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शनिवार, 13 अप्रैल 2013

साहित्यिक –राजनीतिक पोस्टर - एक आधुनिक लोक-कला ·





यह आलेख परिकथा के लोक-कला विशेषांक में छपा है.


मैं एक पोस्टर हूँ
सड़क या दीवार पर
चिपका हुआ इश्तहार
तुम चाहो
सैनिक-ट्रक के नीचे कुचल सकते हो
फाड़कर चिन्दी-चिन्दी कर सकते हो!
पर उससे क्या ?
मैं ज़माने के दर्द को तो
बेनकाब कर चुका हूँ,
कुचल कर समझ लो
मर चुका हूँ!
                                                            (मुक्तिबोध की कविता ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ से)

कुछ कलाएं ऐसी होती हैं, जिनका बाज़ार नहीं होता या यों कहें जो अपने कद्रदानों से अपने काम के बदले पैसा नहीं मांगती. वे बहुत शोर भी नहीं करतीं. बस चुपचाप अपना काम करती रहतीं हैं. ज़ाहिर है उनकी ओर ध्यान भी किसी का नहीं जाता. उनके हिस्से न कोई पुरस्कार है न कोई चर्चा. असल में उन्हें अलग से किसी कला का दर्ज़ा न दिया जाता है, न वे मांगती हैं. उनके उद्देश्य दूसरे होते हैं और हासिल भी. पोस्टर और वाल राइटिंग भी ऐसी ही कलाएं है. आप इन्हें लगभग हर साहित्यिक जलसे में देखेंगे लेकिन इन्हें बनाने वाले कलाकार अनचीन्हे रह जाते हैं. अगर देखा जाय तो साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने में इनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका है. अलग-अलग शहरों में सैकड़ों कलाकार धन के पीछे भागते हुए ‘मुख्यधारा’ की पेंटिंग्स बनाने की जगह पूरी लगन और निष्ठा से वैचारिक पक्षधरता के साथ साहित्यिक और राजनीतिक पोस्टर्स बनाने में लगे हुए हैं. ब्रश के सहारे रेखांकनों के साथ लिखे हुए ये पोस्टर लिखित शब्दों को दुगनी अर्थवत्ता के साथ आम लोगों के बीच ले जाते हैं. मैं इन्हें हमारे समय की एक महत्वपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण लोक-कला की तरह देखता हूँ.


हिंदी में इस तरह के पोस्टर ठीक-ठीक कब बनने शुरू हुए, यह तो मैं पता नहीं लगा सका, लेकिन वर्तमान रूप में पोस्टर शायद इप्टा तथा प्रलेस की स्थापना के साथ ही बनने शुरू हुए.  उन दिनों सिनेमा नया-नया आया था और छापेखाने वाले सिनेमा के पोस्टर हिन्दुस्तान के शहरों में प्रचार-प्रसार के लिए खूब उपयोग होते थे. इन नए बने वामपंथी संगठनों ने प्रेरणा वहीँ से ली होगी. वैसे सांडर्स ह्त्या के प्रकरण में भी पोस्टर्स का ज़िक्र आता है, जिन्हें भगत सिंह के साथियों ने बनाया और चिपकाया था. ज़ाहिर है कि लेखक संगठनों के पास छापेखाने से पोस्टर्स छपवाने की जगह कलाकारों द्वारा बनाए गए सुरुचिपूर्ण पोस्टर आर्थिक और कलात्मक दोनों दृष्टि से मुफीद थे. वैसे कविता और कला का सम्बन्ध तो बहुत पुरानी और वैश्विक अवधारणा है. बंगाल के प्रसिद्ध  चित्रकार चित्त प्रसाद ने कविताओं पर आधारित तमाम पेंटिंग्स और रेखांकन बनाए थे. एम ऍफ़ हुसैन ने अपनी कविता ‘पंढरपुर की औरत’ पर आधारित एक अद्भुत पेंटिंग बनाई है. हैदर रजा की पेंटिग्स में भी शब्दों का प्रयोग खूब दिखाई देता है. गोगी सरोज पाल और मंजीत बावा के यहाँ भी शब्द और चित्र की व्यापक आवाजाही है. पत्रिकाओं में रेखांकन भी साहित्य और कला को करीब लाते हैं तथा दोनों की अर्थवत्ता बढाते हैं. पत्रिकाओं में रेखांकन की शुरुआत यशस्वी संपादक भाऊ समर्थ ने की थी. बाद में के के हेब्बार जैसे  कलाकारों ने पत्रिकाओं के लिए खूब रेखांकन बनाए. धर्मयुग के जमाने में इसके संपादक धर्मवीर भारती तो बाक़ायदा रचनाएँ भेज कर उनके अनुरूप चित्र बनवाया करते थे. जाने-माने प्रतिबद्ध कलाकार अशोक भौमिक के चित्रों से तो साहित्य जगत बखूबी परिचित है ही. उनके राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना से भरे रेखांकन न जाने कितनी किताबों के आवरण बने हैं. जाने-माने कवि कुबेर दत्त ने भी प्रचुर मात्रा में कविताओं पर आधारिट रेखांकन और पेंटिंग्स बनाई हैं. खैर बात पोस्टर्स की हो रही थी.


