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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

भारत में विज्ञान का इतिहास और भौतिकवाद



इधर मार्क्सवाद सम्बन्धी लेखमाला के तहत दर्शन से आरम्भ करने के कारण कई लोगों को भ्रम हुआ कि मैं भारतीय दर्शन पर कोई लेखमाला लिख रहा हूँ. हालांकि मैंने शुरू में ही कह दिया था कि इस विषय पर सिर्फ उतनी ही जानकारी दे पाऊँगा वहां जितनी एक नए व्यक्ति को मार्क्सवाद पढ़ते समय होनी ज़रूरी है. खैर वहां कुछ मित्रों ने उसकी अपर्याप्तता का भी प्रश्न उठाया तो मदद के लिए हमारी मित्र और दर्शन की विद्यार्थी लवली गोस्वामी आगे आईं. भारतीय दर्शन में भौतिकवाद को केंद्र में रखकर लिखा उनका यह विस्तृत आलेख पिछले साल मार्च में समयांतर में प्रकाशित हुआ था. अब यहाँ भी.





तस्वीर यहाँ से साभार 


भारत
 में विज्ञान का एक समृद्ध इतिहास रहा है। कई आधुनिक विद्वान ऐसा प्रचार करते हैं कि भारत में समस्त चिंतन धर्म केन्द्रित रहा है और प्राचीन भारत में विज्ञान के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। परन्तु रसायन विज्ञान
चिकित्सा शास्त्र और गणित ज्योतिष के उपलब्ध ग्रन्थ इस बात को सिरे से ख़ारिज करते हैं। वहीं कई विद्वान इस मत का समर्थन करते भी नजर आते हैं कि विज्ञान मूलतः वैदिक (प्रकारांतर से उपनिषददर्शन के संरक्षण में फला फूला है, (यह उक्ति गणित ज्योतिष के लिए अंशतसही हो सकती हैये दोनों ही बातें कल्पना मूलक हैं।

अब प्रश्न यह उठता है की भारतीय विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य आज हमें जिस रूप में उपलब्ध हैवह प्रथम दृष्टया अपने उपलब्ध रूप में उपरोक्त दोनों मतों की पुष्टि करता सा प्रतीत होता है। फिर सत्य का अन्वेषण किस प्रकार किया जाए क्या विज्ञान के विशुद्ध परलोक विरोधी भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मायावादियों को भयभीत नहीं किया होगा यदि हाँ तो इसका विज्ञान पर क्या प्रभाव हुआ विज्ञान जो पूर्णतः एक भौतिकवादी विषय हैक्या अपने शुद्ध परलोक विरोधी और जनपक्षीय विचारधारा के कारण विज्ञान राज्य पोषित भाववादियों में मान्य हुआ होगा हम जानते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ ही कार्य-कारण के बीच स्पष्ट सम्बन्ध का अवलोकन होता है। फिर प्रश्न यह है कि वेदान्त विरोधी दृष्टिकोण के साथ विज्ञान किस प्रकार उत्कर्ष पर पहुंचा। उसमें वेदान्त के तत्व कैसे आए प्रारंभिक उत्कर्ष के बाद उसके पतन की क्या वजहें थी आज जो विज्ञान विषयक ग्रन्थ हमें उपलब्ध हैवे किस सीमा तक अपने मूल स्वर में हैंकई प्रश्न उठते हैंजिनका उत्तर देने का प्रयास इस लेख में आगे किया गया है।

आज जो विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य हमें उपलब्ध हैउस पर विज्ञानेतर विचारों और मतों का उबा देने वाला घालमेल किया गया और कई ऐसे क्षेपक जोड़े गए जो उसके मूल स्वर से एकदम भिन्न और हा्स्यास्पद होने की प्रतीति देते हैं। परन्तु इन ग्रंथों का बुद्धिपूर्वक और सतर्क अध्ययन हमें हमारे पूर्वजों की वस्तुपरक और भौतिकवादी धारणा का स्पष्ट परिचय देता है। इस कथन के पक्षपोषण के लिए अब आगे हम उपलब्ध प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों के मूल स्वर का भौतिक वादी विचार धारा से पोषित होने का का प्रमाण देंगे।

सर्वप्रथम प्रश्न उत्‍पन्‍न होता हैकि प्राचीन भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हमारा तात्पर्य क्या होना चाहिए। हम जानते हैं कि‍ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अर्थ विशुद्ध तात्विक दृष्टिकोण हैजिसमें कारण और परिणाम के मध्य संबंधों के अध्ययन का स्पष्ट विवेचन किया जाता है । प्रकृतिपृथ्वी और मनुष्य के उत्पति के सम्बन्ध में दी गई व्याख्याओं मेंप्रत्यक्षता को सर्वोपरि रखा जाता है । अब अगला प्रश्‍न यह है कि वैदिक दर्शन में तर्क और जगत की भौतिकता को क्या स्थान प्राप्त है। इस प्रश्न के स्पष्ट विवेचन से ही हमें विज्ञान के मूलाधार का परिचय प्राप्त हो सकता है।

वेदान्त में भौतिकता का स्थान

प्राचीनतम उपलब्ध वैदिक साहित्य ऋग्वेद है। इसमें भाववादी दर्शन के चिन्ह स्पष्ट नहीं हैं। यह अपेक्षाकृत सरल धर्म संक्रमणात्मक गोत्रीय जनजाति सामाजिक व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। इसमें यज्ञ देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भेंट और बलियाँ देने पर सबसे अधिक जोर दिया गया है। इसमें मंदिरों का भी उल्लेख नही मिलता। ऐसी प्रतीति होती है कि यज्ञ घर में ही अथवा किसी खुली जगह पर विशेष वेदिका बनाकर किए जाते थे । प्रतिमाओं का भी कोई स्पष्ट उल्लेख नही है। यह ग्रन्थ मुख्यतः आदिम मनुष्यों के सामूहिक दैनिक जीवन संबंधित कार्यों का उल्लेख करता है जो आज के आधुनिक विद्वानों के लिए आदि पूर्वजों की जीवन शैली और उनके कार्यकलापों को समझने की कुंजी बना हुआ है ।

