- लोकेश मालती प्रकाश
सुषमा स्वराज, ने
केंद्र सरकार से मांग
की है कि अगर
वह सीमा पर मारे
गए अपने सैनिक का
कटा सिर नही ला
सकती तो कम से
कम ‘उस पार’ से
दस सिर तो ले
आए। कुछ समय पहले
ये सभी पाकिस्तान को
गालियां दे रहे थें
इस ‘कायराना’ हरकत
पर, अभी खुद दस
सिरों की मांग कर
रहे हैं। एक सर
काटना कायरता है और
दस को काटना ‘वीरता’
होगी। शायद गुजरात में
इसी गणित से शासन
चलाया जा रहा है।
वैसे मैं यह उम्मीद
कर रहा था कि
सुषमा स्वराज सरकार को
धमकी देंगी कि अगर
वह कटा हुआ सर
नहीं लाई तो ये
अपना सर मुंडा लेंगी।
लगता है कि राष्ट्रवादी
हिंदू हृदय नेत्री को
किसी ने इसका विचार
नहीं दिया।
सीमा पर तनाव है।
लोहा दोनो ओर से
खर्च हो रहा है
और इसकी कीमत जनता
चुका रही है, इस
पार या उस पार।
जनता को अब सोचना
चाहिये कि यह कीमत
जो हम चुका रहे
हैं वह किसकी जेब
में जा रही है?
सर कटाए भी हम,
सर फुड़ाए भी हम
और जेबें बाकियों की
गरम हो! कुर्सियों पर
कब्जे के खेल में
बलि हमारी हो! सोचने
की बात यह भी
है कि ‘राष्ट्र’ पर
संकट के नाम पर
हमेशा जनता की बली
ही क्यों चढती है?
संकट चाहे सीमा पर
आया हो या अर्थव्यवस्था
पर।
इस बीच मीडिया ने
अलग ही माहौल बना
रखा है। मुझे लगता
है कि अगर अखबारों
या खबरिया टीवी चैनलों
के संपादकों/मालिकों
की चलती तो युद्ध
की घोषणा हो चुकी
होती। फिर युद्ध के
कवरेज के लिये ‘विशेषाधिकारों’ की बिक्री ऊंचे
दामों पर होती और
प्रायोजकों की कोई कमी
नही रहती। टीवी पर
युद्ध का सीधा प्रसारण
होता और बीच-बीच
में उद्घोष होता – “लड़ाई
के इस भाग के
प्रायोजक हैं…”।
एक हफ्ते पहले तक
यही मीडिया दिल्ली सामुहिक
बलात्कार कांड के विरोध
प्रदर्शनों के दौरान भी
खून का प्यासा हो
रहा था। फांसी और
वंध्याकरण की मांगो के
तमाम हल्ले के बावजूद
पितृसत्ता और राज्य-प्रायोजित
स्त्री-विरुद्ध हिंसा के
खिलाफ आवाजे मजबूत हो
रही थीं। लेकिन सामाजिक
बदलाव के दीर्घ संघर्ष
का पाठ इस मीडिया
के लिये उबाऊ हैं।
इसके विज्ञापन नहीं
मिलेंगे क्योंकि विज्ञापन देने
वाले जनता की ऐसी
पहल से डरते हैं।
इसी बीच सीमा पर
हुई हिंसा की खबर
आ गई। खून के
बदले खून की मांग
का बाजार एक बार
फिर गर्म हो गया।
सच कहें तो आज
मीडिया के मुंह में
खून लग चुका है।
कुछ लोग बोल रहे
हैं कि ‘राष्ट्र’ की
‘आत्मा’
रक्त-रंजित हो गई
है। ऐसा सुनते ही
सिहरन सी हो जाती
है। रक्त-रंजित आत्माओं
वाले राष्ट्र कभी भी
रक्त-पिपासु हो उठते
हैं। राष्ट्र और उसकी
आत्मा की चिंता करने
वाले जीते-जागते इंसानों
की चिंता कम ही
करते हैं।
जो एक सर के
बदले द्स सरों की
मांग कर रहे हैं
उन्हे क्या मतलब कि
इसी सेना का एक
जवान जब राजस्थान में
अपने गांव में सक्रीय
माफियाओं के खिलाफ आवाज
उठाने पर पुलिस उसके
पीछे पड़ गई है।
लेकिन हमें तो मतलब
है। क्योंकि सर हमारे
ही जाने हैं, उस
पार या इस पार।
हमने यह सुना है
कि जब सन 74 में
‘इस पार’ परमाणु बम
का परीक्षण हुआ था
तो ‘उस पार’ के
मुखिया ने कहा था
कि बेशक हमें घास
की रोटियां खानी पड़े
परमाणु बम जरूर बनाएंगे।
जनता को यह पूछना
चाहिए कि घास की
रोटियां किसने खाई हैं?
यह दोनो तरफ के
लोगों की साझा कहानी
है। राष्ट्र के नाम
पर सालों से घास
की रोटियां कोई खा
रहा है और मालपुए
कोई और जीम रहा
है। क्या खूब राष्ट्र
हैं ये और क्या
खूब इनकी आत्माएं!
युद्ध तो शायद न
हो, यह हमसे बेहतर
वो जानते हैं जो
युद्ध का उन्माद फैला
रहे हैं। इनका काम
अभी इस उन्माद से
अच्छा चल जाएगा। युद्ध
के लिये सात समंदर
पार के बड़े आका
से अनुमति लेनी होगी
और वह आका पहले
अपने नफे-नुकसान का
हिसाब करेगा। हां, जब
तक उसका यह हिसाब
चलता रहे तब-तक
छोटी-मोटी मारामारी की
इजाजत है। अभी पाकिस्तान
अपनी सेनाओं को अलर्ट
कर रहा है। पिछली
बार इस ‘राष्ट्र’ की
सेनाएं महीनों सीमा पर
खड़ी रही थीं। फिर
आका ने कहा था
कि चलो बहुत हुआ
खेल, अब वापस जाओ
अपने बैरक में, अभी
युद्ध-युद्ध हमें खेलने
दो चैन से।
आकाओं के खेल में
गुर्गों का काम ताली
पीटने का होता है।
सो वे कर रहे
हैं। अभी जनता सोच
ले कि उसे क्या
करना है।
सटीक समय पर बेहद ज़रूरी आलेख . धन्यवाद लोकेश को भी और अशोक भाई को भी .
जवाब देंहटाएंस्वागतेय टीप।
जवाब देंहटाएंबहुत ज़रूरी . शेयर कर रहा हूँ . *राष्ट्र और उसकी आत्मा की चिंता करने वाले जीते-जागते इंसानों की चिंता कम ही करते हैं।*
जवाब देंहटाएंराष्ट्रवादी मित्रों के लिए खास टिप्पणी .
samayik aalekh...
जवाब देंहटाएंAshok jee arun kamal jee ke shabdo mein kahunga ' sara loha un logon ka apnee kewal dhaar ' janta ko yeh samajh lena hoga. Bahut hee accha alekh. Abhaar. - kamal jeet Choudhary ( j and k )
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