अमरीकी सेनेट ने सीमा सुरक्षा विधेयक (बॉर्डर सिक्योरिटी बिल) को मंज़ूरी क्या दी, हमारे देश में हो-हल्ला मच गया. बहुत संभव है कि इस विधेयक की ओर भारत में किसी का ध्यान भी नहीं जाता अगर इसके अनुषंग से सेनेट ने एच-1बी और एल-1 वीज़ा के शुल्क में भारी बढ़ोतरी की घोषणा न की होती. किसी ने इस कदम को 'डिस्क्रिमिनेटरी' कहा तो किसी ने 'प्रोटेक्शनिस्ट' बताया. जैसा कि कहा जा रहा है भारतीय आईटी कंपनियों के संयुक्त मुनाफे पर बीस से पच्चीस करोड़ डॉलर वार्षिक तक का असर पड़ने की संभावना है. यह भी उम्मीद है कि भारत सरकार इसके खिलाफ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) में शिकायत करे.
इस हो-हल्ले से परे एक नज़र अमरीका की राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों पर डालें तो एक अलग ही तस्वीर सामने आती है. इक्कीसवीं सदी का पहला दशक 'अमेरिकन ड्रीम' के लिए बड़ा उथल-पुथल भरा रहा; 'नाइन-इलेवन', गले की हड्डी बन चुके दो सामरिक अभियान (अफगानिस्तान और इराक),'दि ग्रेट रिसेशन' और पहले काले राष्ट्रपति का चुनाव जैसी घटनाएँ इसी दशक में हुईं. महामंदी के चलते व्यापक बेरोज़गारी, गृह-ऋण की किश्तें न चुका पाने के कारण हुई लाखों बेदखलियों के कारण फैले असंतोष और दो गैरज़रूरी लड़ाइयों के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश इत्यादि कारणों से गुज़रे दशक की तुलना कई बार साठ के दशक से की गई जब अमरीका में कुछ कुछ ऐसा ही माहौल था.
इस में कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रपति चुनावों में बराक ओबामा की सफलता के पीछे अफ्रीकी-अमरीकी समाज,श्रम संगठनों और अन्य प्रगतिशील हलकों का बहुत बड़ा हाथ है. इसके अलावा अमरीका के लैटिनो मतदाताओं की बदौलत नेवाडा, कोलोराडो, न्यू मेक्सिको, नॉर्थ कैरोलिना जैसे राज्यों में ओबामा को जॉन मै'केन के खिलाफ निर्णायक बढ़त प्राप्त हुई. पर पिछले डेढ़ साल के अपने कार्यकाल में राष्ट्रपति ओबामा से लगाई गई उम्मीदें पूरी नहीं हुईं. विदेश नीति के मामले में तो राष्ट्रपति ओबामा अपने पूर्ववर्ती की परंपरा का ही निर्वाह कर रहे हैं. इतना ही नहीं स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार (हेल्थ केयर रिफ़ॉर्म बिल) जैसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर भी जनहित के आगे कॉर्पोरेट जगत के हितों को तरजीह दी गई.
अनुमान है कि बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से नफरत फ़ैलाने वाले समूहों की संख्या (हेट ग्रुप्स) की संख्या अमेरिका में दोगुनी हो गई. टी पार्टी मूवमेंट नाम का एक राजनीतिक आन्दोलन भी पिछले साल ही अस्तित्व में आया. अपने नाम के अनुसार तो यह आन्दोलन अमरीकी क्रांति की एक प्रमुख घटना 'बॉस्टन टी पार्टी' से प्रभावित है जिसका उद्देश्य करों में बढ़ोतरी का विरोध करना है, पर इसका चरित्र घोर दक्षिणपंथी है. और यह आन्दोलन बड़ी तेज़ी से सारे अमरीका में फ़ैल रहा है. इन हालातों के मद्देनज़र ही प्रसिद्ध अमरीकी विचारक नोम चोमस्की ने हाल ही में कहा था कि उन्हें अमरीका में फासीवाद की आहटें सुनाई दे रही हैं. इस सिलसिले में एरिज़ोना राज्य द्वारा अप्रैल माह में पारित क़ानून एसबी 1070 दृष्टव्य है. बहुत सी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का दोष शरणार्थियों,प्रवासियों और बाहरी समझे जाने वाले लोगों के मत्थे मढ़ना एक आम बात है. सीमा पार कर भारत आने वाले बांग्लादेशियों और मुंबई पहुँचने वाले उत्तर प्रदेश-बिहार के लोगों को लेकर हल्ला हमारे यहाँ भी मचता ही रहता है. एरिज़ोना राज्य का यह कानून राज्य पुलिस को अवैध आप्रवासन से निबटने के लिए असीमित अधिकार देता है. इसके बहुतेरे प्रावधानों में से एक के तहत पुलिस केवल शक़ के आधार पर आप्रवासियों को रोक कर उनसे पूछ-ताछ कर सकती है और कागज़ात तलब कर सकती है. सत्रह अन्य राज्य भी इसी तरह के नस्ली पूर्वग्रह से ग्रस्त क़ानून बनाने के लिए अपने सदनों में विधेयक पेश कर चुके हैं.