मुक्तिबोध की कविता का जो हिस्सा मैंने ऊपर पोस्ट किया है, वह बताता है कि एक जन माध्यम के रूप में पोस्टर किस तरह की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. नक्सलबारी आन्दोलन और उसके पहले भी मजदूर आन्दोलनों में पोस्टर्स और वाल राइटिंग राजनीतिक कार्यवाहियों का ज़रूरी हिस्सा रहे. सस्ते सफ़ेद काग़ज़ों पर लाल-काले अक्षरों में लिखी कवितायें और राजनीतिक नारों की इबारतें रात के घुप अँधेरे और पुलिस-गुंडों के खौफ के बीच राजनीतिक कार्यकर्ता फैक्ट्रियों/ शहरों/कालेजों की दीवारों पर चस्पा हो जाती थी या फिर सीधे दीवार पर ही उन्हें कूची से उकेर दिया जाता और सुबह जनता के बीच ये सन्देश जब पहुँचते तो उनके दिलो-दिमाग में यह सब लम्बे समय के लिए पैबस्त हो जाता. जनता की राजनीतिक चेतना के उन्नयन में इनकी भूमिका भले इतिहास के पन्नों में दर्ज न हो, बेहद अहम रही है. इसका एक ताज़ा उदाहरण उत्तराखंड के आन्दोलन के दौरान जनकवि अतुल शर्मा की कविताओं पर बने पोस्टर हैं जिन्होंने उस आन्दोलन को आगे बढ़ाने में एक ज़रूरी भूमिका निभाई और उसे धार दी.


मेरे अपने निर्माण में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है. उच्च शिक्षा के लिए गोरखपुर आने के बाद मेरी नज़र जब विश्विद्यालय की दीवारों पर लिखे ‘भगत सिंह की बात सुनो, इन्कलाब की राह चुनो’ जैसे नारों और मुक्तिबोध, पाश, कुमार विकल. आलोक धन्वा जैसे कवियों की कविताओं के तथा भगत सिंह के उद्धरणों के पोस्टर्स पर पड़ी तो वहाँ से दुनिया को देखने का एक बेहतर और जनपक्षीय नज़रिया पहली बार मेरे सामने आया. संगठन से जुड़ने के बाद इन पोस्टर्स को बनाने वाले प्रमुख कलाकार साथी आज़म अनवर से मुलाक़ात हुई और तब पता चला कि साधारण से दिखने वाले इन पोस्टर्स के पीछे कितनी लगन, कितना श्रम और कितना समर्पण ज़रूरी होता है. एक हायर सेकंडरी स्कूल के कला अध्यापक आज़म अनवर एक बेहद ज़हीन कलाकार हैं. उन्होंने ढेरों पेंटिंग्स बनाई लेकिन संगठन से जुड़ने के बाद उन्होंने लगभग पूर्णकालिक रूप से पोस्टर्स बनाने का ही काम किया. और ये पोस्टर्स भी उनकी निजी संपत्ति नहीं संगठन के होते थे, इन पर कहीं उनका नाम नहीं होता. हालत यह थी कि संगठन और उनसे अपरिचित लोग जब कार्यक्रमों में इनकी प्रसंशा किया करते तो आज़म भाई शर्माए, सकुचाये से पीछे खड़े रहते. और ऐसे प्रतिबद्ध कलाकार देश भर में मिल जायेंगे.