कहा जा सकता है कि ऋग्वेद कहीं से भौतिकता का विरोधी नहीं प्रतीत होताभौतिकता विरोधी भाववादी दर्शन की पहली झलक हमें उपनिषद काल में मिलती हैइस समय राज्य सत्ता भी पूर्ण गति से परिपक्वता की ओर अग्रसर थी और राज्य की सत्ता को अक्षुण रखने के लिए सामान्य जनता को परलोकआत्मा के अस्तित्व मृत्यु के बाद जीवनसंसार की भौतिकता प्रकारांतर से सामाजिकताऔर सामाजिक सरोकारों के प्रति घृणाआदि पर विश्वाश के लिए प्रेरित किया जा रहा था। इसी काल में सभी पुरातन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त ग्रंथो पर भाववादी मत थोपने का प्रयास किया गया। लेख में हम आगे देखेंगे कि इस कार्य में राज्य के संरक्षक/विचारक कितने सफल रहे । इस तथ्य को उद्धृत करने के पीछे मेरा मंतव्य सिर्फ भाववाद से राज्य सत्ता के सम्बन्ध की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का था।

उपनिषद काल के प्रमुख वेदांती दार्शनिकों ने जगत की भौतिकता को निरर्थक बताने के लिए मुख्यतः दो युक्तिओं का प्रयोग किया है तर्क बुद्धिप्रमाण और प्रत्यक्ष ज्ञान (प्रकारांतर से भौतिकताकी अस्वीकृति एवं कार्य-कारण सिद्धांत का खंडन जो विज्ञान का आधार भी है। उपरोक्त कथन के सत्यापन के लिए हम आगे औपनिषद काल के कई प्रसिद्द राज्य पोषित वेदांती दार्शनिकों का इस विषय पर विचारों का विवरण प्रस्तुत करेंगे।

प्रसिद्ध भाववादी विद्वान शंकर का दर्शन जिसे शारीरक नाम से संबोधित किया जाता है एक प्रखर भौतिकता विरोधी दर्शन था। "शारीरक" (वि० [सं० शरीर+कन्-अण्]) संज्ञा में औपनिषद दर्शन का जो परिचय मिलता है वह संसार और भौतिकता के प्रति उनके दृष्टिकोण की स्पष्ट घोषणा है। शारीरक शब्द शरीर शब्द से बना है जिसमे कन् प्रत्यय लगाया गया हैइस प्रत्यय से अपकर्ष का बोध होता है। इसी प्रकार शारीरक शब्द से दोष से भरे शरीर का बोध होता है। वेदान्त(उपनिषददर्शन के लिए इस नामकरण का कारण यह है कि शुद्ध चित्त अथवा आत्मा शरीर रूपी दूषित कारा में कैद होती है और मृत्यु मुक्ति है। यह इस दर्शन का मूल स्वर हैयह दर्शन मृत्यु को महिमंडित करता है और ज्ञान के सभी भौतिक स्रोतों को अस्वीकृत। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। याज्ञवल्क्य जो एक प्रमुख वेदांती दार्शनिक थे,बृहदारण्यक उपनिषद (बृहदारण्यक उपनिषद (४२ में इस दर्शन के मूल स्वर को एक मरणासन्न व्यक्ति के स्पृहणीय वर्णन द्वारा प्रस्तुत करते हैंक्योंकि उनका मत था कि वह मरता हुआ व्यक्ति शरीर के बंधन से उत्तरोतर छुटकारा प्राप्त करता जा रहा है। यह एक आग्रही विद्वान का जगत की भौतिकता और संसार के प्रति अवहेलना की दृष्टि का स्पष्ट प्रमाण है

अब हम तर्क विद्या के प्रति इन दार्शनिकों की घृणा पर दृष्टिपात करते हैं। अद्वैत वेदांत दार्शनिक शंकर स्पष्ट लिखते हैं की तर्क-वितर्क द्वारा तत्व ज्ञान होना असंभव हैतर्क की सार्थकता सिर्फ इतनी है कि उसका उपयोग धर्म शास्त्रों मेंलिखी गई बातों को सत्य सिद्ध करने के लिए किया जाए। इन्ही विचारों के कारण शंकराचार्य ने तर्कप्रमाण और अनुभवजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान को अविद्या की श्रेणी में रख छोड़ा है (शंकर अध्याय भव्य)। यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य हैशंकर निर्विवाद रूप से प्रतिभाशाली थे। वे सांसारिकता को सिरे से खारिज करने के स्थान पर लौकिकता को स्थान देते हुए पारलौकिकता को सर्वोच्च सत्य बताते हैं। यह उनकी दूरदर्शिता ही दर्शाता हैपरन्तु फिर भी वे भाववाद को अपने दर्शन से निकाल नही पाते और अंततः भौतिकता का अस्वीकरण करके पारलौकिकता को एकमात्र सत्य के रूप मेंस्थापित कर जाते हैं

वहीं दूसरी ओर प्राचीन नीतिशास्त्र के रचयिता मनु ने तर्क विद्याविदों के विरुद्ध कठोर क़ानूनी नियम लागू करने को कहा हैउन्होंने स्पष्ट घोषणा की है कि किसी भी व्यक्ति को इन नास्तिकों (पाखंडी:), वर्णधर्म/वेद विरुद्ध आचरण करने वालों(विकर्मस्थ:), पाखंडियों (वैडाल वृतिकोंऔर हेतुकों (तर्क शास्त्रियोसे बात तक नही करनी चाहिए। यहाँ ध्यातव्य है कि स्मृतिकार मूलतः उस वर्ग से सम्बंधित है जिसकी पहुँच सत्ता प्रतिष्ठान तक हैऔर राज्य सत्ता के दबाव के कारण जनसामान्य उनके द्वारा निर्मित नियमो को मानने के लिए बाध्य है। ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस स्थान पर हम भाववादी/मायावादी दर्शनवेत्‍ताओं और स्मृतिकारों को वैचारिक स्तर पर एक साथ देख सकते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि स्मृतिकार तर्क में विश्वाश न करने की बात को राजाज्ञा की तरह "घोषित करते हैं और दार्शनिक तत्व मीमांसक तर्क करने वालों के प्रति निंदा की भावना को पुष्ट करने का पूर्वाग्रह ग्रसित दार्शनिक आधार खोजते हैं।

