अभी हाल में


विजेट आपके ब्लॉग पर

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

पश्चिमी दर्शन और भौतिकवाद


मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत  शीर्षक से लिखी जा रही इस श्रृंखला के पिछले लेखों में आप भारतीय दर्शन परम्परा के बारे में पढ़ चुके हैं..अब एक नज़र पश्चिमी दर्शन पर 


जैसे यह कहना ग़लत है कि भारतीय दर्शन मतलब आध्यात्मिक दर्शन वैसे ही यह भी एक भ्रामक प्रचार है कि पश्चिमी दर्शन यानि भौतिकवादी दर्शन. हमने पिछले अध्यायों में यह देखा है कि दर्शन शून्य में पैदा नहीं होते, न ही ख़त्म होते हैं. उनके उत्पन्न होने और नष्ट होने के मूल में ठोस सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक कारण होते हैं. किसी भी समय का प्रभावी दर्शन उस समय के प्रभावी वर्ग का दर्शन होता है, जो उसके पक्ष में सहज बोध (common sense) बनाते हैं और उस वर्ग का वर्चस्व (Hegemony) बनाए रखने में सहायक होते हैं. इसी दर्शन के आधार पर उस समय की संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान और नियम-क़ानून भी बनते हैं. तो भारत में ही नहीं पश्चिम में भी दर्शन का इतिहास इसी प्रक्रिया की गवाही देता है.

बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ सर्वहारा के संघर्ष में मार्क्सवाद मूलतः पश्चिमी दर्शन के आधार पर ही विकसित हुआ. क्लासिकल जर्मन दर्शन, फ़्रांसीसी समाजवाद और ब्रिटिश राजनैतिक अर्थशास्त्र, ये तीन उपलब्धियाँ मार्क्सवाद के विकास की पृष्ठभूमि में हैं. इनकी तीखी, वस्तुपरक आलोचना द्वारा सकारात्मक तत्वों के ग्रहण और पुरोगामी तत्वों की सटीक पहचान से ही मार्क्स ने एक नई विचारधारा का विकास किया जिसका उद्देश्य दुनिया से हर तरह के शोषण की समाप्ति कर सर्वहारा के अनन्य शासन वाली एक सच्ची समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करना था. आगे  हम जब सर्वहारा की अनन्य सत्ता या सर्वहारा अधिनायकवाद की बात करेंगे तो देखेंगे कि मार्क्स के लिए इस ‘अधिनायकवाद’ का अर्थ किसी व्यक्ति की तानाशाही नहीं था. (इस पर मैंने अपनी किताब ‘मार्क्स: जीवन और विचार में भी बात की है). खैर, अभी बात दर्शन की. इस अध्याय में हम पश्चिमी दर्शन की कुछ प्रमुख प्रवृतियों को देखेंगे. हमारी कोशिश होगी कि मूल ध्यान अठारहवीं सदी में विकसित हुए दर्शनों पर ही दिया जाय जिससे हम उस दार्शनिक पृष्ठभूमि की ज़रूरी समझ बना सकें जिससे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का विकास हुआ, जो मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार है. ज़ाहिर है इसके लिए प्राचीन पश्चिमी दर्शन की एक संक्षिप्त जानकारी भी ज़रूरी है. यहाँ बहुत अधिक विस्तार में जाना लेखमाला के विषय-वस्तु के लिहाज से उचित न होगा. उत्सुक पाठक यहाँ उद्धरित हेगेल की पुस्तक तथा राहुल संकृत्यायन की दर्शन-दिग्दर्शन के अलावा बर्टेंड रसेल की ‘हिस्ट्री आफ वेस्टर्न फिलासफी’ सहित अन्य किताबें पढ़ सकते हैं. आगे भी जैसे-जैसे आवश्यकता पड़ेगी ज़रूरी किताबों का ज़िक्र किया जाएगा.

