधी सम्मेलन का आयोजन करना और सेना में जाकर असम में काम करना, जहां जापानियों के हमले का खतरा स्पष्ट नजर आ रहा था, शायद इसकी स्वाभाविक परिणति थी। यहां यह याद रखना जरूरी है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में फासीवाद के खतरे को तब उस तरह से नहीं देखा-समझा जाता था, जैसा कि आज है। कम्युनिस्ट पार्टी निश्चय ही फासीवाद का जम कर विरोध कर रही थी और इसका बड़ा कारण जर्मनी का सोवियत रूस पर आक्रमण था। सुभाषचंद्र बोस तब जापानियों और जर्मनी की मदद से आजादी की लड़ाई चला रहे थे। यानी यह तब शुद्ध अंग्रेजी साम्राज्य को बचाने की रणनीति का हिस्सा था। उनका अंग्रेजों के साथ जाना तब कुछ ज्यादा ही अटपटा था, जब कि वह आजादी के क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में रहते हुए वह बम बनाते हुए पकड़े गए थे उन्होंने अंग्रेजों की जेलों में लगभग तीन वर्ष बिताए थे। वैसे बाद में अज्ञेय जी की कांग्रेस फाॅर कल्चरल फ्रीडम के साथ भी निकटता रही जो क्वेस्ट नाम की पत्रिका निकालता था। इस संदर्भ में 1999 के अंत में लंदन रिव्यू आॅफ बुक्स में हू पेड द पाइपर? सीआइए एंड द कल्चरल कोल्ड वार नामक पुस्तक की समीक्षा करते हुए एडवर्ड सईद ने लिखा हैः ‘‘… हमारे बहुत थोड़े बुद्धिजीवी और सांस्कृतिक क्षेत्र की हस्तियां सीआइए द्वारा दिये गये लालचों से बच पायीं थींचाहे वे आराम दायक विदेश यात्राओं के रूप में हों या छिपाकर दी गई आर्थिक सहायता के रूप में हों पार्टिजन रिव्यू, कामेंट्री, सिवान रिव्यू, कैनयान रिव्यू के अलावा एनकाउंटर और उसकी फ्रांसीसी, जर्मनी, इतावली और यहां तक कि अरबी और भारतीय (इशारा क्वेस्ट की तरफ ही है। -सं) सभी कलमें लाभान्वित हुई थींया कांग्रेस फाॅर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठनों और फोर्ड फाउंडेशन, जिसके बारे में शुरूआत से ही ऐसा लगता था मानो यह सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीति को बढ़ावा देने और सीआइए की कारगुजारियों को आड़ देने के लिए है, ठेके देने के रूप में था। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका में फोर्ड की वर्तमान प्रतिष्ठा और दानशीलता पर आज भी इस राजनैतिक इतिहास का धब्बा है।’’ (समयांतर, जनवरी, 2000 में प्रकाशित अनुवाद) प्रसंगवश अज्ञेय जी साठ के दशक के मध्य से सत्तर के दशक के मध्य तक कई बार विदेश यात्राओं पर गए और अमेरिका में अध्यापन भी किया। सीआइए द्वारा कला व संस्कृति के क्षेत्र में की जा रही गतिविधियों का खुलासा 1968 में हुआ था और इसके साथ ही वैश्विक स्तर पर बौद्धिक जगत की स्टिफेन स्पेंडर और राॅबर्ट लाॅवेल जैसी कई हस्तियां ध्वस्त हो गई थीं तथा कला व साहित्य जगत की कई संस्थाओं और पत्र-पत्रिकाओं की विश्वसनीयता जाती रही थी।