संक्षेप में कह सकते हैं कि उपनिषद दर्शन को पूर्ण रूप से राज्याश्रय प्राप्त था और राज्य अपनी सत्ता के संरक्षण हेतु जनसामान्य को भ्रमित करने और अन्धविश्वाश के सृजन के लिए कटिबद्ध था। जहाँ एक तरफ इसके लिए उसने धर्मशास्त्रियों/विचारकों से भौतिकवादी तर्कशास्त्रियों का सामाजिक/वैचारिक बहिष्‍कार करवाया वहीं दूसरी ओर नीतिशास्त्रियों ने तर्कशास्त्रियों के लिए नैतिक आचार संहिता के उलंघन के अपराध में दंड की व्यवस्था की। यह तथ्य उपनिषद दर्शन के भौतिकता विरोधी और प्रकारांतर से जनविरोधी होने का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है।

चिकित्सा विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य

अब हम प्राचीन विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य देखते हैं। चिकित्सा विज्ञान के दो प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ आज हमारे पास उपलब्ध हैं चरक संहिता और सुश्रुत संहिता। चरक संहिता में जो चिकित्सा पद्धति हैवह द्रव्य/औषध और अन्नपान पर आधारित है। शल्य चिकित्सा की आवश्यकता केवल कुछ ही स्थानों पर बताई गई है। इसके विपरीत सुश्रुत संहिता मुख्यतः शल्य चिकित्सा पर बल देती है। इन दोनों संहिताओं में प्राचीन चिकित्सकों द्वारा दिए गए कथनों में पर्याप्त विरोधाभाष है जैसे एक स्थान पर लिखा है देवगोब्राह्मणगुरुवृद्ध सिद्धाचार्यानचेत् (चरक संहिता iv.4.12) अर्थात देवता,गौब्रह्मणगुरुसिद्ध पुरुष तथा आचार्य की पूजा करनी चाहिए। पर वहीं दूसरी ओर चिकित्सकों द्वारा एक अन्य परिच्छेद में गौ मांस को भक्षण योग्य खाद्य पदार्थ में रखा गया है और पुष्टिकारक बताया गया है।

ग्व्यं केवलवातेषु पीनसे विषमज्वरे। शुष्ककासश्रमत्य अग्निमांसक्षयहितं च तत्॥
(सुश्रुत संहिता i.४२.३ काशी संस्कृत सीरिज संस्करण)

अर्थात गौ का मांस केवल वातजन्य रोगों मेंपीनस रोग मेंविषम ज्वर मेंसूखी खांसी मेंपरिश्रम वाले कार्य करने पर,भस्मक रोग मेंमांसक्षयजन्य रोग में लाभप्रद होता है। एक अन्य प्रसंग ब्रह्मचर्य का है। जहां एक ओर चरक संहिता ब्रह्मचर्य को मोक्ष के एकमात्र मार्ग की तरह बताती हैवहीं दूसरी ओर पूर्णतः भौतिकवादी दृष्टि से वाजीकरण नाम के अध्याय मेंजो चार उप अध्यायों में बँटा है संभोग क्षमता बढ़ने के लिए रसायन सेवन का निर्देश देती हुए स्पष्ट स्थापना देती है की "प्रकामं च निषेवेत मैथुन शिशिरागमे..". यह और इस तरह के कई उदाहरण हैं जिससे साफ जाहिर होता है की इन ग्रंथों की रचना करने वाला कोई भाव वादी तो नही ही हो सकता है।

कालांतर में इस ग्रन्थ की उत्पति वेदान्त से बताने के लिए इनपर बलपूर्वक औपनिषद दर्शन को थोपा गया है। इस ग्रन्थ का मूल स्वर पूर्णतया भौतिकवादी है जिसपर भाववाद का मुल्लमा चढ़ाने की व्यर्थ कोशिशें की गई है। जहाँ वेदांती दार्शनिक शरीर के प्रति अवमानना की भावना रखते हैं और आत्मा को शरीर से पृथक बताते हैं वही चरक संहित स्पष्ट शब्दों में यह उल्ल्लेख करती है की शरीरं ह्यस्य मूलंशरीर मूलश्व पुरुषो भवती - अर्थात पुरुष का शरीर ही मूल है और शरीर मूल वाला ही पुरुष है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की यह पुरुष कोई प्रत्यय नही है, सुश्रुत संहिता स्पष्ट उल्लेख करती है की यह पुरुष पंचभूतों से बना हुआ है, जो स्पष्टवक्ता आद्य भौतिवादियों लोकायतों के मत से मिलता है।

यहाँ उल्लेखनीय है की लोकायतों का स्पष्ट मत था पृथिव्यापस्तेजो तत्वानिअर्थात पृथ्वीजलअग्नि और वायु ये चार ही तत्व हैंऔर "भूतान्येव चेतयन्ते.." अर्थात ये चार भूत ही चेतना पैदा करते हैं। ये भौतिकवादी दार्शनिक शरीर को ही आत्मा मानते थे। हमारे प्राचीन चिकित्सक जहाँ रोगों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने इसके लिए "देव व्यापाश्रय भेषज के स्थान पर "युक्ति व्यापाश्रय भेषज को महत्व दिया। युक्ति ( तर्कपूर्ण निर्णय को चिकित्सा का आधार बताया। वहीं पूरे वेदान्त दर्शन में दर्शनशास्त्र की निंदा और स्मृतियों में तर्क की निंदा और तर्कशास्त्रियों के बहिष्कार और दंड की घोषणाएं की जाती रहीं। रोग की मुक्ति को कर्म सिद्धांत के विरुद्ध देखा जाता था, इस कारण चिकित्सा कर्म में लगे व्यक्तियों की निंदा करने में उपनिषद रचयिता बढ़-चढ़ कर लगे रहे। यजुर्वेद में चिकित्सा कर्म मेंलगे मनुष्यों की निंदा की गई। आगे इस प्रक्रिया में आपस्तंब गौतम से लेकर कुल्लूक भट्ट जैसे परवर्ती भाववादी व्याख्याकारों तक सभी ने अपनी पूर्ण प्रतिभा का प्रदर्शन किया