अगर इतिहास में जाएँ तो पश्चिम में दर्शन की प्राचीनतम उपलब्ध परम्परा यूनानी दर्शन की है. योरपीय दर्शन इसी परम्परा में अपनी जड़ें तलाशता है. हालांकि इसका अधिकाँश भाग लिखित में उपलब्ध नहीं है और यह दर्शन अरबों के साथ योरप आया था.[1]  यूनान की प्राचीनतम दार्शनिक पद्धति थी मिलेज़ियन या युनिक दार्शनिक पद्धति, जिसका काल 600 से 400 ईसापूर्व का माना जाता है. हेगेल ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री आफ फिलासफी’ में इस पद्धति में थेल, एनेक्सिमंडर और एनेक्सिमीनास को सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक माना है. राहुल सांकृत्यायन इन्हें ‘तत्वजिज्ञासु’ कहते हैं. उनके अनुसार इन दार्शनिकों की ‘जिज्ञासा का मुख्य लक्ष्य था उस मूलतत्व का पता लगाना, जिससे विश्व की सारी चीजें बनी हैं’.[2] हेगेल थेल को दुनिया का पहला ‘प्रकृति दार्शनिक’ मानते हैं. थेल के अनुसार ‘पानी ही मूलतत्व है’. एनेक्सिमीनास ने भी पानी को ही मूलतत्व माना लेकिन थेल के समकालीन और मित्र एन्क्सिमंडर ने मूलतत्व को अनंत और अनिश्चित माना. इन दार्शनिकों ने रेखागणित का अध्ययन किया था और वे खगोल वैज्ञानिक थे. हेगेल ने हेरोडाट्स के माध्यम से थेल की खगोल विज्ञान के क्षेत्र में की गयी कुछ भविष्यवाणियों का ज़िक्र किया है. राहुल सांकृत्यायन ने एक महत्वपूर्ण बात रेखांकित की है कि भारतीय दर्शन में भी हम दार्शनिकों को इस मूल तत्व की तलाश करते देखते हैं, लेकिन अंतर यहाँ पैदा होता है कि जहाँ भारतीय दार्शनिक ‘इसे किसने बनाया’ के सवाल में उलझते हैं, युनिक दार्शनिकों की रुचि ‘ये कैसे बने’ के सवाल में है. इसीलिए हम पाते हैं कि युनिक दार्शनिक सिर्फ हवाई सवालों में ही नहीं उलझते बल्कि वे अपनी दार्शनिक निष्पत्तियों के आधार पर वैज्ञानिक प्रयोग भी करते हैं. संभवतः यह पश्चिमी दर्शन तथा भारतीय दर्शन के बीच के अंतर का एक महत्वपूर्ण बिंदु है. वे अपनी तरह के आद्य-भौतिकवादी दार्शनिक थे. लेकिन लगभग उसी काल में पाइथागोरस जैसे भाववादी दार्शनिक भी हुए, जो मूलतत्व आकृति को मानते थे और ‘सभी चीजें संख्यायें हैं’ जैसी स्थापना देकर ठोस जगत से दूर कल्पना-जगत में उड़ते हुए एक दार्शनिक धारा को जन्म देते हैं जो यूनान पर ईरानी आधिपत्य के बाद इटली के एलिया नामक स्थान पर जा बसे उनके शिष्यों के कारण एलियाई दर्शन परम्परा के नाम से पश्चिमी दर्शन में ‘स्थिर-विज्ञान-अद्वैतवाद’ जैसी भाववादी परम्परा की स्थापना करते हैं. युनिक दर्शन से कालान्तर में सोफी दर्शन (कुछ जगहों पर इसे सूफी दर्शन कहा गया है लेकिन राहुल सांकृत्यायन ने इस्लामी दर्शन परम्परा में जन्में सूफी दर्शन से इसे अलगाते हुए ‘सोफी’ का  प्रयोग किया है) विकसित हुआ.