अज्ञेय जी के देहांत के बाद उनके जीवन के बारे में लिखे लेख अज्ञेय की याद मेंमें इला डालमिया ने अज्ञेय के अंग्रेजों की भारतीय सेना में जाने के संबंध में मजेदार जानकारी है। अज्ञेय जी (जिन्हें इला वत्सल नाम से संबोधित करती हैं) की गिरफ्तारी अमृतसर में हुई थी। तब पंजाब इंटेलिजेंस ब्यूरो का मुखिया जेनकिंस नाम का अंग्रेज था। उसने अज्ञेय से पूछ-ताछ की थी। ‘‘ जब वत्सल को जेल से छुट्टी मिली तो उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चा इतनी फैल गई थी कि काॅलेजवालों ने काॅलेज में दाखिला देने से इंकार कर दिया। पर जेल से छूटने पर उनको आॅल इंडिया रेडियो का एक पत्र मिला। वहां से काम का आमंत्रण था। पंजाब के इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया जेनकिंस की सिफारिश पर आॅल इंडिया (रेडियो) ने यह कदम उठाया था। जेनकिंस के मन में इस साहसी युवक की सच्चाई के चरित्र की छाप पड़ चुकी थी।…’’
‘‘कुछ समय बाद जब वत्सल भारतीय सेना में भरती होना चाह रहे थे, तो इन्हीं जेनकिंस ने वात्स्यायन के बारे में कहा था कि यह युवक चरित्रवान है, विश्वसनीय है।…’’ यानी जेनकिंस ने अज्ञेय जी की सिफारिश की थी।

‘‘
जब जापानी सेना इंफाल के बार्डर से भारत में आने का प्रयत्न कर रही थी, उस समय अंग्रेज सरकार को ऐसे लोगों की जरूरत थी जिनका भारतीय आदमी सहज ही भरोसा कर सके। तब वत्सल को सेना में सम्मिलित होने का निमंत्रण मिला।…’’
हिंदी दुनिया का यह एक बड़ा रहस्य है कि आखिर वह व्यक्ति जो अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा चुका हो किस तरह से अंग्रेजों की सेना में भरती हुआ। इला डालमिया के लेख में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैः

‘‘
वत्सल के मन में गिरफ्तार होने के पहले से ही आतंकवादी रास्ते को लेकर शंकाएं उत्पन्न होने लगीं थीं। सन् 41-42 के दिन। वत्सल एकदम अकेले हो गए थे। सन 42 के भारत छोड़ो आंदोलन से वत्सल का मन नहीं जुड़ा। गांधी, नौजवान समाजवादी जयप्रकाश, लोहिया, इन सबसे वत्सल की सोच अलग थी। भारतीय लोगों में, भारत की अंग्रेजों से स्वतंत्रता ही, सबसे बड़ी चीज लग रही थी। इधर वत्सल को लग रहा था कि द्वितीय महायुद्ध छिड़ा हुआ है। इसमें हिटलर की विजय सारी मानव जाति की हार होगी। वत्सल की चिंता उस मनुष्यता की रक्षा के लिए थी। इसी सोच के तहत वत्सल ने तय किया कि वे न केवल युद्ध के पक्ष में हैं और अंग्रेजों की सेना है तो क्या हुआ, वे सक्रिय रूप से उसमें शामिल भी होंगे। स्थिति, भारत की सीमित स्थिति देखने की बात नहीं थी, संपूर्ण विश्व के मानव जाति के संदर्भ में स्थिति को देखने की बात थी।…’’

सन 2006 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक इला में संग्रहीत इस लेख में यशपाल का काफी नकारात्मक संदर्भों में जिक्र है। एक जगह लिखा गया है ‘‘यशपाल पर दलवालों को संदेह हो गया था।’’ ‘‘यशपाल साहसी थे, लेकिन अपने को अपने अन्य साथियों से ऊंचा मानते थे।’’ ‘‘वह (गिरिवर सिंह) वास्तव में तो दल का साथी था अतः सब सदस्य उससे बराबर का बर्ताव करते थे, पर यशपाल उसके साथ नौकरों जैसा बर्ताव करते थे।’’ बाद में गिरिवर मुखबिर हो गया था और उसने अदालत में अज्ञेय को पहचानने से इंकार कर दिया था। अज्ञेय जी के संपादन के दौरान दिनमान में क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में एक विवाद छपा था, जिसमें यशपाल पर काफी कीचड़ उछाली गई थी।