प्रारम्भिक वेदांत साहित्य अर्थात वेद में चिकित्सक का स्थान

यहाँ एक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है की ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की उनकी चिकित्सा कौशल के लिए भूरी भूरी प्रशंसा की गई है और अथर्ववेद का एक महत्वपूर्ण अंश चिकित्सा विद्या से सम्बंधित है। इसमें मुख्यतः तंत्र मंत्र और टोने-टोटकों का उल्लेख हैयह किस प्रकार संभव हुआ होगा इसका उत्तर बहुत ही साधारण है जैसा की पहले उल्लेख किया जा चूका है प्रारंभिक ऋग्वैदिक काल में राज्य व्यवस्था का उदय नही हुआ था और इस कारन भाव वादी दर्शन का कोई स्पष्ट प्रभाव इन प्राचीन ग्रंथो में नही दृष्टिगोचर होता। यह मुख्यतः यजुर्वेद के काल से आरम्भ हुआ, अब जिन अश्विनी कुमारों की स्तुति की गई थी उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाने लगा, उन्हें "देवता के पद से पदच्युत कर दिया गया। यह उस व्यापक सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन का परोक्ष प्रमाण है जो राज्यसत्ता और मायावाद (भाव वाद की उत्पति से विज्ञान के विरोध को प्रमाणित करती है। यह तथ्य शासक वर्ग का भौतिक वादी विचार धारा से विरोध भी, अप्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करता है।

राज्य सत्ता के उदय के साथ दृश्य बदलता है, जहाँ आदिम चिकित्सकों (अश्विनी कुमारोंके चिकित्सा कौशल की प्रशंसा की जाती थी, वह निंदा में बदलती है। राज्य का उदय चिकित्सकों के प्रतिजो जनसामान्य के हितैषी और कर्म फल और पूर्व जन्म की भाववादी व्याख्या के विरुद्ध थे, घृणा का नया अध्याय खोलता है। स्मृतिकार, धर्म शास्त्रकार यह घोषणा करते हैं कि यह कार्य केवल अंत्यजो को करना चाहिएवैदिक विचारधारा के समर्थकों को चाहिए की जिस भूभाग में उनकी संख्या अपरिमित हो यह पेशा अपनाने की किसी को सुविधा न दी जाए

इस प्रकार अथर्ववेद का अंश मुख्यतः इस विद्या का आरंभिक रूप माना जा सकता है। अथर्ववेद के समय चिकित्सा का जो तरीका प्रचलित था वह बहुत ही पिछड़ा एवं टोने टोटके पर आधारित था। वे लोग समाज के आदिम चरण में रह रहे थे और तत्कालीन उपलब्ध ज्ञान के आधार पर रोगों के निवारण के लिए टोने टोटके जादू और तंत्र मंत्र पर आश्रित थेअथर्ववेद में जिन औषधियों की चर्चा मिलती है वे मुख्यतः शत्रु द्वारा किये अथवा कराये गए जादू टोने से रक्षा हेतु ताबिजो (रक्षा कवचों )के रूप में उपयोग किये जाते थे। यह मुख्यतः इस तथ्य को प्रमाणित करता है की चिकित्सा कर्म उन दिनों अपने पुरातन स्वरुप में था और उन आदिम पूर्वजों में जादुई धर्मिक क्रियाकलाप के रूप में प्रचलित था। यह जादू टोना मुख्यतः आदिवासी समाज का गुण माना जाता है

इस ग्रन्थ में आयुर्वेद की प्राचीनतम जड़े मिलने के कारण ही, इसे वेद समूह का अंग मानने से श्रेणीबद्ध समाज के चिंतकों ने इंकार किया। परवर्ती काल के ब्राह्मण ग्रंथो ने भी वेदत्रयी को ही प्रतिष्ठा दीअथर्ववेद को घृणा की दृष्टि से देखा। तैत्तिरीय संहिता में भी ऋक् (ऋग्वेद ), सामन् (सामवेद ) , यजु: (यजुर्वेदका ही उल्लेख है। शतपथ ब्रह्मण की भी यही स्थिति है या तो इसे घृणा से देखा गया है या फिर इसका उल्लेख जरुरी नही समझा गया। वर्णाश्रम व्यवस्था के पोषकों ने भी अथर्ववेद को वेद मानाने से सिर्फ इसलिए इंकार किया क्योंकि चिकित्सा शास्त्र की जड़े उस तक जाती थीजिस चिकित्सा कर्म को इस वेद में स्थान दिया गया, वही इसके श्रेणीबद्ध समाज में असम्मान का कारण बना

वेदांत दर्शन में इसकी अवमानना इस हद तक बढ़ आई की जब मध्यकाल में भारतीय दर्शन विषयक सर्वमत संग्रह तैयार हुआ तो उसमे स्पष्ट घोषणा की गई कि जो व्यक्ति अथर्ववेद में आस्था रखेगा वह वैसे ही अनादर का भागी माना जायेगा जैसा की नास्तिक या भौतिकवादी माने जाते हैं। इस ग्रन्थ में चावार्कों के सन्दर्भ में यह बात कही गई है कि चावार्कों के अनुसार अथवर्वेद और गांधर्व वेद ही वेद माने जाने चाहिए। वहीं दूसरी और नास्तिकों द्वारा अनुमोदित होने के कारण इस वेद को परवर्ती वेदांती व्याख्याकारों ने घृणा की दृष्टि से देखा और इसकी अवमानना की