युनिकों के बाद का प्रमुख भौतिकवादी दार्शनिक है हेराक्लिट्स. उसे ‘द्वंद्ववाद का जन्मदाता’ माना जाता है. उसका महत्त्व सुकरात के उस कथन से लगाया जा सकता है जिसमें वह कहता है कि ‘हेराक्लिट्स का जो हमारे पास बचा है वह उत्कृष्ट है, और हम उनका जो कुछ खो जाने का अनुमान लगाते हैं, वह भी निश्चित ही उत्कृष्ट होगा.’ अपनी पूर्वोद्धरित किताब में हेराक्लिट्स पर लिखे आलेख में हेगेल ने द्वंद्ववाद के तीन स्तरों में अंतिम हेराकिलिट्स का माना है जिसमें ‘उनकी वस्तुपरकता द्वंद्ववाद को एक सिद्धांत के रूप में स्थापित कर देती है’. वह एक परिवर्तनवादी दार्शनिक है. प्लेटो ने उसके हवाले से लिखा है  ‘हर वस्तु निरंतर परिवर्तन की अवस्था में है, कोई भी चीज़ स्थिर नहीं है और न ही वह आगे उसी अवस्था में रहेगी.’ प्लेटो आगे कहता है कि हेराक्लिट्स चीजों की तुलना नदी के बहाव से करता था, कोई भी एक ही धारा में दुबारा नहीं जा सकता.’[3] उसके अनुसार परिवर्तन प्रकृति का नियम है. स्थाई गुण जैसी कोई चीज़ नहीं होती. ‘अस्तित्व और अनस्तित्व एक ही है ; हर चीज़ है और फिर भी नहीं है.’ हकीक़त केवल एक है – ‘विरुद्धों का समागम’. इस ‘विरुद्धों के समागम’ को हम उसकी आगे कही बातों से समझ सकते हैं. प्लेटो  ने उसके हवाले से लिखा है  ‘हर वस्तु निरंतर परिवर्तन की अवस्था में है, कोई भी चीज़ स्थिर नहीं है और न ही वह आगे उसी अवस्था में रहेगी.’ प्लेटो आगे कहता है कि हेराक्लिट्स चीजों की तुलना नदी के बहाव से करता था, कोई भी एक ही धारा में दुबारा नहीं जा सकता.’[4] 

इसे हेगेल ने आगे और स्पष्ट किया है – इस सार्वभौमिक सिद्धांत को अस्तित्व के सत्य के रूप में बेहतर तरीके से देख सकते हैं. चूंकि हर चीज़ है, और फिर भी नहीं है, हेराक्लिट्स कहता है कि हर चीज़ बनने की प्रक्रिया में है. केवल जन्म ही इससे संबधित नहीं है बल्कि वह भी है जो नष्ट हो रहा है. दोनों स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि समरूप हैं. नदी की धारा वाले उदाहरण को देखें तो कोई भी एक ही धारा में दुबारा इसलिए नहीं जा सकता क्योंकि नदी की धार मनुष्य के प्रवेश के साथ ही अपना मूल रूप खो देती है. मनुष्य का उसमें तैरना उसे एक नया रूप देता है. पानी वही है लेकिन वह स्थिर नहीं रह जाता, बदल जाता है. इस प्रकार दो विपरीतों के संयोजन से एक नयी चीज़ उत्पन्न होती है. दर्शन शास्त्र में एलियाई दार्शनिकों के अस्तित्व के सिद्धांत से हेराक्लिट्स की  अस्तित्वमान होने की प्रक्रिया का सिद्धांत  एक बड़ी छलांग थी. यहाँ दर्शन स्थिर से गतिमान की ओर आगे बढ़ता है. इस परिवर्तन को वह एक स्वयंसिद्ध, अटल प्राकृतिक नियम मानता था जिसे ‘न देवताओं ने बनाया, न मनुष्यों ने’. हेराक्लिट्स का लिखा बहुत कम मात्रा में ही उपलब्ध है. हेगल ने इस आलेख में उसकी अंतिम तत्व सम्बन्धी मान्यता पर विभिन्न विचारों की विवेचना की है. जहाँ सुकरात मानते थे कि हेराक्लिट्स अग्नि को अंतिम तत्व मानता था वहीँ कुछ अन्य का मानना है कि वह पानी या हवा या वाष्प को मूल तत्व मानता था. हेगेल के अनुसार हेराक्लिट्स का मूल तत्व अग्नि ही हो सकती थी क्योंकि इनमें सिर्फ अग्नि ही है जो अपने आप में एक प्रक्रिया है, निरंतर गतिमान और निरन्तर रूप बदलती हुई, जहाँ विरुद्धों के समागम से लगातार नई चीज़ पैदा होती है.  आगे चलकर हम देखेंगे कि ‘विरुद्धों का समागम’ (unity of opposites) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के विकास में कितना सहायक सिद्ध हुआ.