इला डालमिया के लेख से एक बात तो स्पष्ट है कि यह सारी जानकारी उन्हें अज्ञेय जी ने स्वयं दी होगी। क्या इससे साफ यह नहीं नजर आता कि जेनकिंस ने अज्ञेय को तोड़ लिया था अन्यथा रेडियो की ओर से उन्हें बुलाया जाना और फिर सीधे सेना में भर्ती करना, जहां वह तीन वर्ष रहे, अपने आप में अजूबा नहीं है? ये बातें मात्र अज्ञेय के संदर्भ में अकादमिक महत्व या रुचि की नहीं हैं बल्कि हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के बारे में और प्रकारांतर से स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी इतिहास को समझने के लिए भी लाभप्रद साबित होंगी। यह अपने आप में आश्चर्य की बात है कि अभी तक किसी भी शोधार्थी ने अज्ञेय के इस पक्ष की पड़ताल नहीं की है। मेरे विचार में कम से कम अब तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में उस दौर के दस्तावेज अवलोकनार्थ उपलब्ध होंगे। उन्हें देख कर जेनकिंस की भूमिका और अज्ञेय के सेना में जाने के सारे संदर्भों को समझा जा सकता है। इसके अलावा यशपाल को लेकर जो शंकाएं हैं उन्हें भी स्पष्ट करने में मदद मिलेगी।

दिल्ली से निकलनेवाली रायिस्टों की साप्ताहिक पत्रिका थाट को लेकर भी कई तरह की बातें कही जाती थीं, जिसके मालिक संपादक राम सिंह थे। अज्ञेय जी इससे बाद में भी साहित्य संपादक के तौर पर जुड़े रहे थे। 1942 के दौरान रायिस्टों की योजना दिल्ली से इंडिपैंडेंट इंडिया नाम से एक दैनिक निकालने की भी थी, जिसका संपादक राम सिंह को ही होना था और अज्ञेय सहायक के तौर पर जुड़नेवाले थे। गोकि थाॅट आठवें दशक तक जिंदा रहा पर पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुका था।

यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि इसमें शक नहीं है कम्युनिस्ट फासीवाद के विरोध के चक्कर में अंग्रेजों के सहयोगी हो गए थे पर महत्वपूर्ण यह है कि अज्ञेय न तो कम्युनिस्ट थे और न ही उनके समर्थक। बल्कि ऐसा लगता है कि रणनीतिगत कारणों से माक्र्सवादियों से संबंध बनाए गए थे22 अप्रैल, 1942 को नेमिचंद जैन को लिखे पत्र से स्पष्ट है कि वह एमएन रायिस्ट थे और रेडियो में काम करते हुए वह औपनिवेशिक सरकार के लिए उससे बाहर भी कुछ बड़ा काम करना चाहते थे, गोकि यह काम फासीवाद विरोध के नाम पर ही होना था। इस पत्र में उन्होंने लिखा है, ‘‘… मैं यह मानकर चला हूं कि आप जेनुइन एंटीफासिस्ट हैं; प्रश्न यही हैं कि उस खरी भावना को कार्यान्वित करने के बारे में आप क्या सोचते हैं।
‘‘1. यदि कुछ व्यक्तियों या संस्थाओं के उद्योग से एक होम गार्ड आंदोलन आरंभ हो, जिसे सरकार की भी मंजूरी मिल जाए, तो आप उसमें योग दे सकेंगे? (अगर सरकार शुरू करेगी तो जनता उपेक्षा करेगी; अगर सरकार मंजूरी न देगी तो काम कठिन होगा; इसलिए यही सूरत हो सकती है न!) यह संगठन बिल्कुल इंग्लैंड के होम गार्ड के ढंग का होगा, और उसे सैनिक, राजनीतिक और नागरिक शिक्षा दी जाएगी।’’
सात प्रश्नों की श्रृंखला में तीसरा प्रश्न है, ‘‘रायिस्टोंके साथ काम करने में आपको कोई आपत्ति है?’’
नेमिचंद जैन को लिखे 27 अगस्त, 1945 के पत्र में अज्ञेय उनका इसलिए मजाक बनाते हैं कि वह साम्यवादी विचारधारा के हैं। नेमीचंद जैन उन दिनों साम्यवादी विचारों के निकट थे। अज्ञेय ने लिखा है, ‘‘आपकी करनी पर रोष तो क्या होता। एक तो वैसे ही नहीं होता, क्योंकि आप (यह आप जातिवाचक है, अर्थात आप प्रोग्रेसिव – ) लोगों की तरह सब कर्मों को नापने के लिए बनी-बनाई छड़ी मेरे पास कहां है?…’’ पत्र में उन्होंने आगे लिखा है, ‘‘ शायद माक्र्सवादियों के लिए उनकी डाक सेफ्टी वाॅल्व है जिसमें हर तरह के डेवियेनिस्ट या डाइवर्जनिस्ट या रोमांटिक या सब्जैक्टिव याविचार व्यक्त किए जा सकते हैं। नहीं तो क्या आप आॅफिसियली यह मत प्रकाशित कर सकते कि काम शायद इस बार अधिक अच्छा हो। क्या जाने।’ ‘जीवन और मन की गति किस ओर धकेले लिए जा रही है पता नहीं चलता।’ ’’
इस संदर्भ में अंतिम बात यह है कि 22 अप्रैल, 1942 वाले पत्र में अज्ञेय ने नेमिचंद जैन को हिदायत दी थी, ‘‘ देखिए, उत्तर देने के बाद इस पत्र को फाड़ दें या अपने साथ लेते आवें।’’ प्रश्न यह है इस पत्र के प्रति वह इतने सचेत क्यों थे? इसके अगले ही साल वह सेना के लिए उत्तर पूर्व में काम करने चले गए थे।

