भेद खोलेगी बात ही. [ शमशेर }
हिंदी के जाने माने पुलिसपति कुलपति का बयान इन दिनों चर्चा में है.सारी आग लगी हिंदी के शब्द छिनाल के असंगत प्रयोग से. इस की सफाई देते हुए कुलपति ने बाद में बताया कि इस होहल्ले की बुनियादी वजह हिन्दीवालों का भाषा संबंधी अज्ञान है. छिनाल का अर्थ वह है ही नहीं , जो समझा जारहा है. यह तो छिन्न-नाल है. फिर काहे इतना बवाल है.
इस सफाई से और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, एक बात तो साफ़ हो गयी. उस बयान का जो सीधा और साफ़ मतलब है, उस के बचाव का कोई तर्क कुलपति जी के पास नहीं है. न उस पर डटे रहने का नैतिक वैचारिक साहस है. अपनी तर्कहीनता और बौद्धिक स्खलन का सामना करने , स्वीकार करने और इस तरह इस स्थिति को अपनी समझ के फंदों को सुलझा लेने का संयोग बना लेने के लिए और भी बड़ी हिम्मत चाहिए.लेकिन जो नहीं है , उस का क्या गम , वह नहीं है! जैसे कि सुरुचि! (बकौल शमशेर.)
ऐसे में भाषा की रेत में सिर गाड़ लेना ही सब से अछ्छा उपाय है.
हमारे प्रिय और आदरणीय विष्णु खरे ने भी उस बयान की निंदा की है. उक्त सफाई के बावजूद. ठीक ही किया है.
किन्तु हा हंत ! जनमत के अपने लेख ' क्या बात थी की जिस का ये विस्तार हो गया ..' में उन्होंने बचाव की ठीक इसी रणनीति का अनुसरण किया है. ' हिंदी के कुछ तथाकथित वामपंथियों के मग्ज़ में 'आस्था' जैसा पंथनिरपेक्ष शब्द एक नात्सी-फाशी पद जैसा कुछ बन गया है.' बहस निस्संदेह धार्मिक आस्था के कोण से कला का अर्थापन करने की 'वैष्णव' पद्धति पर थी. अब विष्णु जी कह रहें है-अजी , मैंने धार्मिक आस्था की बात ही कब की.'मेरी आस्था मार्क्स, बुद्ध और आंबेडकर में है और कथित ईश्वर में नहीं है तो आशुतोष बतलाएं कि वह तर्क की थीसिस है या एंटी'थीसिस?' यह ललकार इस लिए कि इस हकीर ने यह कहने की हिमाकत की थी कि आस्था खुद तर्क की एंटीथीसिस है!अब हम क्या बतलाएं. जब धार्मिक आस्था की कोई बात ही नहीं हुयी, तो बात ही ख़त्म . बहस गयी तेल लेने.विष्णुजी के लेखे आस्था वह है ही नहीं जो दुनिया समझती है. इस लिए उनकी बातों का जो मतलब समझा गया ,गलत समझा गया.लेकिन मतलब अगर वही हो , ,जो दुनिया समझती है , तो आस्था को पुनर्परिभाषित कर के विष्णुजी ने लगभग मान लिया है कि उस के बचाव का न तर्क है उन के पास , न साहस. रही इस तर्कहीनता को स्वीकार करने की हिम्मत की बात,सो वह सुरुचि की तरह ही हमारी बहसों से दिनों दिन गायब होती जा रही है.