लेकिन यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि 535 ईसा पूर्व आखिर यूनान में ऐसी कौन सी भौतिक परिस्थितियाँ पैदा हो गयीं थी कि इतने क्रांतिकारी विचार सामने आये? राहुल संकृत्यायन अपनी किताब में इस प्रक्रिया की एक रोचक जानकारी देते हैं. हेराक्लिट्स का जन्म एक रईस सामंती घराने में हुआ था. लेकिन उस दौर में यूनानी व्यापारी इतने मज़बूत हो गए थे कि उन्होंने पुराने रईसों को हटाकर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था. हेराक्लिट्स के लिए वह ‘वर्तमान’ असह्य था और वह ‘परिवर्तन’ के लिए बेकल था. ज़ाहिर तौर पर उसके लिए परिवर्तनवादी होने का अर्थ पिछली अवस्था में लौटना था जहां व्यापारियों का शासन ख़त्म होकर पुराने रईसों का शासन आ जाए. यह अनायास नहीं कि वह युद्ध को जगत की गति का स्रोत मानता है – ‘युद्ध सबका पिता है और सबका राजा है, उसके बिना जगत ख़त्म हो जाएगा, गति-शून्य होकर मर जाएगा’. आखिर युद्ध ही वह साधन था जिससे पुरानी ताकतें नई ताकतों से सत्ता छीन सकती थीं. इस तरह एक प्रतिगामी उद्देश्य के साधन के लिए प्रतिपादित सिद्धांत भविष्य में हेगेल और मार्क्स दोनों के दर्शनों के लिए आधार बना. इस उदाहरण से एक बेहद महत्वपूर्ण चीज़ निकल कर आती है – ‘साधन हमेशा उसी साध्य (उद्देश्य) को पूरा नहीं करते जिसके लिए उनका निर्माण किया गया है’. यह चीजों की द्वंद्वात्मक समझ है. स्कूल-कालेज सरकारें अपनी व्यवस्था को चलाने के लिए पढ़े-लिखे लोगों को तैयार करने के लिए बनाती हैं, लेकिन उनमें ही ऐसे लोग भी पैदा होते हैं जो उस पर ही सवाल खड़ा करते हैं. हथियार आत्मरक्षा के लिए बने, लेकिन उनसे हत्याएं भी होती हैं. इंटरनेट बना था बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा दुनिया भर में फैले अपने नेटवर्क पर नियंत्रण के लिए, लेकिन वह दुनिया भर के संघर्षशील लोगों का हथियार भी बन रहा है. लोग जब पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष में पूंजीवाद की कोख से उपजे तमाम यंत्रों के प्रयोग पर सवाल खड़े करते हैं तो यह समझ अपने समय की तमाम भ्रांतियों को सुलझाने में काफी मददगार साबित होगी.