खैर, आकाशवाणी के दौरान गोयल साहब ने उनके साथ काम किया था। वही संबंध काम कर गया था। देखने की बात यह थी कि अज्ञेय जी अपने साथियों और प्रेमियों का किस हद तक सम्मान करते थे और उन्हें एडजेस्ट करते थे। उसी दौरान आकाशवाणी में रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और मनोहरश्याम जोशी भी रहे थे। वैसे यहां यह बतलाना जरूरी है कि अज्ञेय जी उससे पहले कभी भी आजकल में नहीं छपे थे। यह मैं इसलिए कह सकता हूं कि जून, 1994 में जब हमने आजकल का स्वर्ण-जयंती अंक निकाला, जो कि विगत आधी सदी में आजकल में प्रकाशित सामग्री का चयन था, तो उसके एक-एक अंक को खंगाला था और शायद ही कोई ऐसा बड़ा नाम हो जो पिछले पांच दशकों में आजकल में छपा हो वह स्वर्ण-जयंती अंक में न शामिल किया गया हो।

यह तो सब जानते ही हैं कि अज्ञेय घुमक्कड़ी के जबर्दस्त शौकीन थे। उनका पत्रकारिता प्रेम भी कम चर्चित नहीं है। दिनमान की स्थापना उनका सबसे चर्चित काम कहा जा सकता है, जो अपने आप में कई मायनों में अभिनव प्रयत्न था। नेमिचंद जैन को लिखे पत्रों में उन्होंने कम से कम तीन जगह नयी पत्रिकाएं निकालने की योजना पर चर्चा की है। सेना से लौट कर 1947 से 1950 तक उन्होंने इलाहाबाद से प्रतीक का प्रकाशन संपादन किया था। दिसंबर, 1973 में दिल्ली से प्रतीक को नया प्रतीक के नाम से मासिक निकाला गया था। इला डालमिया इससे पूरी तरह जुड़ी रहीं। गोकि इस बार भी यह ज्यादा नहीं चला।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। ज्ञानपीठ किसी दक्षिण की भाषा के लेखक को मिला था। सम्मान समारोह के बाद उन दिनों एक दावत भी ज्ञानपीठ दिया करता था। 1980 में संपादक पाण्डेय जी के सेवानिवृत्त होने के साथ ही मुझे आजकल से हटा दिया गया था। इस बीच जगदीश गोयल की पदोन्नति हो गई थी और वह आकाशवाणी पत्रिका समूह के प्रधान संपादक बना दिये गए थे। उन्होंने मुझे समाचार प्रभाग से खींच कर आकाशवाणी पत्रिका के सहायक संपादक के पद पर बुला लिया था। इसका दफ्तर पीटीआइ बिल्डिंग में था और हिंदी के अलावा वहां से अकाशवाणी अंग्रेजी और आवाज उर्दू पत्रिका भी निकलती थी। ये मूलतः आकाशवाणी के कार्यक्रमों की पत्रिकाएं थीं, बाद में इन में कुछ सूचनाएं दूरदर्शन के कार्यक्रमों की भी शामिल की जाने लगीं थीं। इनके और भी कई प्रादेशिक संस्करण थे जो विभिन्न राज्यों की राजधानियों से निकलते थे। आवाज में शुरूआती दौर में मजाज लखनवी ने काम किया था और यह नाम भी उन्हीं का दिया हुआ था।

