स्वाधीनता संग्राम से गद्दारी
‘हम या हमारी परिभाषित राष्ट्रीयता’ के अलावा भी गोलवरकर का तमाम ऐसा लिखा और कहा उपलब्ध है जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि वह भी अपने गुरु हेडगेवार की ही तरह स्वाधीनता आंदोलन से नफ़रत करते थे। आज़ादी के काफ़ी बाद मध्यप्रदेश के इन्दौर में 9 मार्च 1960 को आर एस एस के उच्च-स्तरीय कार्यकर्ताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए वे स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपने दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में व्यक्त करते हैं-
‘रोज़मर्रा के कामों में हमेशा उलझे रहने की ज़रूरत के पीछे एक और कारण है। देश में समय-समय पर विकसित होने वाली स्थितियों के कारण लोगों के दिमाग़ में कुछ बैचैनी बनी रहती है। 1942 में ऐसी ही उथल-पुथल थी। उसके पहले 1930-31 का आंदोलन (असहयोग आंदोलन) था। उस समय कई दूसरे लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस प्रतिनिधिमण्डल ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि यह आंदोलन स्वाधीनता दिलायेगा और संघ को भी पीछे नहीं रहना चाहिये। उस समय जब एक सज्जन ने डाक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने को तैयार है तो डाक्टर जी ने कहा, ‘ज़रूर जाइये। लेकिन फिर आपके परिवार का ख़्याल कौन रखेगा? उस सज्जन ने जवाब दिया, ‘मैने न केवल दो वर्षों तक घर चल जाने लायक अपितु आवश्यकतानुसार आर्थिक दण्ड के भुगतान की भी पर्याप्त व्यवस्था कर दी है।’ इस पर डाक्टर जी ने उनसे कहा, ‘अगर आपने पर्याप्त धन की व्यवस्था कर ली है तो दो वर्षों तक संघ का कार्य करने के लिये आ जाईये।’ घर लौटने के बाद वह सज्जन न तो जेल गये और न ही संघ कार्य करने के लिये आगे आये।’[1]
यह घटना स्पष्ट तौर पर दिखाती है कि संघ नेतृत्व किस तरह ईमानदार देशभक्त लोगों को हतोत्साहित कर आज़ादी की लड़ाई के उद्देश्य से हटाने में लगा था।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में असहयोग आंदोलन तथा भारत छोड़ो आंदोलन, मील के दो महान पत्थर थे और यहाँ आप देखिये कि संघ के महान गुरु (गोलवलकर) की आज़ादी की लड़ाई की इन दो महान घटनाओं पर क्या थीसिस है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले ब्रिटिश विरोधी इन दो महान आंदोलनो पर ख़ुले तौर पर कीचड़ उछालते हुए वह कहते हैं-
‘निश्चित तौर पर इस संघर्ष के बुरे परिणाम होंगे। 1920-21 के आंदोलन (असहयोग आंदोलन) के बाद लड़के उद्दण्ड हो गये। यह नेताओं पर कीचड़ उछालने की कोशिश नहीं है। लेकिन ये संघर्ष के अवश्यंभावी परिणाम थे। बात यह है कि हम इनके नतीजों को सही तरीके से नियंत्रित नहीं कर पाये। 1942 के बाद लोग अक्सर ऐसा सोचने लगे कि अब क़ानून के बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है।[2]
इस प्रकार गोलवरकर चाहते थे कि भारतीय अमानवीय ब्रिटिश शासकों के बर्बर तथा दमनकारी क़ानूनों का सम्मान करें! जैसा कि हम आगे देखेंगे, गोलवरकर ने यह स्वीकार किया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संघ के रवैये की चतुर्दिक आलोचना के बावज़ूद तत्कालीन संघ नेतृत्व (उस समय गोलवरकर संघ के सरसंघचालक थे) स्वाधीनता संग्राम से अलग रहने के अपने स्टैण्ड से नहीं डिगा।
‘1942 में भी कई लोगों के हृदय में बड़ी प्रबल भावनायें थीं। उस समय भी संघ का रोज़मर्रा का काम ज़ारी रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया। बहरहाल, संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल मची हुई थी। ऐसा केवल बाहरी लोगों ने नहीं बल्कि स्वयंसेवकों ने भी कहा कि ‘संघ अकर्मण्य लोगों की संस्था है, वे फालतू बातें करते हैं’। वे बुरी तरह से नाराज़ भी हुए।[3]
बहरहाल, संघ का ऐसा एक भी प्रकाशन या दस्तावेज़ नहीं है जो भारत छोड़ो आंदोलन या उस समय चल रही आज़ादी की लड़ाई में संघ द्वारा किये गये अप्रत्यक्ष कामों पर कुछ प्रकाश डाल सके। हालाँकि उस दौर के जन उभार को देखते हुए यह मुमकिन है कि संघ से जुड़े कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर किन्हीं ब्रिटिश विरोधी संघर्षों में हिस्सेदारी की हो, लेकिन वे इक्की-दुक्की पृथक घटनायें रही होंगी। बहरहाल, एक संगठन के तौर पर संघ ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ़ या दमित भारतीय जनता के अधिकारों के लिये कोई संघर्ष नहीं छेड़ा, न ही संघ का उच्च नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा रहा।