सितम यह कि आस्था शब्द की 'पंथनिरपेक्षता' का ढोल पीट लेने के बाद बिना सांस लिए ठीक अगले ही वाक्य में विष्णुजी उद्घोषित करते हैं कि यहूदी और ईसाई सभ्यताओं ने तो पिछले दो -तीन सौ वर्षों में एक धर्मनिरपेक्ष आस्था अर्जित कर ली है, लेकिन हिन्दू मुस्लिम मतावलंबी अपनी जहालतों में उस से एकाध प्रकाशवर्ष दूर हैं.अब यहाँ पंथनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता का जो तिलस्म है, उस को फिलहाल छोड़ दें . यह मान कर चलें कि विष्णुजी इन दोनों शब्दों का प्रयोग सेक्युलर के अर्थ में कर रहें हैं.कम अज कम उस वक़्त तक , जब तक स्वयं विष्णुजी इस रहस्य का कोई नया भेद न बता दें .वैसे किसे पता नहीं है कि पंथनिरपेक्षता 'सेक्युलरिज्म' का उस संघ द्वारा रचित अनुवाद है , जिसे धर्मनिरपेक्षता का ख़याल भी गवारा नहीं . तो भी विष्णुजी इस पद विशेष का उपयोग करने भर से संघी नहीं हो जाते! हम फिलहाल केवल आस्था की बात करें.यहूदी -ईसाई सभ्यताओं ने ' धर्मनिरपेक्ष ' आस्था अर्जित की है. हिन्दू मुस्लिम कर पायेंगे , तो एकाध प्रकाशवर्ष की दूरी तय कर लेने के बाद. स्पस्ट है कि केवल तथाकथित वामपंथी ही आस्था को धर्म से जोड़तें हों , सो बात नहीं है.अपने विष्णुजी भी ऐसा ही करते हैं.
शब्दार्थ विश्लेषण ही करना हो , तो आस्था ' स्था' धातु में 'आ' उपसर्ग के सयोग से बना शब्द है. स्था में स्थिति, स्थायित्व, ठहराव और जड़ता का भाव है . गति और प्रगति का अभाव है. कोई भी प्रगति आस्था से टकराए बिना मुमकिन नहीं है, चाहे वह कला का इलाका ही या ज्ञान विज्ञान का. सीधी सी बात है, आस्था सृजन के मूल्यांकन की कसौटी नहीं हो सकती, वह धार्मिक हो या सेक्युलर.
विष्णुजी के लेखे धार्मिक आस्थाएं भी दो तरह की है. एक धर्मांध आस्था है . और दूसरी 'भोली अहानिकर श्रद्धा', जो ' करोडो , मुख्यतः गरीब, हिन्दुओं में ' पायी जाती है. हुसैन की 'एकमात्र' कथित सीता- हनुमान पेंटिंग से इसी आस्था के घायल होने का खतरा है.इस लिए यह पेंटिंग हुसैन की गैरजिम्मेदारी , उथली कलाप्रतिभा , हिन्दू परम्परा का अज्ञान और लोलुप बाजारपरस्ती का अकाट्य सबूत है.आह , उम्र भर की कला साधना और हज़ारों तस्वीरों पर यह अभागी अकेली पेंटिंग भारी पड़ गयी. और हुसैन जो ' चाहते तो बड़े कलाकार बन सकते थे ' ,बनते बनते रह गए!एक नहीं अनेक दफे विष्णुजी ने जोर दे कर कहा है कि हुसैन की बाकी विवादित कृतियों पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं है, और हुसैन की कुछ एक तस्वीरों ने ने उन पर गहरा असर भी डाला है.
विष्णुजी के अनुसार इस चित्र में उड़ते हुए हनमान पीछे मुड़ कर अपने 'लान्गूल' पर बैठी सीता को देख रहे हैं.कथादेश में उन्होंने लिखा था कि लान्गूल का एक अर्थ लिंग भी है. दोनों चित्रित आकृतियाँ निरावरण हैं. अब एक सवाल तो यह है कि क्या करोडो गरीब हिन्दुओं को मालूम है कि पूंछ को लान्गूल भी कहतें है, और लान्गूल में फ्रायडीय भाषाविश्लेषण के सहारे लिंग का प्रतीकत्व देखा जा सकता है? दूसरा अहम सवाल है कि इस चित्र में हनुमान और सीता के चहरे क्या कहते हैं. क्या हनुमान के चहरे पर उद्दाम वासना , अपहरण का आवेश और बलात्कार की उत्तेजना दिखाई दे रही है?विडम्बना यह है कि हुसैन के खिलाफ हिंदूवादी अभियान चलाने वालों ने भी इस चित्र को जो शीर्षक दिया था , वह था - ' सीता रेस्क्यूड' , न कि ' सीता एब्यूज्ड ' . स्पस्ट है कि विष्णुजी इस चित्र के अपने निजी पाठ को करोडो हिन्दुओं के मत्थे मढ़ रहे हैं. ऊपर से उन्हें जाहिल भी करार दे रहें हैं!
