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सोमवार, 15 अगस्त 2011

पन्द्रह अगस्त...नौ अगस्त...बिरसा मुंडा

स्वतंत्रता दिवस पर शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत है अपर्णा मनोज की यह कविता जो उस 'देस' की कथा कहती है जो १५ अगस्त, १९४७ को आज़ाद होके भी आज़ाद न हो पाया... 






उलगुलान 

वे बहुत नहीं थे
तावीजों और मन्त्रों की तरह फूंके हुए बहुत थोड़े .

उनके काले बदन
धागे की तरह लिपटे थे जंगलों की बूढ़ी देह पर .

वे मनुष्य होने के टोटके थे मात्र
कि हो जाए कोई चमत्कार और दुनियावी तमाशे में
वे बने रहें , बचे रहें
जैसे जीवित  रहा उनका कोई देवता
कोयले की लेकर आग
और तपते हुए अयस्क की तरह ढलता रहा उनकी परती ज़मीन पर .उम्मीद की अभाव ग्रस्त काली आँखें
न जाने कौनसे भगवान की ओर तकती रहीं
जिसके होने के दस्तावेज़ तक नहीं थे उनके पास
न ही कोई प्रमाण
कहाँ जाते , किससे कहते  ?


मनुष्यता की कैसी विवशता
  कि समय से निष्कासित
अपने ही लोगों से वे ठहराए गए
न सामयिक , न सामाजिक ...
सभ्यताओं के बीच
किसी ने न देखी उनकी ठोस हथेली पर उभरी दुःख की दुश्चिंताएं  .


निरे  बावरे अहेरी आकाश के
न  आवाज़ , न  शोर
न  गति , न काफिला
मैंने उन्हें  थके -हारे आते  देखा गिरते बादलों के साथ
 शहर की ओर
गीले  बिजली के तारों पर
बैठे थे खामोश .

९ जून सन १९००  की  रात
रांची की जेल से पच्चीस बरस की आँखें और कसे होठों पर छलका हुआ
वह ताज़ा जवान खून
मंच के पार्श्व से
 अब भी  चीख रहा  है बूढ़ा उलीहातू का जंगल
उलगुलान .

बिरसा  मुंडा  ने मुझे  छुआ
और मैं सिहर उठी
स्वतंत्रता के अपने ही चौसठवें जन्मदिवस  पर..

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