गोलवरकर और संघ विदेशी शासन के ख़िलाफ़ किसी भी आंदोलन के प्रति अपना विरोध छिपा पाने में कभी भी सफल नहीं हुए। यहां तक कि मार्च 1947 में भी जब ब्रिटिश शासक सिद्धांत रूप में भारत छोड़कर चले जाने का फैसला कर चुके थे, दिल्ली में संघ के वार्षिक दिवस समारोह को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा कि संकुचित दृष्टि वाले नेता ब्रिटिश राज्यसत्ता के विरोध का प्रयास कर रहे हैं। इस बिन्दु को और विस्तारित करते हुए उन्होंने कहा कि देश की बुराईयों के लिये शक्तिशाली विदेशियों को दोषी ठहराना उचित नहीं। उन्होंने ‘विजेताओं से अपनी घृणा के आधार पर राजनैतिक आंदोलन शुरु करने की प्रवृति’ की निन्दा की।[4] इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करने के लिये उन्होंने एक घटना का वर्णन भी किया :
‘एक बार एक सम्माननीय वरिष्ठ सज्जन हमारी शाखा में आये। वह संघ के स्वयंसेवकों के लिये एक नया संदेश लाये थे। जब उन्हें बोलने का मौका दिया गया तो वह बड़े प्रभावी तरीके से बोले, ‘अब केवल एक काम कीजिये। अंग्रेज़ों को पकड़िये, उनकी पिटाई कीजिये और उन्हें खदेड़ दीजिये। बाद में जो होगा देखा जायेगा।’ उन्होंने बस इतना कहा और बैठ गये। इस तरह की विचारधारा के पीछे राज्यसत्ता के प्रति दुख और क्षोभ की भावना और घृणा पर आधारित प्रतिक्रियावादी प्रवृति है। आज के राजनैतिक संवेदनावाद की बुराई यह है कि इसका आधार प्रतिक्रिया, क्षोभ और क्रोध और दोस्ताने को भुलाकर विजेताओं का विरोध है।[5]
गोलवरकर के प्रति पूरी इमानदारी बरतते हुए यह कहना होगा कि उन्होंने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि संघ ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ था। 5 मार्च 1960 को इंदौर में दिये गये भाषण के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि :
‘बहुत सारे लोगों ने अंग्रेज़ों को बाहर निकाल कर देश को आज़ाद कराने की प्रेरणा से काम किया। अंग्रेज़ों की औपचारिक विदाई के बाद यह प्रेरणा कमज़ोर पड़ गयी। असल में इस तरह की प्रेरणा धारण करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। हमें याद रखना चाहिये कि अपनी प्रतिज्ञा में हमने देश को धर्म तथा संस्कृति रक्षा के द्वारा आज़ाद कराने की बात की है। उसमें अंग्रेज़ों की विदाई का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है।[6]
यहाँ तक कि संघ औपनिवेशिक शासन को एक अन्याय मानने के लिये भी तैयार नहीं था। 8 जून 1942 को जब देश अभूतपूर्व ब्रिटिश दमन के दौर से गुज़र रहा था संघ कार्यकर्ताओं के अखिल भारतीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की समाप्ति के अवसर पर दिये गये भाषण में गोलवरकर ने घोषणा की :
‘समाज की वर्तमान पतित अवस्था के लिये संघ किसी और को दोष नहीं देना चाहता। जब लोग दूसरों के सर पर दोष मढ़ने लगते हैं तो उसके मूल में उनकी अपनी कमज़ोरी होती है। कमज़ोरों के प्रति होने वाली नाइंसाफ़ी को मज़बूतों के सर मढ़ना बेकार है…संघ अपना बेशक़ीमती वक़्त दूसरों को गाली देने या उनकी आलोचना करने में बर्बाद नहीं करना चाहता। अगर हम यह जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है तो उस बड़ी मछली पर आरोप लगाना निरा पागलपन है। अच्छा हो या बुरा – क़ुदरत का नियम हमेशा सही होता है। यह कह देने से कि ‘यह अन्यायपूर्ण है’ वह नियम बदल नहीं जाता।’[7]
इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गोलवरकर के नेतृत्व में संघ ने आज़ादी की पूरी लड़ाई के दौरान एक अत्यंत विश्वासघाती भूमिका निभाई। सभी साक्ष्य इसकी तोड़फोड़ की कार्यवाहियों की ओर तथा इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि यह संगठन और इसका नेतृत्व कभी भी आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं रहे। आर एस एस का इकलौता महत्वपूर्ण योगदान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ भारतीय जनता के उभरते हुए एकताबद्ध संघर्ष को हिन्दू राष्ट्र के अपने अत्यन्त पृथकतावादी नारे से लगातार बाधित करना था।
( शमसुल इस्लाम की किताब 'ए क्रिटीक टू वी आर अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड' से, अनुवाद मेरा)
पढा। संघ ने कुछ किया ही नहीं तो इसका जिक्र भला कैसे मिले ? ... ... http://hindibhojpuri.blogspot.com/2011/10/blog-post_23.html में आडवाणी और वाजपेयी पर एक सवाल उठाया था हमने।
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