‘‘आज के समय में यह भी एक बड़ा भारी काम है कि अपनी और दूसरों की रचनाशीलता को बचाने और बढ़ाने का प्रयास किया जाये। उसे आज के रचना-विरोधी माहौल में असंभव न होने दिया जाये। क्या इसके लिए कोई सकारात्मक पहल की जा सकती है? यदि हाँ, तो कैसे? इस पर रचनाकारों को मिल-बैठकर, आपस में, छोटी-बड़ी गोष्ठियों और सम्मेलनों में विचार करना चाहिए। लेकिन इंटरनेट भी एक मंच है, इस पर भी इस सवाल पर बात होनी चाहिए। नहीं?’’
यह कथन है जाने माने कहानीकार और उपन्यासकार रमेश उपाध्याय का। वे इस संदर्भ में अपने ब्लाग बेहतर दुनिया की तलाश पर चर्चा कर रहे हैं। मेरा सभी साथियों से अनुरोध है कि कृपया उनके ब्लाग पर जाकर उनकी टिप्पणी को विस्तार से पढ़े और विमर्श को आगे बढाएं।
जाते हैं.
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंहिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
स्वच्छंदतावाद और काव्य प्रयोजन , राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
शुक्रिया अशोक जी, आपने रमेश जी का फोटो लगाकर मेरे इस प्रयास को समर्थन दिया।
जवाब देंहटाएं( राजेश और अशोक को धन्यवाद सहित ) उपाध्याय जी , आपका यह विचार स्वागतेय है । इस मंच का उपयोग वाकई बहुत अच्छे तरीके से किया जा सकता है ।भाई अशोक कुमार पाण्डेय ने जो प्रस्ताव रखे है उनपर सिलसिलेवार बात करना ज़रूरी है । आप हम सभी से वरिष्ठ है आप यदि शुरुआत करे तो हमे अच्छा लगेगा इसलिये भी कि आपने प्रिंट मीडिया के प्रारम्भ से अब तक कए समय का अवलोकन किया है और सम्भावनाओं के अतिरिक्त इसके खतरों को भी आप भलिभाँति जानते हैं । प्रिंट माध्यम की तरह इस माध्यम से भी कुछ इस तर्ह के लोग जुडे हो सकते हैं जिनकी मूल चिंतायें भिन्न हो सकती है लेकिन एक जैसी चिंता वाले लोगों को एक मंच पर लाना बहुत ज़रूरी है । इस विषय मे कोई कार्य योजना बनाकर यदि शुरुआत की जाये तो बेहतर होगा ।
जवाब देंहटाएंSeptember 4, 2010 11:19 AM