अथर्व वेद के सम्मान के पतन का यह प्रकरण दो तथ्यों को प्रमाणित करता है, नास्तिकों द्वारा अनुमोदित की गई हर कृति को मायावादियों ने या तो नष्ट कर दिया और जिन्हें नष्ट करना संभव न हो सका उन्हें भाव वादी विचारधारा मेंप्रक्षिप्त करने तथा उनकी अवमानना की घोषणा का पूर्ण प्रबंध कर दिया। सम्पूर्ण उपनिषद साहित्य में एक भी ऐसे ऋषि का नाम नही मिलता तो चिकित्सक हो और विद्या शाखाओं में जिन विद्याओं को प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता था उनमे आयुर्वेद का नाम नदारद है। ज्यों-ज्यों राज्य पोषित वर्ण व्यवस्था सुदृढ होती गई चिकित्सा शास्त्र के प्रति घृणा बढ़ती गई भौतिकवाद को बलपूर्वक नष्ट किया जाता रहा और इसके परिणाम स्वरुप विज्ञान का पूर्ण विनाश हो गयाआयुर्वेद आचार्यों का मानना था की मनुष्य का शरीर उसी सूक्ष्म विश्व का प्रतिनिधित्व करता है जो पंच महाभूतों से निर्मित हैऔर रोगों का कारण इन्ही आधारभूत द्रवों में असंतुलन की स्थिति है। वे लोग स्पष्ट घोषणा करते हैं कि युक्तिपरक चिकित्सा से ही रोगमुक्ति संभव है और प्रत्यक्षता को वे ज्ञान प्राप्त करने के साधन के रूप में गिनाते हैं।

यहाँ बार बार उपनिषद दर्शन से तर्क और प्रत्यक्ष ज्ञान के विरोध को दोहराने की आवश्यकता नही रह जाती। आधुनिक विद्वान वेदान्त से आयुर्वेद की उत्पति बताते समय इस तथ्य को विस्मृत करके अपनी जनविरोधी मानसिकता का परिचय देने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। इसी कारण किसी प्राचीन स्रोत ग्रन्थ के अध्ययन के लिए नीर क्षीर का विवेक अत्यंत आवश्यक हैग्रंथ के मूल के साथ जो संसोधन किये गए हैं उन्हें ध्यान में रखना ही एकमात्र सूत्र है जो हमें प्राचीनभारत में विज्ञान और उससे भौतिकवाद के सम्बन्ध का स्पष्ट परिचय दे सकता है और प्राचीन भारतीय विज्ञान एवं चिंतन पर लौकिकता विरोधी होने के दाग को धो सकता है। इन स्रोत ग्रंथो में ऐसे कई विरोधाभास भरे पड़े हैं, इन सब पर एक एक कर लिखने की न आवश्यकता है न ही प्रासंगिकता।

आधुनिक खोजकर्ताओं ने प्रमाणित कर दिया है की प्राचीन चिकित्सा सम्बंधित स्रोत ग्रन्थ चरक संहिता के रचयिता चरक कोई एक मनुष्य न होकर प्राचीन भारत का एक घुमंतू (भ्रमणशीलसंप्रदाय था (जिन सुधि पाठकों को इस विषयमें रूचि है वे देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय कृत ग्रन्थ Science and Society in Ancient India का अध्ययन कर सकते हैं)।यह मान्यता इस आधार पर भी सटीक है की अथर्ववेद के एक लुप्त संशोधित संस्करण को चारण वैद्य कहा जाता थाचरक संहिता के उपलब्ध रूप में उसके इतिहास पर दी गई जानकारी के अनुसार एक प्राचीन वैद्य का नाम आता है जो वैज्ञानिक विचारधारा के प्रति पूर्ण समर्पित था। भरद्वाज नामक ऋषि मूलतः एक स्वभाव वादी थेचरक संहिता भी मूल रूप से द्रव्यों के स्वभाव का अध्ययन करती है। यह स्वभाववाद मुख्यतः इन्ही भौतिकवादी लोकयातियों का मत माना जाता है.इस प्रकार इस तथ्य में कोई संदेह नही कि प्राचीन चिकित्सक मुख्यतः भौतिकवादी थे जिनका वैदिक परम्परा से कोई सम्बन्ध नही था। फिर प्रश्न यह उठता है की ये भौतिकवादी कौन थे उनका मूलस्थान क्या था इस प्रश्न का उत्तर हम आगे देखेंगे।

तंत्र में देहवाद भौतिकता और विज्ञान

जिन क्षेत्रों में भाववादी दर्शन और ब्रह्मणवाद का प्रभाव कम था वहां मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न और संसार के उत्पति के प्रश्न को सुलझाने का काम तर्क द्वारा हुआ है। इस तथ्य को प्राचीन भारतीय दर्शनों में से एक सांख्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। हम सब जानते हैं कि शंकर ने सांख्य को अवैदिक मत बताया है। प्राचीन परम्परा के अनुसार सांख्य कपिल के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। कपिल इस देश के उतरी क्षेत्र अर्थात बंगोंमागधों और चेरों के क्षेत्र के रहने वाले थे और यह स्थान गंगा सागर जाने वाले मार्ग पर था। कपिल का ग्राम कपिलवस्तु भारत के उत्तरपूर्व में हैं,इसी क्षेत्र में तंत्र वाद के अवशेष आज तक विद्यमान हैं। सांख्य तंत्रवाद का विकसित रूप है। इस तथ्य का उल्लेख सिर्फ इसलिए किया गया की आगे जब हम तंत्रवाद से विज्ञान के सम्बन्ध का विवेचन करेंगे तो विज्ञान के आधार विचारों को जानने में और उसमे निहित मूल विचारधारा को समझाने में हमें आसानी होगी