अशोक नगर के पंकज दीक्षित को तो लोग कविता पोस्टरों के लिए ही जानते हैं. इप्टा से जुड़े पंकज भाई के पोस्टरों की प्रदर्शनियाँ देश भर में लगी हैं. कम लोग जानते हैं कि उन्होंने देश की लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में रेखांकन बनाएं हैं तथा अनेकों बार उनके कवर तैयार किये हैं. इप्टा अशोकनगर और इप्टा मध्यप्रदेश ही नहीं प्राची, प्रलेस जैसे तमाम संगठनों की राजनीतिक पुस्तिकाओं के आवरण उनके रेखांकनों से बने हैं. आमतौर पर काले काग़ज़ पर ब्रश से बनाए गए उनके पोस्टर्स की सबसे बड़ी खूबी उनके मानीखेज रेखांकन ही होते हैं. समकालीन और पुराने कवियों में से शायद ही कोई ऐसा महत्वपूर्ण नाम होगा, जिसकी कविताओं पर आधारित पोस्टर उन्होंने न बनाए हों. भगत सिंह जन्म शताब्दी के अवसर पर भगत सिंह के उद्धरणों की उनके द्वारा बनाई गयी पोस्टर सीरीज देश भर में प्रदर्शित हुई थी. ऐसा एक और नाम है रावतभाटा, राजस्थान के रवि कुमार का. रवि पोस्टर को लेकर पैशन से इतने ज़्यादा भरे हुए हैं कि अपने कवि होने को उन्होंने लगभग भुला ही रखा है. विकल्प सांस्कृतिक मंच से जुड़े रवि एक प्रतिबद्ध वामपंथी कलाकार तथा कवि हैं. उन्होंने अपने पोस्टर्स के लिए एक अलग स्टाइल चुनी है. आम तौर पर सफ़ेद कागजों पर चुभते हुए शब्दों को उकेरने वाले रवि भी रेखांकनों का खूब प्रयोग करते हैं. अपनी पैनी राजनीतिक समझदारी के चलते वह चटख रंगों का भी कविता के अनुकूल प्रयोग बड़ी कुशलता से करते हैं तो श्वेत-श्याम पोस्टर्स में भी अर्थ भर देते हैं. हाल में जाने-माने कहानीकार स्वयंप्रकाश की कहानियों पर केन्द्रित चित्तौड़ के एक आयोजन में जिस तरह बेहद कम समय में उन्होंने स्वयंप्रकाश की कहानियों के पोस्टर तैयार किये और खुद उन्हें लगाने चित्तौड़ पहुंचे, वह उनके गहरे समर्पण की मिसाल है. उनके पोस्टर की एक बड़ी खूबी पठनीयता है. वह आम तौर पर बड़े अक्षरों का प्रयोग करते हैं जिससे दूर से ही पोस्टर पढ़ा जा सके. जबलपुर के विनय अम्बर ने भी पोस्टरों के क्षेत्र में काफी प्रयोग किये हैं. पिछले साल उन्होंने तमाम कवियों की कविताओं के हिस्से चुनकर हस्तनिर्मित कागज़ पर नव वर्ष के खूबसूरत बधाई कार्ड बनाए. इन दिनों उज्जैन में रह रहे चित्रकार मुकेश बिजौले ने भी कविता पोस्टर के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किया है. इनके अलावा दीपक कुमार, बी मोहन नेगी, श्रीकांत आप्टे, महेश वर्मा, कैलाश तिवारी, अरुण मिश्र, धीरेन्द्र, अमज़द एहसास, के रवीन्द्र जैसे कलाकार भी इस क्षेत्र में सक्रिय हैं. जसम से जुड़े कलाकारों ने भी बहुत अच्छे पोस्टर बनाए हैं.