कथादेश में विष्णुजी ने लिखा था- सवाल यह है की इस देश में धार्मिक भावनाओं को भड़काने या उन्हें ठेस पहुंचाने के खिलाफ जो क़ानून है उन्हें क्या अतिविशिष्ट व्यक्तियों का लिहाज करते हुए निलंबित या असंवैधानिक घोषित किया जाता रहे ? कर के देखिये और फिर देखिये कि हिंदुत्ववादी शक्तियां मुस्लिमों ही नहीं ईसाईयों , सिख्खों , बौद्धों , जैनों और संभवतः दलितों के साथ भी क्या नहीं करतीं.
मेरी हकीर समझ में विष्णुजी की असली चिंता यही है. खुसरो की आँखों में डर जो है सो एक यह भी है. गैरवाजिब और नाकाबिलेगौर नहीं है यह.मैंने विष्णुजी को हिंदुत्ववादी कभी नहीं कहा. यह उपाधि तो अलबता आप ने ही इस नाचीज को अता की है.हिंदुत्ववादी शक्तियों से भयभीत होना अस्वाभाविक नहीं है.तमाम धार्मिकआस्थावादी शक्तियों से भयभीत होना, आज जैसे माहौल में स्वाभाविक है.लेकिन इस भय से आँखें चुराते हुए यह कहना कि आस्था धार्मिक आस्था है ही नहीं,एक करुण बौद्धिक पलायन है .
कविवर, हिंदुत्ववादी शक्तियों को इस देश के अल्पसंख्यकों दलितों के साथ जो करना है, और जो वे कर सकतीं हैं, कर ही रहीं हैं. कुछ कर के देखने या 'फिर' देखने का सवाल कहाँ है. हुसैन ने वह इकलौती पेंटिंग न बनायी होती, या उसे और अन्य विवादित कृतियों को राजकिशोर की सलाह से वापिस ले लिया होता तो न १९९२ होता न २००२ ,ऐसी खामखयाली भोली तो हो सकती है ,अहानिकर नहीं.
हिंदुत्ववादी अभियान को सब से ज्यादा ताकत तब मिलती है, जब इस देश के बौद्धिक समाज से उस के कुत्साप्रचार को वैचारिक समर्थन मिलने लगता है.उस बौद्धिक समाज से जो अब भी गांधी, नेहरू, भगत सिंह, आंबेडकर और मार्क्सवाद की मिलीजुली और फटी पुरानी विरासत के दबाव में पोंगापंथी कठमुल्लावाद और साम्प्रदायिक राजनीति के नग्नतम प्रारूपों को बेहिचक निगल पाने में खुद को असमर्थ पाता है.
धार्मिक भावनाओं को भड़काने और ठेस पहुंचाने के खिलाफ क़ानून भी इसी विरासत का हिस्सा हैं.ये क़ानून है तो उन शक्तियों की रोकथाम के लिए , जो विद्वेष या वहशत के चलते ऐसा कुछ करने पर आमादा हों.वे ही इस क़ानून को अपना सब से कारआमद हथियार बनालें ,यह क़ानून और राजनीति के बीच के गड़बड़घोटाले का सर्वाधिक आमफहम नमूना है.किसी का खानापीना, पहनावा, समुद्र के नीचे कोई सेतु , कोई कोई कदीम इमारत, नाम , भाषा , धरती , नदियाँ, पहाड़ ..., कुछ भी बहाना हो सकता है, धार्मिक भावनाओं के आहत होने का और फिर बदले की कैसी भी न्रिशंश कारवाई का.
इस लिए धार्मिक भावनाओं और आस्थाओं को आहत होने की अबाध और अनाविल छूट नहीं दी जा सकती.हुसैन इस क़ानून के दायरे में आते हैं , तो उन को वाजिब सजा जरूर मिलनी चाहिए. मुकदमे चल ही रहें हैं.लेकिन आप तो पहले ही फैसला सुनाये दे रहे हैं.क्या यह कानूनी प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं है?क्या संविधान इस की इजाजत देता है?
वह कथित सीता हनुमान पेंटिंग . उस से आपकी पंथिक या पंथनिरपेक्ष आस्था को चोट लगी.कुछ और लोगों को की आस्था को भी.मैं अभी इस पर बहस नहीं करता कि सही या गलत. लेकिन हुसैन को सजा दिलाने के लिए इतना ही बहुत नहीं है.साबित करना होगा कि हुसैन ने जान बूझ कर धार्मिक विद्वेष फैलाने के लिए, शरारतन , वह पेंटिंग बनायी.या बाज़ार में भाव बढाने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं की अनदेखी की.