इसी क्रम में सबसे पहले हम भारत में रसविद्या (रसायन शास्त्र से तंत्रवाद के सम्बन्ध का अवलोकन करते हैं। "ब्रह्मांडे ये गुणासंति ते तिष्ठान्ति कलेवरे ..." अर्थात मानव देह सूक्ष्म ब्रह्मांड है। यह निष्कर्ष तंत्रवाद का है। इनके मत को देहवाद इस कारण कहा जाता है क्योंकि इन्होंने देह से इतर किसी सत्ता के अस्तित्व को नाकारा है। शरीर मेंइसी रूचि के कारण भौतिकवादी विज्ञान में योगदान करने में सफल हो पाए जैसे रसायन विज्ञान आयुर्विज्ञान विज्ञानआदि। जबकि देह की उपेक्षा के कारन भाववादी शरीर रचना ज्ञान एवं द्रव्य ज्ञान के प्रति उदासीन बने रहे। यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य हो कि भारतीय रसायन विज्ञान के पौराणिक ग्रन्थ इन्ही प्राचीन भौतिकवादियों के लिखे हुए हैं।

रसायन शास्त्र की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ईसवी सन की आठवीं शताब्दी का है जिसका नाम है रसरत्नाकर। विद्वानों ने ऐसे और भी कई ग्रंथो की सूचि बनाई है जिनमे रसरत्नाकर, रसाणर्वकाक चन्देश्वरी मततंत्र,रसेन्द्रचिंतामणि आदि हैं। तांत्रिक रसविज्ञानियों ने न केवल रसायन के ये सुप्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे बल्कि उन्होंने वास्तविक प्रयोगशालाओं में कई यंत्रों का अविष्कार भी किया जैसे दोल यंत्रमस्वेदनी यंत्रमपातन यंत्रमधूप यंत्रम ,कोष्ठी यंत्रमविद्याधर यंत्रमतिर्यक पातन यंत्रम आदि हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है की तांत्रिक रस विज्ञानियों ने न केवल इनका अविष्कार किया वरन इनके उपयोग को सैद्धांतिक रूप भी दिया और यह स्पष्ट घोषणा भी की -उपरोक्त प्रयोग मैंने अपने हांथो से किये हैंये केवल सुनी सुनाई बातो को आधार बना कर नही लिखे गए हैं और इनका उपयोग जन कल्याण के लिए किया जायेगा (History of chemistry in ancient and medieval India - लेखक - Priyadaranjan Rây, Prafulla Chandra Rāy)। इस वाक्य से दो बाते स्पष्ट होती है प्रथम तो यह की प्रयोगकर्ता तांत्रिक ने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखे हैं, द्वितीय इस वाक्य में उसकी जनता के प्रति सेवा भाव और प्रतिबद्धता का स्पष्ट संकेत प्राप्त होता है

हम जानते हैं कि भारत में मायावादियों/प्रत्यय वादियों के विरुद्ध और पदार्थ से जगत की उत्पति के सिद्धांत के समर्थक मुख्यतः तीन मतावलंबी थे। प्रथम लोकायत मत के प्रतिनिधि जो बाद में चार्वाक के नाम से प्रसिद्द हुए। वे न तो अदृष्टमें विश्वाश करते थे न ही भौतिक विश्व से अलग किसी परलोक को मान्यता देते थे। यह एक पूर्णत भौतिकवादी सिद्धांत है जिसके अनुसार चार तत्व (भूत पृथ्वीजलअग्नि और वायु से पूरे संसार की रचना हुई बताई जाती है। ये उनकी स्पष्ट मान्यता थी की मानव शरीर का निर्माण भी संसार की तरह इन्ही चार महाभूतों से होता है। द्वितीय, प्रधान अथवा प्रकृति का सिद्धांत, यह सांख्य मत के नाम से प्रसिद्ध है जो अवैदिक और लोकायत की अपेक्षा सुस्पष्ट तरीके सेभारतीय भौतिकवादी चिंतन प्रणाली के अनुरूप है। आधुनिक विद्वानों ने इसका उद्भव तंत्र से बताया हैशंकर इसके खंडन के क्रम में वेदान्त दर्शन का सबसे प्रमुख विरोधी बताने की स्थिति में पहुँच जाते हैं। तृत्तीय मत परमाणु वादियों का माना जाता है जिनमे मुख्यतः न्याय-वैशेषिक प्रमुख हैं। इनमे लोकयातिकों को मूलतः जनसामान्य का दर्शन माना जाता है और लोकायत मत और परवर्ती भौतिकवादी दर्शन सांख्य का उद्भव तंत्र से हुआ माना जाता है।

विज्ञान के संरक्षक के रूप में नास्तिक भौतिकवादी

वेदान्त की प्रत्ययवादी विचारधारा में विज्ञान के लिए कोई जगह नही थी। भारतीय वेदांती आदर्शवादियों ने जहाँ स्पष्ट घोषणा की है की विश्व के होने का एकमात्र कारण कोई अलौकिक शक्ति है। अर्थात विशुद्ध चित्त ही अंतिम सत्य है। इसे कई संज्ञाओं से नवाजा गया है जैसे अंत:करणपरम ब्रह्माचेतना पुंज आदि। भारतीय मायावादी/प्रत्ययवादी चेतना या विचार को ही विश्व के होने का कारण मानते हैं। यह संज्ञाएँ भिन्न भिन्न आदर्शवादी दार्शनिकों के लिए अलग अलग हो सकती है परन्तु हमारा ध्यान इस तथ्य पर होना चाहिए की जिन दार्शनिकों ने विशुद्ध रूप से प्रत्यय (विचार को जगत का आधार बताया और जगत की भौतिकता को तिरस्कार-पूर्ण दृष्टि से देखा उन सब में कौन सी धारणा सर्वनिष्ठ हैउत्तर साफ है जब किसी विचार को जगत का आधार बताना हो तब जगत की भौतिकता को बलपूर्वक नकारना आवश्यक हो जाता है। यहीं इस तथ्य को भी स्पष्ट समझा जा सकता है की जब राजनितिक कारणों से कोई दर्शनवेता अनुभूत जगत को मिथ्या साबित करने का प्रयास करे तो उसका सर्वाधिक तीव्र प्रहार इसी भौतिकता पर होगाऔर इसके लिए वह प्रत्यक्षता और तर्क की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाएगा

भारतीय भाववादी दार्शनिकों ने इसी युक्ति का प्रयोग किया भी है जैसा की हम लेख में पहले देख चुके हैं। अनुभव, विवेक और तर्क को अस्वीकार करते हुए भारतीय मायावाद के समर्थक भी रहस्यात्मक भाव समाधी की आत्म मुग्धता और विभ्रम की स्थिति को अंतिम आध्यात्मिक सत्य बताते हैं यह सर्वज्ञात तथ्य है एवं यहाँ हमारे विवेचन का विषय नही है इन्द्रियों और संवेदनो द्वारा जो अनुभूत करते हैं वह निर्विवाद रूप से जगत की भौतिकता और सत्यता को प्रमाणित करता है। अब सवाल है फिर वे कौन से लोग थे जिन्होंने विज्ञान को तमाम विरोधों और उग्र प्रतिक्रियात्मक कार्यवाही के बावजूद जीवित रखा इसका जवाब साफ है वे भौतिकवादी ही थे जिन्होंने देहवाद को प्रश्रय दिया औरविज्ञान के उत्कर्ष को सुनिश्चित किया। परन्तु जब आदिम सामुदायिक गण-लोकतंत्र व्यवस्था का पतन हुआ एवं राज्य सत्ता का प्रभाव बढ़ा और मायावाद को प्रतिष्ठा हासिल हुई और विज्ञान को प्रश्रय देने वाली विचारधारा शेष न रहीतब वैज्ञानिक ग्रंथों में धर्म और परलोक के कचड़े को ठूंस कर उसे वेदांती रूप देने का प्रयास किया गया। यह राज्य सत्ता के बंधक के रूप में विज्ञान और भौतिकवादियों के विचारों को दिया गया दंड था जो "विजेता के न्यायको परिभाषित करता है। यहाँ ध्यातव्य है की महाभारत के शांति पर्व (अध्याय -१०७ में गणों के लोक तंत्र का उल्लेख युधिष्ठिर के किसी प्रश्न के उत्तर में भीष्म करते हैं और अथर्व वेद में भी इसी लोकतंत्र का गुणगान करते हुए आदेश दिया गया है ..
हे राजनतुझे राज्य के लिए सभी प्रजाजन चुने एवं स्वीकारें
(अथर्व वेद ,तृतीय कांडसूक्त ४ ,श्लोक २ )

कहा जा सकता है की अथर्ववेद के समाज के सम्मानीय तबके में हुई अवमानना के पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण थे जब लोकतंत्र का पूर्णतः विनाश हुआ जनता के हित को परिभषित करती भौतिकवाद को प्रश्रय देती हर कृति का मूल स्वर या तो भाव वाद में प्रक्षिप्त कर दिया गया या जिन्हें प्रक्षिप्त न किया जा सके उन्हें समूल नष्ट कर दिया गया। लोकायत के कई नष्ट ग्रन्थ जिनका उल्लेख कई बौद्ध ग्रंथों में खंडनार्थ किया गया है इसका ज्वलंत उदहारण है

विज्ञान एक बंधक के रूप में

विज्ञान राज्यपोषित भाववाद के सामने किस प्रकार पंगु हुआ इसका एक उदाहरण हमें खगोल विज्ञान (ज्योतिषके दो प्रसिद्ध विद्वानों वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त के स्रोत साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है। सर्वज्ञात तथ्य है कि अलबरुनी (दसवीं शताब्दीने भारत आकर इन दोनों के विज्ञान विषयक स्रोत साहित्य का अध्ययन किया था और उसने वराहमिहिर की तुलना में ब्रह्मगुप्त को अधिक बड़ा विद्वान बताया था। अलबरुनी स्पष्ट लिखते हैं कि भारतीय गणित ज्योतिषियों को सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण के वैज्ञानिक कारण का ज्ञान था (एडवर्ड सची ii.107। हिंदी अनुवाद रजनीकांत शर्माआदर्श हिंदी पुस्तकालय - 1967)। उसने लिखा ‘भारतीय वैज्ञानिक जानते हैं की पृथ्वी की छाया से चंद्रग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्यग्रहण होता है। इसी तथ्य पर उन्होंने ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथों में अपने परिसंख्यानों की नीव रखी है।’ अलबरुनी को यह बात बहुत विचित्र प्रतीत होती है कि एक तरफ ये दोनों विज्ञानी प्रत्यक्ष ज्ञान और कार्य कारण सम्बन्ध के आधार पर अपने निष्कर्ष लिखते हैं और दूसरी तरफ तात्कालीन समाज में प्रचलित ग्रहण सम्बन्धी पुरोहित पोषित मिथकों जिनमें ग्रहण का कारण राहु-केतु को बताया गया हैको समर्थन और सम्मान देते नजर आते हैं।

अलबरुनी कहते हैं ‘मिथकीय कथा का समर्थन करने से पहले वाराह मिहिर खुद को एक ऐसे विज्ञानी के रूप में सामने लाते हैंजो इस मिथकीय कथा को न मानकर शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से कार्य-कारण सम्बन्ध के आधार पर ग्रहण के वैज्ञानिक कारण की विवेचना करते हैंपरन्तु उसके ठीक बाद वह उस मिथकीय कथा का उल्लेख भी करते हैं।’ इसका कारण बताते हुए अलबरुनी कहते हैं ‘वराह मिहिर क्योंकि ब्राह्मणों थे और खुद को उनसे अलग न कर पाने की दशा मेंउसने वैज्ञानिक विवेचन को मिथकीय आवरण से ढंका है।’ अल बरुनी आगे कहते हैं ‘फिर भी वे दोष देने योग्य नही हैं क्योंकि उनकी विवेचन सत्य के दृढ आधार पर खड़ा है और तमाम अन्य बातों के बावजूद वे स्पष्ट रूप से सत्य कह देते हैं।’ यह छठी शताब्दी का आरम्भिक काल माना जाता है। ब्रह्मगुप्त के काल तक राज्यसत्ता की जड़ें और मजबूत हो चुकी थीं और विज्ञान पर अवैज्ञानिक मायावादी विचारधारा का दबाव भी बहुत बढ़ चुका था।