इधर कम्प्युटर के आने के बाद कई कलाकारों ने नई तकनीक का बेहतर प्रयोग किया है तो कुछ ने उसका सहारा लेकर बिना इस विधा की मूल भावना को समझे थोक के भाव से असंगत चित्रों के साथ जिस तरह से भोंडे अक्षरों में कवितायें चिपकानी शुरू की हैं, वह एक खतरनाक प्रवृति है. उन्हें देखकर मुझे कवि मित्र हरिओम राजोरिया का सुनाया वह किस्सा याद आता है जब एक नए-नए उत्साही कलाकार ने (जो अब परिपक्व और गंभीर कलाकार बन चुके हैं) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता जूता का कविता पोस्टर बनाते हुए एक बड़ा सा जूता बड़ी मेहनत से बनाया था. कविता पोस्टर बनाना न तो इतना आसान काम है, न इतना गैर-जिम्मेदाराना कि गूगल पर सर्च किये हुए किसी चित्र को चिपका कर और कविता को किसी कथित कलात्मक फांट में टाइप कर किया जा सके. यह एक तरफ कला की गहरी समझदारी माँगता है तो दूसरी तरफ साहित्य तथा विचार  में भी उतनी ही गहरी पकड़. पूरी कविता या कहानी से एक छोटे से हिस्से का चुनाव, फिर उसके भावों के अनुरूप रेखांकन बनाना और शब्द तथा रेखांकन के बीच ऐसा तालमेल बिठाना कि कविता का मूल सन्देश लोगों तक और अधिक अर्थवत्ता के साथ पहुँचे, यह किसी तकनीकी विशेषज्ञता का नहीं बल्कि वैचारिक समर्पण का मामला है. 

ज़ाहिर है कि देश भर में अनाम रहकर कलाकारों द्वारा किये  गए कामों का मूल्यांकन कर पाना किसी एक लेख के बस की बात नहीं है. ये काम किसी प्रसिद्धि के लिए नहीं बल्कि सामूहिक कार्यवाहियों की हिस्सेदारी के रूप में किये जाते हैं तो मैं भी इन सभी कलाकारों को सामूहिक रूप से इस आधुनिक लोक-कला की मुहिम के लिए सलाम करना चाहता हूँ और साहित्य के मठों पर बैठे बड़े लोगों से अपील करना चाहता हूँ कि इन कलाकारों के कामों को महत्त्व देने के लिए, जनता तक पहुँचाने के लिए और नए-नए कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए ज़रूरी क़दम उठाये जाएं. साहित्य के लगातार जनता से दूर होते जाने के इस दौर में ये पोस्टर साहित्य और जनता के बीच महत्वपूर्ण कड़ी बन सकते हैं. हालांकि अपनी अदम्य जीजिविषा से संचालित ये कलाकार इन सबके बिना भी चुपचाप अपना काम कर ही रहे हैं. बकौल मदन डागा - मैं एक पोस्टर हूँ/ सड़क या दीवार पर/ चिपका हुआ इश्तहार/ तुम चाहो /सैनिक-ट्रक के नीचे कुचल सकते हो/ फाड़कर चिन्दी-चिन्दी कर सकते हो!/ पर उससे क्या ?/मैं ज़माने के दर्द को तो/ बेनकाब कर चुका हूँ/ कुचल कर समझ लो/ मर चुका हूँ!

15 टिप्‍पणियां:

  1. इस काम को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। कलात्मक वाल पेंटिंग भी होनी चाहिए।

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  2. mere dost priyamvad ne bhi 8 sal tak allahabad ki sarakon pe raat-raat bhar SFI ke liye wall writing kiya hai... SFI aur janvadi lekhak sangh ke sabhi karyakramon me uske kavita poster mahaul bana dete tthe.

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  3. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14-04-2013) के चर्चा मंच 1214 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  4. इस कला का सर्वाधिक प्रभावी उपयोग भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों द्वारा करने का दृष्टांत मिलता है इतिहास मे ... भगत सिंह लाजपत राय को बेहद सम्मान की दृष्टि से देखते थे परंतु अपने जीवन के उत्तरार्ध मे सांप्रदायिकता-उन्मुख राजनीति करने के लिए वह उन्हें भी नहीं बख्शते ...अब चूंकि लालाजी बड़े और सम्मानित नेता थे और उनके विरुद्ध तल्ख आलोचना अशिष्टता की श्रेणी मे आती अतः भगत सिंह ने एक पैम्फलेट पर राबर्ट ब्राउनिंग की प्रसिद्ध कविता 'the lost leader' जिसमे ब्राउनिंग स्वतन्त्रता के विरुद्ध हो जाने के कारण वर्ड्सवर्थ की कावयमय आलोचना इन पंक्तियों मे करते है ...'just for a handful of silver he left us...we shall march prospering- not through his presence ; Songs may inspirit us -not from his lyre...blot out his name , then ,record one lost soul more'.....लिखी थी ... कविता के अतिरिक्त पोस्टर पर कुछ भी नहीं था सिवाय लाला लाजपत राय के एक चित्र के ....