क्या हुसैन के आकाशचुम्बी भावबढ़ती में उस पेंटिंग की कोई वास्तविक भूमिका है?या दीगर विवादित चित्रों की ?ये तो दसियों सालों तक गुमनाम पडी रही थीं. इनका आर्थिक राजनीतिक भाव तो बढ़ा ही तब , जब चढ़ते हिंदुत्ववादी अभियान को इमारतों से ज्यादा मुलायम सांस्कृतिक निशानों की जरूरत पडी. इस लिए हुसैन के हालिया बेहिसाब ऊंचे बाजारभाव को इस पेंटिंग के सन्दर्भ में धार्मिक भावनाओं को आहत करने के किसी गैर अदालती मुकदमे में भी दाखिल नहीं किया जा सकता. हद से हद उन पर बाज़ार में बिक जाने का , वह भी निहायत बेहया उटंग कीमतों पर , इल्जाम लगाया जा सकता है. कोई ऐसा कवि कलाकार हो , जिस ने बाज़ार से कोई रिश्ता न रखा हो, जिस ने अपनी किताबें -कृतियाँ बाज़ार में बेचने से दो टूक इनकार कर दिया हो , तो वह इस जुर्म के लिए हुसैन को संगसार करने के नैतिक अधिकार का भी दावा कर सकता है. लेकिन अभी जो मामला पेश है , उस का इस बात से कोई मतलब नहीं है. कोई अपनी चीजें बाज़ार में बेचता है, इस आधार पर आप उस पर धार्मिक भावनाएं भड़काने का इल्जाम नहीं लगा सकते! मुझे नहीं लगता कि ऐसा कहने से मैं बेशर्म बाजारवादी साबित हो गया या मेरी कथित मार्क्सवादी आस्था का दिवाला निकल गया. यह अलग कि न तो मार्क्सवाद मेरे लिए आस्था का विषय है, न आस्था में ही मेरी कोई आस्था है.
रही बात शरारत की. तो यह तो विष्णुजी ने भी नहीं कहा है. 'साफ़ साफ़ ' कहा सिर्फ इतना है कि हुसैन को हिन्दू परम्पराओं का ज्ञान नहीं है, क्यों कि वे जन्मना हिन्दू नहीं हैं.कथादेश के उसी लेख में , जिस का एक उद्धरण ऊपर दिया गया है. खैर अब इस तर्क के खंडन की हिमाकत कौन करे. कौन कहे कि कविवर, स्त्री जीवन की विडंबनाओं पर जो इतनी मर्मवेधी कवितायें आप ने लिखीं हैं ,वे सब फ्रॉड ही ठहरीं न ?आप के ही तर्क से . चूंकि आप जन्मना स्त्री नहीं हैं !!
हुसैन को हिन्दू परम्पराओं का ज्ञान रहा भी हो तो भी उन का अपराध कम नहीं होता. कवि की चिंता यह है कि करोडो गरीब हिन्दू खुद ही अपनी परम्पराओं को भूले बैठे हैं.अभी वे कई प्रकाशवर्षों तक जहालत के इसी अन्धकार में रहने वाले हैं.कवियों कलाकारों को उन की इस जहालत को समझना चाहिए.उन्हें ऐसा कुछ नहीं रच देना चाहिए , जिस से उन की भोली अहानिकर श्रद्धाओं यानी 'पंथनिरपेक्ष आस्थाओं ' को चोट पहुंचे. कोई माने न माने , लेकिन विष्णुजी की सारी बहस यही है.विष्णुजी को फिक्र है कि ये जहालत दूर होनी चाहिए. उन्हें फिक्र है कि एक ' कष्टदायक संकटाकीर्ण राष्ट्रीय पुनर्जागरण' की जरूरत है.वह होगा कैसे, इस विषय पर उन्होंने कहीं विचार किया ही होगा. मेरे देखने में नहीं आया तो वह मेरी नालायकी का ही एक और सबूत है. और नहीं तो क्या!
