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शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

सोनी सोरी का कसूर क्या है?


सोनी सोरी प्रकरण – लोकतंत्र का बदनुमा चेहरा

                चित्र यहाँ से 
सोनी सोरी की कहानी अब कोई नई कहानी नहीं रही. न यह उस दिन शुरू हुई थी जब उन्हें पुलिस के दबाव में दंतेवाड़ा छोड़कर भागना पड़ा था, न उनके किसी अंजाम पर खत्म हो जायेगी. लोकतंत्र के आवरण तले चलने वाली दमन और उत्पीडन की यह कहानी अलग-अलग रूप में लगातार दुहराई गयी है और आज भी यह बदस्तूर जारी है. महानगरों के आरामदेह कमरों में बैठकर हम विकास को आंकड़ो की भाषा से पकडने की कोशिशें करते हुए नए-नए माल्स और उपभोक्ता वस्तुओं की चमक से चुंधियाई आँखों से सत्ताओं के बदलने और आभासी आन्दोलनों के घटाटोप के इतने आदी होते जा रहे हैं कि देश के एक बड़े हिस्से के लगातार यातना-गृह में तबदील होते जाने को देख ही नहीं पाते. विदर्भ और बुंदेलखंड सहित देश के तमाम हिस्सों में लगातार खुदकुशी करते किसान, फैक्ट्रियों में बिना किसी सामाजिक या आर्थिक सुरक्षा के सोलह-सोलह घंटे खटते मजदूर, निजी कंपनियों के जुए तले पिसते तथाकथित प्रोफेशनल्स, उत्तर-पूर्व में अमानवीय कानूनों का बोझ ढोते लोग और छत्तीसगढ़ के नक्सल-प्रभावित इलाकों में दोहरी-तिहरी मार झेलते आदिवासी हमारी इस समकालीन विकास की बहस से बाहर की चीज़ बनते चले जा रहे हैं. न टीवी चैनल्स के लिए इनके पास कोई ‘एक्सक्लूसिव बाईट’ है न ही अखबारों के तीसरे पेज़ के लिए खबरें या पहले पेज़ के लिए विज्ञापन. वरना यूँ न होता कि इस देश में किसी जगह एक महिला के साथ कोर्ट के सख्त निर्देशों के बावजूद वह अमानवीय उत्पीडन होता जो सोनी सोरी के साथ हुआ और इसके ज़िम्मेदार पुलिस वाले को सज़ा की जगह महामहिम पुरस्कार न देतीं, वरना कोई चुनी हुई सरकार किसी गाँधीवादी के आश्रम को यूँ ज़मीदोज न कर देती, वरना इतना सब हो जाने के बाद भी इस देश में इतनी चुप्पी न होती.   

सोनी सोरी कोई विशिष्ट महिला नहीं. दंतेवाड़ा के एक खाते-पीते आदिवासी परिवार में जन्मी एक मामूली औरत है जिसने शिक्षा हासिल की और इसके ज़रिये अपना और अपने लोगों का जीवन बेहतर बनाने का सपना देखा. उसका दोष शायद बस इतना है कि जिस दौर में वह यह सब करना चाहती थी, वह एक ऐसा दौर था जब दो विरोधी शक्तियों के बीच विभाजन रेखा कुछ इस कदर खिंची थी कि चयन के लिए इन दोनों के अलावा कोई और विकल्प नहीं था और वह इन दोनों से अलग कुछ करने के लिए मुतमइन थी. नतीजा यह कि उसने दोनों की दुश्मनी मोल ली. इस पूरी प्रक्रिया को समझने से पहले आइये उस पूरे घटनाक्रम पर एक नज़र डाल लेते हैं.