हेराक्लिट्स के बाद का सबसे महत्वपूर्ण दर्शन सोफीवाद है. सोफी उन्हें कहा गया जिन्होंने  यूनान पर ईरानियों के कब्ज़े के बाद वहाँ से पलायित होकर घुमंतू जीवन अपना लिया. सोफी एक अशांत, बिखरते समाज तथा राज्यक्रान्ति की उपज थे, इसीलिए पहले से चली आ रही बातों पर उनका विश्वास कम था, उनमें ज्ञान की बड़ी प्यास थी.[5] किसी चीज़ को सिर्फ इसलिए स्वीकार करने की वह पुरानी और प्रतिष्ठित है, की जगह उनका जोर सत्य के अन्वेषण पर था. उन्होंने मनुष्य को ज्ञान के केंद्र के रूप में स्थापित किया और कहा ‘मनुष्य वस्तुओं की कसौटी है’. उन्होंने मौखिक शिक्षा देने और अपनी सीखों को अपने आचरण से स्थापित करने का रास्ता अपनाया. ईसापूर्व चौथी सदी में यूनानी दर्शन का जो महत्वपूर्ण विकास आया उसके प्रमुख दार्शनिक सुकरात सोफियों से बहुत प्रभावित थे. सुकरात का मानना था कि विश्व की संरचना और चीजों का भौतिक स्वभाव जान पाना संभव नहीं. हम सिर्फ खुद को जान सकते हैं. अवधारणायें परिभाषाओं से जानी जाती हैं जिनका अर्थ अनुमान से लगाया जाता है. ज्ञान उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण था और उसके लिए सही रास्ता था ठीक तौर पर प्रयत्न तथा इससे प्राप्त ज्ञान का समय तथा परिस्थितियों की कसौटी पर परीक्षण. उन्होंने कोई किताब नहीं लिखी. उनके प्रसिद्ध वार्तालाप, जिन्हें ‘सुकरात के विरोधाभास’ कहा जाता है, बात करने वाले को अन्तर्विरोध की ओर ले जाते हैं जो उन अवधारणाओं की कमजोरी की ओर इंगित करता है और उन्हें वास्तविक सत्य की खोज की ओर उद्धत करता है. ज़ाहिर है सुकरात यथार्थवादी थे और समाज में फैली अवधारणाओं पर सवाल उठाते थे. वे उन सहजबोधों (common senses) पर सवाल खड़े करते थे जो तत्कालीन समाज व्यवस्था में स्थापित और अप्रश्नेय माने जाते थे.

उनका समय एथेंस के पतन का था. स्पार्टा के हाथों उसकी करारी हार हुई थी और वह किसी तरह खुद को पुनर्गठित कर रहा था. तत्कालीन जनतंत्र को लेकर लोगों के मन में सवाल उठने लाजिम थे. सुकरात, जो एथेंस के शासक की आलोचना करते थे और स्पार्टा के प्रसंशक थे. यथास्थिति का समर्थन करने या फिर तत्कालीन समाज के स्थापित नियम ‘ताकतवर ही सही है’ के समर्थन की जगह उन्होंने इस पर सवाल खड़े किये और एक सामजिक-नैतिक आलोचक की ज़रूरी भूमिका निभाई.  फलतः तत्कालीन शासकों ने उनके ऊपर युवाओं को पथभ्रष्ट करने, देवानिन्दक होने तथा नास्तिक होने का आरोप लगाकर उन्हें मृत्युदंड दे दिया. सुकरात के बाद उसके शिष्य प्लेटो और अरस्तू ने यूनानी दर्शन को अपनी-अपनी तरह से आगे बढ़ाया. योरप में पंद्रहवीं सदी से सत्रहवीं सदी के बीच के पुनर्जागरण के दौर के दर्शन की समझ बनाने से पहले इन दोनों दार्शनिकों को समझना बेहद ज़रूरी होगा. अगले अध्याय में हम इनके विचारों पर थोड़ा विस्तार से बात करेंगे और साथ ही एपीक्यूरस और डेमोक्राईटस के दार्शनिक विचारों की भी चर्चा करेंगे जिन्हें मार्क्स ने अपने शोध कार्य का विषय बनाया था.



[1] देखें, लेक्चर्स आन द हिस्ट्री आफ फिलासफी खंड 2, भाग-1, हेगेल, अनुवाद – इ.एस. हाल्डेन, यूनिवर्सिटी आफ नेब्रास्का प्रेस,  1995.

[2] देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पेज-2
[3] देखें, ‘लेक्चर्स आन द हिस्ट्री आफ फिलासफी, खंड-1,पेज-278, हेगेल, अनुवाद – इ.एस. हाल्डेन, यूनिवर्सिटी आफ नेब्रास्का प्रेस,  1995.
[4] देखें, वही, खंड-1,पेज-278,  
[5] देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पेज-6

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (26-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  2. हमेशा की तरह महत्वपूर्ण ...पुस्तक के रूप में आने का इन्तजार रहेगा

    जवाब देंहटाएं
  3. दर्शन शून्य में पैदा नहीं होते, न ही ख़त्म होते हैं. उनके उत्पन्न होने और नष्ट होने के मूल में ठोस सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक कारण होते हैं.

    जवाब देंहटाएं

स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…