मुझ मूढ़ को तो यह तक समझ में नहीं आ रहा कि कल्पना के बतौर भी ऐसे कष्टदायक संकटाकीर्ण राष्ट्रीय पुनर्जागरण के बारे में कैसे सोचा जाए, जिस में राष्ट्रव्यापी जहालत को कोई कष्ट न हो, कोई संकट न हो. अगलों ने यों ही थोड़े कहा था- जहां न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि.
बहरहाल , एक और तरह का राष्ट्रीय पुनर्जागरण इस समय चल ही रहा है. इसे बाकायदा राष्ट्र की हिन्दू अस्मिता का पुनर्जागरण कहा भी गया है. हुसैन के खिलाफ यह सारा अभियान इसी पुनर्जागरण का एक हिस्सा है. हिन्दू जागृति मंच ने ही हुसैन के पापों के खिलाफ यह सारा माहौल बनाया है. हाँ , यह कष्टदायक है . कत्लेआम के लिए नयी बर्बरताओं की खोज क्या मामूली कष्ट का काम है. यह संकटाकीर्ण है.जाहिल और कायर हिन्दू जनता बार बार उन्ही अग्रदूतों को धूल चटा देती है,जो उसे जगाने के लिए क्या क्या पाप अपने सिर नहीं लेते.फिर भी , विष्णुजी के सपनों का पुनर्जागरण यह तो नहीं ही है. मैंने पहले भी कहा था , और अब भी कह रहा हूँ कि विष्णुजी खुद इन जगरातों के निशाने पर हैं.
लेकिन सब से ज्यादा उन के निशाने पर खुद हुसैन हैं.हुसैन भी अजीब अहमक इंसान है. यह दुनिया का सब से महँगा चित्रकार क्यों बेवजह पंगे लेता है. अरे जब तुम इंदिरा गांधी को दुर्गा की तरह बना सकते हो , तो दुर्गा को इंदिरा गांधी की तरह क्यों नहीं बना सकते. क्या जयजयकार हो जाती तुम्हारी. महान मुसलमान राष्ट्रवादी भारतीय चित्रकार! आतंक के खिलाफ वैश्विक जंग के इस जमाने में सारी दुनिया तुम्हारे कदमों में लहालोट हो जाती.क़तर क्या महान अमरीका तुम्हारा घर होता. लेकिन तुम हिन्दू देवियों को ऐसे बनाते हो , जिस में वे देवियाँ ही नहीं लगतीं. मामूली औरतों से भी मामूली बना देते हो तुम उन्हें. नंगी बुच्ची. मियाँ , तुम इतना भी नहीं समझते कि नंगी बुच्ची औरतें सदेह ही बढ़िया रहतीं है. तस्वीरों में तो राजा रवि वर्मा की वस्त्राभूषण सज्जित देवियाँ ही खिलती हैं.आखिर यह वह देश है, जहां हर स्त्री एक देवी है.जहां राम अभी तक हैं नर में , नारी में अभी तक सीता है! नारी को सीता बनाने वाले इस देश में तुम सीता को नारी बना देते हो. कोई परदा नहीं रहने देते तुम .कीड़े पड़ेंगे . और क्या.
खैर हिन्दू देवियों के साथ यह सब किया तो कम से कम मुसलमानों के ही हो जाते.तस्वीरें बनाने का कुफ्र क्या कम था , जो तुम ने फातिमा और मूसा तक की तस्वीरें बना डालीं. हिन्दू क्या मुस्लिम परम्पराओं का भी ज्ञान नहीं तुम्हे?यह ठीक है कि तुम ने उन्हे कपडे पहना रखे हैं,लेकिन तुम यह तो जानते ही होगे कि इस्लामी परम्परा में तस्वीर बनाना कपडे उतारने से भी कहीं ज्यादा संगीन कुफ्र है.
तुम ने एक तस्वीर ऐसी भी बनायी है , जिस में आइन्स्टीन , आंबेडकर , गांधी और हिटलर एक साथ है. इस में नंगा तुम ने केवल हिटलर को दिखाया है. इस के बारे में तुम ने कहीं बताया था कि हिटलर नंगा है क्यों कि तुम उस की नंगई को दिखाना चाहते थे.किसे उल्लू बना रहे हो गुरु ?अरे नंगा नंगा एक जैसा.नंगा हिटलर, नंगी औरत, नंगा बच्चा. क्या फरक है. हमें तो केवल नंग देखना है! हम क्यों कर यह देखें कि कला की दुनिया में नग्नता कहीं नंगई, कहीं निरावरणता और कहीं निष्कवचता की व्यंजक हो सकती है!
