आज राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन है. इस विद्रोही लेखक ने खूब लिखा है और मानीखेज़ लिखा है. अक्सर अपने समय से आगे. जनपक्ष पर उनकी किताब "घुमक्कड़ शास्त्र" का यह हिस्सा इसकी गवाही देता है.
घुमक्कड़-धर्म
सार्वदैशिक विश्वव्यापी घर्म है। इस पंथ में किसी के आने की मनादी नहीं है,
इसलिए यदि देश की तरुणियाँ भी घुमक्कड़ बनने की इच्छा रखें,
तो यह खुशी की बात है। स्त्री होने से वह साहसहीन है, उसमें अज्ञात दिशाओं और देशों में विचरने के संकल्प का अभाव है - ऐसी बात
नहीं है। जहाँ स्त्रियों को अधिक दासता की बेड़ी में जकड़ा नहीं गया, वहाँ की स्त्रियाँ साहस-यात्राओं से बाज नहीं आतीं। अमेरिकन और यूरोपीय
स्त्रियों का पुरुषों की तरह स्वतंत्र हो देश-विदेश में घूमना अनहोनी सी बात नहीं
है। यूरोप की जातियाँ शिक्षा और संस्कृति में बहुत आगे हैं, यह कहकर बात को टाला नहीं जा सकता। अगर वे लोग आगे बढ़े हें, तो हमें भी उनसे पीछे नहीं रहना है। लेकिन एसिया में भी साहसी यात्रिणियों
का अभाव नहीं है। 1934 की बात है, मैं अपनी दूसरी
तिब्बत-यात्रा में ल्हासा से दक्षिण की ओर लौट रहा था। ब्रह्मपुत्र पार करके पहले
डांडे को लाँघकर एक गाँव में पहुँचा। थोड़ी देर बाद तो तरुणियाँ वहाँ पहुँची। तिब्बत
के डांडे बहुत खतरनाक होते हैं, डाकू वहाँ मुसाफिरों की ताक
में बैठे रहते हैं। तरुणियाँ बिना किसी भय के डांडा पार करके आईं। उनके बारे में
शायद कुछ मालूम नहीं होता, किंतु जब गाँव के एक घर में जाने
लगीं, तो कुत्ते ने एक के पैर में काट खाया। वह दवा लेने
हमारे पास आईं, उसी वक्त उनकी कथा मालूम हुई। वह किसी पास
के इलाके से नहीं, बल्कि बहुत दूर चीन के कन्सू प्रदेश में
ह्वांग-हो नदी के पास अपने जन्मस्थान से आई थीं। दोनों की आयु पच्चीस साल से
अधिक नहीं रही होगी। यदि साफ सफेद पहना दिये जाते, तो कोई भी
उन्हें चीन की रानी कहने के लिए तैयार हो जाता। इस आयु और बहुत-कुछ रूपवती होने
पर भी वह ह्वांग-हो के तट से चढ़कर भारत की सीमा से सात-आठ दिन के रास्ते पर
पहुँची थीं। अभी यात्रा समाप्त नहीं हुई थी। भारत को वह बहुत दूर का देश समझती
थीं, नहीं तो उसे भी अपनी यात्रा में शामिल करने की उत्सुक
होतीं। पश्चिम में उन्हें मानसरोवर तक और नेपाल में दर्शन करने तो अवश्य जाना था।
वह शिक्षिता नहीं थीं, न अपनी यात्रा को उन्होंने असाधारण
समझा था। यह अम्दो तरुणियाँ कितनी साहसी थीं? उनको देखने के
बाद मुझे ख्याल आया, कि हमारी तरुणियाँ भी घुमक्कड़ अच्छी
तरह कर सकती हैं।
जहाँ तक घुमक्कड़ी
करने का सवाल है, स्त्री का उतना ही
अधिकार है, जितना पुरुष का। स्त्री क्यों अपने को इतना हीन
समझे? पीढ़ी के बाद पीढ़ी आती है, और
स्त्री भी पुरुष की तरह ही बदलती रहती है। किसी वक्त स्वतंत्र नारियाँ भारत में
रहा करती थीं। उन्हें मनुस्मृति के कहने के अनुसार स्वतंत्रता नहीं मिली थी,
यद्यपि कोई-कोई भाई इसके पक्ष में मनुस्मृति के श्लोक को उद्धृत
करते हैं-
''यत्र नार्यस्तु