सोनी सोरी का नाम सबसे पहले तब मीडिया में आया जब पिछले साल ९ सितम्बर को पालनार बाज़ार में उसके भतीजे लिंगा को कथित रूप से एस्सार ग्रुप से जुड़े लाला से पैसे लेते हुए गिरफ्तार किया गया. इस केस में सोनी को भगोड़ा घोषित किया गया. पुलिस द्वारा कहा गया कि एस्सार ग्रुप ने अपनी पाइपलाइन बिछाने में व्यवधान न उत्पन्न करने के लिए नक्सलियों को पैसे दिए और लिंगा एक नक्सली प्रतिनिधि के रूप में उनसे पैसे ले रहा था तथा सोनी उसकी मददगार थी. इसके बाद से सोनी वहाँ से जान बचाकर निकल आई और किसी तरह बचते-बचाते दिल्ली पहुँची. दिल्ली पहुंचकर उन्होंने तहलका के दफ्तर में अपनी पूरी आपबीती सुनाई जिससे पुलिस का सुनाया पूरा किस्सा ही सिर के बल खड़ा हो गया.

सोनी के मुताबिक़ इस घटना के एक दिन पहले किरंदुल पुलिस स्टेशन में पदस्थ मांकड़ नाम का का एक कांस्टेबल उसके घर आया और उसने उससे लिंगा को पुलिस का सहयोगी बनने के लिए मनाने का आग्रह किया. उसका प्रस्ताव था कि लिंगा माओवादी बनकर जाए और लाला से लिए पैसे पुलिस को सौंप दे. मांकड़ ने उसे ऐसा करने पर तमाम फर्जी केसों से मुक्त कराने का आश्वासन भी दिलाया. सोनी के मुताबिक़ उसने ऐसा करने से मना कर दिया. इस पर मांकड़ ने उससे फोन लेकर खुद ही लाला को फोन लगाकर स्वयं को स्थानीय माओवादी बताते हुए पैसों की मांग की. उसके अगले ही दिन एक कार में सादे कपड़ों में कुछ लोग आये और उसके पिता के घर से लिंगा को उठा ले गए. सोनी ने तमाम लोगों से जानकारी हासिल करनी चाही लेकिन उसे कोई जानकारी नहीं मिल सकी. किरंदुल पुलिस स्टेशन के प्रभारी ने भी इस बारे में अनभिज्ञता प्रकट कर दी (जबकि उसी दिन उन्होंने लाला और लिंगा के खिलाफ एफ आई आर दर्ज की थी). अगले दिन अखबारों में उसने लिंगा की एस्सार मामले में गिरफ्तारी हो गयी है और उन्हें फरार घोषित कर दिया गया है. वह समझ गयीं कि उन्हें किसी भी पल गिरफ्तार किया जा सकता है और वह वहाँ से दिल्ली आ गयीं. यह सफर इस पंक्ति के लिखे जाने जितना आसान नहीं था.

और सोनी ने अपनी सच्चाई साबित भी की. उसने दिल्ली से ही तहलका कार्यालय से मांकड़ को फोन लगाया और उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यूँ किया? क्या यह सच नहीं कि लिंगा को फंसाया गया है? आश्चर्य यह कि मांकड़ ने फोन पर इन सारी बातों को स्वीकार कर लिया जिसके टेप तहलका के पास हैं. उसने साफ़-साफ़ बताया कि पैसे लाला के घर से बरामद किये गए थे. उसने यह भी कहा कि पुलिस के पास सबूतों के नाम पर कुछ नहीं है और वह जल्दी ही छूट जायेगी, साथ ही उन्हें दिल्ली में ही रहने की सलाह दी.