मुझे पहली बार ज्ञानपीठ की इस पार्टी का निमंत्रण मिला था और यह कम प्रसन्नता की बात नहीं थी। इसलिए कि यह मेरे साहित्य के संस्थानों में भी पहचाने जाने की शुरूआत थी। पार्टी तिलक मार्ग की दो नंबर कोठी में हुआ करती थी। ऐन पटियाला हाउस के सामने, जहां तब प्रकाशन विभाग हुआ करता था। डालमिया की यह कोठी भी उन दिनों बैनेट कोलमैन के नियंत्रण में थी। आयोजन काफी भव्य था, जिसमें दिल्ली के हिंदी के सभी बड़े लेखक तो शामिल थे ही विभिन्न भाषाओं के लेखक व कलाकार आदि भी उपस्थित थे। खाने के स्टाल लगे हुए थे। लोग स्टालों के बीच आ-जा रहे थे। मैंने अचानक देखा कि एक जगह अज्ञेय जी अकेले खड़े हैं। 1979 के बाद से मुझे उनसे मिलने का मौका नहीं मिला था। मैं सब कुछ भूल, लपक कर उनके पास जा पहुंचा और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उन्होंने नमस्कार का जवाब तो दिया पर वह इतना ठंडा था कि लगा, पहचान नहीं रहे हैं।

आजकल के हवाले से मैंने याद दिलाने की कोशिश की।
‘‘जानता हूं।’’ शब्दों की ऐसी मितव्ययिता जीवन में मुझे फिर कभी देखने-सुनने को नहीं मिली। वे डेढ़ शब्द उस कोलाहल और उत्सवी माहौल पर इतने भारी पड़े कि सब कुछ मौन हो गया। मेरी समझ जवाब दे गई। बात आगे बढ़ाने का कोई सिरा ही नहीं सूझा।

मैंने बहुत ही औघड़ तरीके से कहा, मैं अब आजकल में नहीं रहा हूं।

वह चुप रहे। मुझे लगा मैंने कोई बहुत ही बेवकूफाना बात कह दी है, जबकि कोई गुरु-गंभीर साहित्यिक या दार्शनिक बात कहनी चाहिए थी।

अगली बात जो मैं कह सकता था वह थी कि आजकल आकाशवाणी पत्रिका में हूं। यह कहना मुझे और भी बचकाना लगा। व्यवहारिक यह था कि किसी तरह सामने से हट जाऊं। पर यह हिम्मत भी नहीं रह गई थी कि अचानक मुड़ कर दूसरा रुख कर सकूं। एक-एक पल एक-एक युग की सजा-सी महसूस होने लगा। न जाने कब तक अज्ञेय जी के मौन के पहाड़ के नीचे दबा मैं छटपटाता रहा कि अचानक महसूस किया, किसी ने पीछे से मेरे दोनों कंधों को पकड़ा है, इससे पहले कि समझ में आता क्या हो रहा है, एक ही झटके में उन मजबूत हाथों ने मुझे दूसरी ओर घुमा दिया। मैंने आवाज सुनी, ‘‘ इधर आओ, जलेबी खाओ।’’ मनोहरश्याम जोशी थे। न जाने उन्होंने कहां से देख लिया था कि मैं फंस गया हूं।
जलेबी पहाड़ियों की प्रिय मिठाई है। गर्मा-गर्म हो तो फिर बात ही क्या है!

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