ज़ाहिर है कि इस दक्षिणपंथी उभार के बीच ओबामा की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है. फिर अमरीकी सेनेट और कांग्रेस के लिए मध्यावधि चुनाव नवम्बर में होने वाले हैं. इस सीमा सुरक्षा विधेयक (और उससे जुड़ी वीजा शुल्क में बढ़ोतरी) को इन दो बातों के आलोक में देखा जाना चाहिए. इस संवेदनशील मुद्दे पर बनी द्विपक्षीय सहमति भी देखते ही बनती है (यह प्रस्ताव ध्वनि-मत से पारित हुआ है). इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि एच-1बी और एल-1 श्रमिक अमरीका की कुल श्रमिक आबादी का एक हजारवां हिस्सा भी नहीं है.
वीज़ा शुल्क में बढ़ोतरी से होने वाली अतिरिक्त आय का उपयोग अवैध आप्रवासन पर रोक लगाने के लिए अमरीका की दक्षिणी सीमा पर सुरक्षा मज़बूत करने के लिए किया जाने वाला है. उम्मीद की जा रही है कि इस विधेयक के द्वारा ओबामा के नेतृत्व वाली डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार लम्बे समय से अटके पड़े आप्रवासन सुधार विधेयक (इमिग्रेशन रिफ़ॉर्म बिल) के लिए ज़मीन तैयार कर रही है और यही इस कदम का सबसे सकारात्मक पहलू भी है. मध्य और दक्षिण अमरीका के गरीब देशों से बेहतर ज़िन्दगी की उम्मीद लिए बहुतेरे लोग चोरी-छुपे 'लैंड ऑफ़ अपॉर्चुनिटीज़' पहुँचते हैं. मगर वैध नागरिकता के अभाव में यहाँ कदम कदम पर शोषण का शिकार होते हैं. वे कमरतोड़ मेहनत करते हैं, बिना किसी सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य बीमा के एक निहायत असुरक्षित जीवन बिताते हैं और नस्ली भेदभाव का सामना भी करते हैं. अमरीका में रह रहे ऐसे लाखों लोगों को आप्रवासन सुधार विधेयक के अंतर्गत नागरिकता प्रदान किये जाने की योजना है. अगर सचमुच ऐसा हुआ तो इन लाखों जिंदगियों में रौशनी लाने में सहायक होने के लिए भारतीय आईटी कम्पनियाँ अपनी पीठ थपथपा सकती हैं. 'कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी' का दायरा सिर्फ अपने देश तक ही सीमित तो नहीं होता!
इसी से जुड़ी एक और पोस्ट यहां देखें…
इसी से जुड़ी एक और पोस्ट यहां देखें…
फिलहाल अमेरिका में रह रहे भारत भूषण तिवारी का यह आलेख 14 अगस्त को दिल्ली के दैनिक भास्कर में 'वीज़ा शुल्क का सामाजिक पक्ष' के शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। जनपक्ष के पाठक उनसे अच्छी तरह परिचित हैं।
लेख बहुत रोचक लगा.
जवाब देंहटाएंबहुत सारी नई सूचनाएँ मिलीं।
जवाब देंहटाएं