क्या हुसैन की कोई राजनीति है?या वह केवल एक चालाक व्यापारी है?किसी की पौलिटिक्स क्या है, यह जानने का सब से भरोसेमंद तरीका यह देखना है कि वह किन लोगों के राजनीतिक निशाने पर है. आखिर क्यों हुसैन के खिलाफ इतना बड़ा आन्दोलन चलता है, और आशुतोष कुमार के खिलाफ नहीं? यही है न राजनीतिक सवाल.
'जनमत' के मेरे लेख 'खुसरो की आँखों में डर है' पर विष्णुजी की एक आपत्ति यह है की मैं ने उन की कविता उद्धृत की , लेकिन जान बूझ कर कवि का नाम नहीं बताया. यह आप द्वारा मुझे दिए गए ' वाम मंचों का गोएबल्स 'जैसी महान उपाधि का आधार था.मैंने जनमत को जो आलेख भेजा था , उस में इस कविता के साथ विष्णु खरे के लोकप्रिय संग्रह ' पिछला बाकी ', जहां से मैं ने यह कविता उद्धृत की थी, का स्पस्ट उल्लेख था.संपादकों ने यह उल्लेख क्यों हटा दिया मै नहीं जानता. लेकिन मूल ईमेल मेरे इन्बौक्स में सुरक्षित है.
कवि का नाम छुपाना वैसे भी उस लेख की तर्क योजना के खिलाफ होता. अपने वजूद मात्र के लिए वह लेख कविता और विचार के बीच के संवेदनात्मक अंतर्विरोध पर आश्रित था.अगर कोई कवि का नाम न जान पाता तो वह लेख उस के लिए निरर्थक ही होता.वह केवल विष्णुजी के लिए तो लिखा नहीं गया था , जो हर हाल में कवि का नाम जानते ही होते.
लेख में कविता के सन्दर्भ को विष्णुजी ने कविता को खूँदना कहा है. हकीकत यह कि वहाँ कविता की कोई व्याख्या या विश्लेषण है ही नहीं.पहले ही बता दिया गया है कि उस लेख में कही गयीं सारी बातें उस फिल्म की हैं , जो कविता पढ़ कर पाठक के मन में चलनी शुरू होती है.विष्णुजी का दावा, अगर कोई हो , तो कविता तक ही है न ? या यह भी वे ही तय करेंगे कि कविता किस के मन में कौन सी चित्रगति जगाएगी. मैंने उस फिल्म की ( न कि कविता की ) नायिका को हिन्दू मान लिया है . तो विष्णुजी के लेखे मैं हिंदुत्ववादी हो गया. लेकिन उस लेख की तर्क प्रक्रिया में इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि काव्यप्रसूत उस फिल्म की नायिका किस धर्म की है.विष्णुजी की सुस्थिर धारणा यह है किं प्राचीन हिन्दू संस्कृति खुलेपन की थी , जो इस्लाम के आगमन के बाद ख़त्म हो गयी. अहम यह है कि वह फ़िल्मी पिता विष्णुजी की जिन बातों को दोहराता है , वे बातें मूल रूप में विष्णुजी की है या नहीं . कोई भी जनसता में छपे उन के मूल लेख से मिलान कर के देख सकता है.
स्नेहातिरेकवश, 'जनमत' में मेरे लिए जिन उपाधियों और विशेषणों का विष्णुजी ने मुक्तहस्त से उपयोग किया है, वे किसी भी विवाद से परे हैं. अपनी सर्वांगीण नालायकी के विषय में मैं विष्णुजी से दो सौ प्रतिशत सहमत हूँ.
इस मसले पर विष्णु खरे लगातार गरियाने की भाषा में बात करते रहे हैं। उनका मूल लेख जो कहता है, बाद में वही और वीभत्स होता चला गया। उन्हें जैसे असहमति के विनम्र स्वर भी बर्दाश्त नहीं रहे हैं। आपने सही ही अपनी बात रखी है।
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