यहाँ रुककर एक मिनट यह सोचना होगा कि किसी बम्बईया फिल्म के दृश्य सा यह घटनाक्रम आज़ाद हिन्दुस्तान के एक हिस्से में संविधान की शपथ खाने वाली विधायिका और कार्यपालिका के देख-रेख में हुआ. इस साजिश को उस थाने में अंजाम दिया गया जहाँ अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी की तस्वीर लगी रहती है. यह उस पुलिस का चेहरा है जिससे सहयोग करने का फ़र्ज़ हर जिम्मेदार नागरिक को घुट्टी की तरह पिलाया जाता है. और ज़ाहिर तौर पर न यह पहली बार हुआ न अंतिम बार. लिंगा के साथ तो इसी थाने में वह हुआ था जिसकी एक सभ्य समाज में कल्पना तक नहीं की जा सकती. उसे चालीस दिनों तक बिना किसी आरोप या सज़ा के थाने के शौचालय में गिरफ्तार रखा गया क्योंकि उसने सलवा जुडूम का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया था. बाद में सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और सोनी तथा दूसरे घरवालों के प्रयास और कोर्ट के हस्तक्षेप से ही उसे आज़ाद कराया जा सका. उसे एक कांग्रेसी ठेकेदार के घर हुए नक्सली हमले का आरोपी तब बनाया गया जब वह दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. बाद में जब शोर मचा तो तत्कालीन पुलिस प्रमुख और खगेन्द्र ठाकुर सहित हिन्दी के कुछ “जनपक्षधर” साहित्यकारों के प्रिय विश्वरंजन जी ने ‘बयान की चूक’ स्वीकारते हुए उसका नाम हटाया. इस हमले में सोनी और उसके पति को भी आरोपी बनाया गया. सोनी का पति तो इसी मामले में डेढ़ साल से हिरासत में है. इस मामले में जो “सबूत” दिए गए हैं उन्हें पढकर छत्तीसगढ़ पुलिस की न्यायप्रियता का कोई भी कायल हो सकता है. (विस्तार के लिए देखें तहलका
   

खैर, दिल्ली में छुपती-छुपाती सोनी को अंततः छत्तीसगढ़ पुलिस ने दिल्ली पुलिस की सहायता से गिरफ्तार किया और उन्हें साकेत कोर्ट में पेश किया गया. सोनी ने वहाँ खुद को छत्तीसगढ़ पुलिस को न सौंपने की अपील की. दिल्ली हाईकोर्ट में भी एक याचिका लगाकर उनके खिलाफ दिल्ली में ही केस चलाने की मांग की गयी और कहा गया कि अब तक जिस तरह यह साफ़ है कि उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया गया है, इस बात की पूरी संभावना है कि छत्तीसगढ़ में उन्हें न्याय न मिले. लेकिन कोर्ट ने उन्हें छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया. दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस को बस एक निर्देश दे दिया कि पुलिस एक सप्ताह बाद उसकी स्थिती के बारे में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करे. लेकिन संविधान से बंधी, न्यायालय का सम्मान करने वाली छत्तीसगढ़ पुलिस ने सोनी के साथ जो किया उसे लिखते भी हाथ कांपते हैं. उसी दिन रात को उन्हें बिजली के झटके दिए गए, नग्न कर के उत्पीडन किया गया और दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए उनके गुप्तांगों में पत्थर के टुकड़े डाल दिए. उसी हालत में उन्हें कोर्ट में पेश किया  गया, जेल भेज दिया गया. हालत खराब होने पर कोलकाता में इलाज के लिए ले जाया गया. वहाँ मेडिकल जाँच में इस आरोप की पुष्टि हुई. उनकी योनि और गुदा से पत्थरों के टुकड़े मिले. उस अमानवीय अत्याचार के सफे रात के अंधेरों की तरह अखबारों में बिखर गए. उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम लिखी उनकी चिट्ठियों में  यह सवाल एक फांस की तरह चुभ रहा है कि इस न्याय व्यवस्था, इस संविधान आधारित लोकतंत्र में एक आदिवासी महिला के साथ हो रहा व्यवहार इस देश की जनता और इसके जागरूक तबके के लिए एक मुसलसल बेचैनी का सबब क्यूँ नहीं है? क्यूँ इसके खिलाफ कोई बड़ी आवाज़ नहीं उठती? क्यूँ हर सूं एक शमशानी चुप्पी है? वह कौन सा मंजर है जिसमें नक्सलियों द्वारा स्कूल में पन्द्रह अगस्त को लाल झंडा फहराए जाने का विरोध कर तिरंगा फहराने वाली वह और लिंगा इस हाल में है, उसका पति डेढ़ साल से जेल में है, उसके पिता को इन्फार्मर होने के शक में नक्सलियों द्वारा पैरों में गोली की मार झेलकर अस्पताल में लाचार पड़ा रहना पड़ रहा है, घर-बार लूट लिया गया है, तीन बच्चे यहाँ-वहाँ पड़े हैं! आखिर दोष क्या है इनका?