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  5. अशोक जी, हाथ से बने सामजिक और राजनैतिक पोस्टरों का अपना एक ज़माना था.
    मुझे याद है १९९५-९६ तक कानपुरी इंक द्वारा हाथ से प्लेट (ऑफसेट प्रिंटिंग के लिए) पर ही लिखाई होती थी, सुंदर और कलात्मक. उस समय एक पोस्टर की लिखाई के लिए प्रेस का मालिक लिखने वाले को १५० रूपये तक देता था. जहाँ फोटो लगानी होती वहाँ खाली जगह छोड़ दी जाती थी, उस के बाद मात्र उतनी ही जगह नेगटिव रख कर दी जाती थी.
    फ्लोरोसेंट इंक से छपे सर्कस के पोस्टर, सिनेमा के तो सारा साल रहते थे, पर चुनाव के दिनों बात कुछ और होती. तब छापेखानों में रोज के २०-२५ पोस्टर आते थे, इन कारीगरों की तब दिवाली रहती थी... पर बहुत मेहनत, कई तरह के कलम, कई साइज़ के ब्रुश, लाइनिंग के लिए कई पॉइंटर.. और कानपुरी इंक. देखने लायक काम होता था.
    कम्पुटर आने के बाद ग्राफिक्स में क्रांति हो गयी, सुंदर टाइप फेस से कम्पोज कर के नेगटिव निकाल लिए जाते और उससे प्लेट बनती .. शुरुआत में ये सब महंगा था, परन्तु १९९८ तक आते आते इकोनोमिकल हो गया. रहे हाथ से लिखने वाले गरीगर ... उन्होंने इतर कोई और धंधे देख लिए.. हस्त लेखन के पोस्टरों की कलात्मकता 'जनवादी' बैठकखानों में सज कर रह गयी.

    उपर से चुनाव आयोग, पोस्टर पर पूर्णत: परिबंध लगा दिया गया, जिससे कई घर चलते थे और दारू का प्रवाह निरंतर चालू है.


    उक्त टीप मात्र पोस्टर पर आधारित है... जहाँ तक जनवादी या कोई और भी वादी से मैं सहमत तभी तक नहीं हो सकता जब तक समाज के निचले वर्ग को रोटी न दे सके.

    दिलों को छूने वाली कवितायेँ, लेख, लंबी लंबी दलीलें - मात्र सत्ता तक पहुँचने का रास्ता ही बन गए हैं.

    शुभकामनाएँ.

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  6. K.ravindra ki jagah kunwar rawindra singh bada ajeeb sa laga. Unke prasansak shayad hi is naye nam se parichit hon.

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  7. एक अच्छा आलेख | बधाई | अपनी ट्रेड यूनियन के सम्मेलनों में मैंने एक ऐसे ही शख्स को देखा है , जो इन पोस्टरों से लगातार जूझते रहते हैं |उनका नाम है 'दत्ता जी' | क्या अद्भुत कला है , उनके हाथों में | कविताओं के साथ चित्रों का संयोजन एक अलग ही असर छोड़ता है | मुझे लगता है , कि प्रतिरोध की संस्कृति के रूप में इस कला ने काफी काम किया है | आपने इसे लेख का विषय बनाया , यह ख़ुशी की बात है |

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  8. बहुत अच्छी जानकारी दी आपने | यह काम सच में बहुत कलात्मक है , प्रभावित करता है | इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए

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  9. बेहतरीन प्रस्तुति
    पधारें "आँसुओं के मोती"

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  10. 'पोस्टर' एक ऐसा सशक्त कला-माध्यम है, एक ऐसी विधा है, जिस पर सिर्फ एक नज़र पड़ने की ज़रुरत होती है और देखने वाला सबकुछ समझ जाता है, कि कलाकार क्या कहना चाहता है। तारीफ़ ये है कि कलाकार अपनी कृति के आस-पास भी नहीं होता।
    बहुत ही अच्छा लगा इस विधा के बारे में पढना। इसमें कोई शक नहीं इस कला को अभी और पहचान की आवश्यकता है।
    आपका आभार !

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  11. नवरात्रों की बहुत बहुत शुभकामनाये
    आपके ब्लाग पर बहुत दिनों के बाद आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ
    बहुत खूब बेह्तरीन !शुभकामनायें
    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    मेरी मांग

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  12. कला-सृजन की एक नई दिशा की
    पड़ताल करती
    सार्थक प्रस्तुति।

    शुभेच्छु

    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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स्वागत है समर्थन का और आलोचनाओं का भी…