इस काल में विज्ञानेतर विचारधारा के समर्थक यह समझ चुके थे कि अगर विज्ञान का प्रभाव बढ़ता रहा प्रकृति की घटनाओं को कार्य-कारण सम्बन्ध और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर विवेचित जाता रहा तो अन्धविश्वास और पारलौकिकता की अवधारणा को विज्ञान से चुनौती मिलनी ही है और इससे उनके द्वारा अर्थोपार्जन एवं राज्य सत्ता के संरक्षण हेतु फैलाये गए मायावाद को हानि हो सकती है। इस कारण वे बहुत सतर्क हो चुके थे और विज्ञान के दमन के लिए प्रतिबद्ध भी। इसीलिए ब्रह्मगुप्त ने अपनी अनुपम कृति ब्रह्म सिद्धांत की प्रारंभिक पंक्तियों में ही प्रतिविचार धारा को मान्यता प्रदान की

कई आधुनिक विद्वानों का मत है कि हो सकता है यह अंश बाद में क्षेपक के रूप में जोड़े गए हों। अलबरुनी का स्पष्ट मत है कि ब्रह्मगुप्त जो इस कृति की रचना के समय मात्र ३० वर्ष के थेने अपनी प्राणों की रक्षा के लिए विज्ञानेतर विचारधारा के सामने आत्म समर्पण कर दिया हो। यहाँ तक कि अलबरुनी इस घटना की तुलना सुकरात को दिए गए विष से करते हैं जो उन्हें धर्म सत्ता के विरुद्ध जाने के अपराध में दिया गया था। यह स्थिति गणित ज्योतिष और ज्यामिति की थी जो किसी न किसी रूप से वेद विद्या से सबद्ध रही थी। जब वि‍ज्ञानेतर विचारधारा का प्रभाव इन विद्याओं पर इतना भयंकर पड़ा तब चिकित्सा शास्त्र जैसा विषय जो मूलतघुमंतू जनजातियों के द्वारा विकसित था और जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा किये बैठा थाउस पर पड़े प्रभाव की कल्पना सहज ही की जा सकती है। आज उपलब्ध चिकित्सा विज्ञान एवं रसविज्ञान सम्बन्धी स्रोत साहित्य के अध्ययन से हम स्पष्ट रूप से उन पर आरोपित विज्ञानेतर कचरे की जाँच और पहचान कर सकते हैं।

यह साबित करने के लिए इतने प्रमाण पर्याप्त होंगे कि विज्ञान न कभी धर्म की छत्रछाया में था और ना ही प्राचीनभारतीय ज्ञान को प्रतिविचारधरा द्वारा आरोपित सिद्धांतों के आलोक में देखा जाना चाहिए। वे स्पष्टवादी भौतिकवादी ही थे जिन्होंने प्राचीन भारत में विज्ञान की लौ को तमाम विरोधों और अपमान के बाद भी जलाए रखा। वे नास्तिकता को पोषित करते रहे और विज्ञान इसी आलोक में तब तक फूलता-फलता रहा जब तक राज्य सत्ता इसके दमन के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध न हुई। अंततः विज्ञान का गला इसी मायावादी विचारधारा के नुमाइंदों ने राज्यसत्ता के पूर्ण समर्थन के आलोकमें घोंटा और राज्य सत्ता के पूर्ण विकास के साथ ही विज्ञान का भी पूर्ण रूप से पतन हो गया। यह वही वक्त था जब राज्य सत्ता अपने पूर्ण दमनकारी अवस्था में थी और जनतंत्र का पूर्ण विनाश हो चुका था। इसी सन्दर्भ में हम यह भी देख सकते हैं कि जिन देशों में लोकतंत्र भारत से पहले आया वहां विज्ञान का स्तर आज भारत के सापेक्ष अधिक आगे है।

विज्ञान मूलतः जनकल्याण और मानवता वाद की पैरवी करता है इसी प्रकार कहा जा सकता है विज्ञान को फलने-फूलने के लिए लोकतान्त्रिक और सजग समाज की आवश्यकता होती है परन्तु शायद यह हमारा दुर्भाग्य ही है की आज भीभारत में पुनरुत्थानवादी ताकतें विज्ञान के भौतिकवादी दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध कर रही हैं। कई अवैज्ञानिक मतों को और अंधविश्वासों को विज्ञान का नाम दिया जा रहा है। प्रत्यक्षता की अवहेलना की जा रही है और वैज्ञानिक सोच के प्रति घृणा फ़ैलानेविज्ञान को गरीबीविनाशयुद्ध आदि के लिए दोषी ठहराने का प्रपंच रचा जा रहा है। आधुनिक ज्ञान जो पुरातन का ही विकसित स्वरुप है, की अवहेलना घातक हो सकती है. भारत को कभी अपनी वैज्ञानिक खोजों के लिए विश्व भर में प्रतिष्ठा प्राप्त थी। यदि हम उस प्रतिष्ठा को वापस पाना चाहते हैं तों हमें भ्रमों और अन्धाविश्वासों की तथाकथित वैज्ञानिक व्याख्याओं से परहेज करना चाहिए और प्रत्यक्षता और कार्य कारण समबन्ध के आधार पर किये गए वस्तुगत विवेचन को ही मान्यता देनी चाहिए शायद तब ही हम भारत की प्रतिष्ठा को वापस पा सकेंगे।

3 टिप्‍पणियां:

  1. अपरिहार्य रूप से पठनीय एक मूल्यवान लेख | आभार !

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  2. आभार अशोक जी, इस शानदार लेख को यहाँ पढ़वाने के लिए।

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  3. निश्चित रूप से पठनीय आलेख ।भले ही बहुत संक्षेप में लेकिन यथासंभव सभी पक्षों को समाहित करते हुए प्राचीन भारत में भौतिकवादी प्रवृत्तियों और उनके विकास को रूपायित किया है।आलेख पढ़वाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद अशोक भाई।

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