शायद यही कि इन्होने नक्सलियों या पुलिस के हाथों का खिलौना बनने से इंकार किया. शायद यही कि इन्होने अपनी पढ़ाई-लिखाई को अपने तथा अपने लोगों की बेहतरी में इस्तेमाल करने का गुनाह किया. शायद यह कि वे आदिवासी होते हुए इस या उस पक्ष के मूक समर्थक बने. शायद यह कि उन्होंने अंधेरों के बीच रौशनी की किरणे खोजने का अजीम गुनाह किया. एस्सार के पूरे किस्से ने वह हकीक़त सामने ला दी है कि कैसे पुलिस और नक्सलियों के बीच जो खेल चल रहा है उसमें पैसे की भूमिका बढती चली गयी है और आदिवासियों को दोनों ही पक्ष शेर के शिकार में बकरे की तरह उपयोग कर रहे हैं. सोनी और लिंगा का दोष शायद यही था कि उन्होंने बकरे की भूमिका निभाने से इंकार कर दिया.

खैर मामला न्यायालय में है. कौन जाने की कभी न्याय मिल ही जाए. लेकिन तब तक दुनिया-जहान में अन्याय की मुखालफत का दावा करने वाले हम लोग क्या करेंगे? सिर्फ इंतज़ार?        


  

6 टिप्‍पणियां:

  1. शायद यह कि उन्होंने अंधेरों के बीच रौशनी की किरणे खोजने का अजीम गुनाह किया...सोनी और लिंगा का दोष शायद यही था कि उन्होंने बकरे की भूमिका निभाने से इंकार कर दिया...

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  2. सोनी सोरी सत्ता और व्यवस्था की आंख की किरकिरी बन गई हैं. सत्ता-विरोध की प्रतीक बना दी गई हैं, सरकारी अमले और पुलिस तंत्र की मिलीभगत से. यह हरक़त देश की छवि को इतना आहत कर रही है, यह देख पाने की सामर्थ्य तक नहीं है, शीर्षस्थ पदों पर बैठी महिलाओं को.
    चुप तो नहीं ही बैठे हैं हम, पर कोई आंदोलन निर्मित न कर पाने की अपनी लाचारी का एहसास ज़रूर है.

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  3. ये सूरत बदलनी चाहिए...लेकिन कैसे...? अगर कह भी दूं कि हम लड़ेंगे साथी तो भी क्या होगा...हालाँकि फिर भी हम ज़रूर कहेंगे कि हम लड़ेंगे साथी.

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  4. बहुत ही शर्मनाक और निंदनीय कृत्य. सरकार खुद ही लोगों को हथियार उठाने के लिए मजबूर कर रही है. निर्दोष लोगों को इतने अमानवीय तरीके से प्रताड़ित करके यही सन्देश दिया जा रहा है कि सरकारी अन्याय के खिलाफ जो भी बोलने की जुर्रत करेगा उसका ऐसा ही वीभत्स हस्र होगा.

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  5. न्याय व्यवस्था चाहे कितनी ही कोशिश करे कि वह न्याय करती है। लेकिन वह वास्तव में वर्तमान पूंजीवादी निजाम की चाकर भर है।

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