पूज्यंते रमंते तत्र देवता:।''
लेकिन यह
वंचनामात्र है। जिन लोगों ने गला फाड़-फाड़कर कहा - ''न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति'' उनकी नारी-पूजा भी
कुछ दूसरा अर्थ रखती होगी। नारी-पूजा की बात करने वाले एक पुरुष के सामने एक समय
मैंने निम्न श्लोक उद्धृत किया -
''दर्शने
द्विगुणं स्वादु परिवेषे चतुर्गुणम्।
सहभोजे चाष्टगुणमित्येतन्मनुरब्रवीत्॥''
(स्त्री के दर्शन
करते हुए यदि भोजन करना हो तो वह स्वाद में दुगुना हो जाता है,
यदि वह श्रीहस्त से परोसे तो चौगुना और यदि साथ बैठकर भोजन करने की
कृपा करे तो आठ गुना - ऐसा मनु ने कहा है।) इस पर जो मनोभाव उनका देखा उससे पता लग
गया कि वह नारी-पूजा पर कितना विश्वास रखते हैं। वह पूछ बैठे, यह श्लोक मनुस्मृति के कौन से स्थान का है। वह आसानी से समझ सकते थे कि
वह उसी स्थान का हो सकता है जहाँ नारी-पूजा की बात कही गई है, और यह भी आसानी से बतलाया जा सकता था कि न जाने कितने मनु के श्लोक
महाभारत आदि में बिखरे हुए हैं, किंतु वर्तमान मनुस्मृति
में नहीं मिलते। अस्तु! हम तो मनु की दुहाई देकर स्त्रियों को अपना स्थान लेने
की कभी राय नहीं देंगे।
हाँ,
यह मानना पड़ेगा कि सहस्राब्दियों की परतंत्रता के कारण स्त्री की
स्थिति बहुत ही दयनीय हो गई है। वह अपने पैरों पर खड़ा होने का ढंग नहीं जानती। स्त्री
सचमुच लता बना के रखी गई है। वह अब भी लता बनकर रहना चाहती है, यद्यपि पुरुष की कमाई पर जीकर उनमें कोई-कोई 'स्वतंत्रता'
'स्वतंत्रता' चिल्लाती हैं। लेकिन समय बदल
रहा है। अब हाथ-भर का घूँघट काढ़ने वाली माताओं की लड़कियाँ मारवाड़ी जैसे अनुदार
समाज में भी पुरुष के समकक्ष होने के लिए मैदान में उतर रही हैं। वह वृद्ध और
प्रौढ़ पुरुष धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने निराशापूर्ण
घड़ियों में स्त्रियों की मुक्ति के लिए संघर्ष किया, और
जिनके प्रयत्न्ा का अब फल भी दिखाई पड़ने लगा है। लेकिन साहसी तरुणियों को समझना
चाहिए कि एक के बाद एक हजारों कड़ियों से उन्हें बाँध के रखा गया है। पुरुष ने
उसके रोम-रोम पर काँटी गाड़ रखी है। स्त्री की अवस्था को देखकर बचपन की एक कहानी
याद आती है - न सड़ी न गली एक लाश किसी निर्जन नगरी के प्रासाद में पड़ी थी। लाश
के रोम-रोम में सूइयाँ गाड़ी हुई थीं। उन सूइयों को जैसे-जैसे हटाया गया, वैसे-ही-वैसे लाश में चेतना आने लगी। जिस वक्त आँख पर गड़ी सूइयों को
निकाल दिया गया उस वक्त लाश बिलकुल सजीव हो उठ बैठी और बोली ''बहुत सोये।'' नारी भी आज के समाज के उसी तरह रोम-रोम
में परतंत्रता की उन सूइयों से बिंधी है, जिन्हें पुरुषों
के हाथों ने गाड़ा है। किसी को आशा नहीं रखनी चाहिए कि पुरुष उन सूइयों को निकाल
देगा।
उत्साह और साहस
की बात करने पर भी यह भूलने की बात नहीं है, कि
तरुणी के मार्ग में तरुण से अधिक बाधाओं के मारे किसी साहसी ने अपना रास्ता
निकालना छोड़ दिया। दूसरे देशों की नारियाँ जिस तरह साहस दिखाने लगी हैं, उन्हें देखते हुए भारतीय तरुणी क्यों पीछे रहे?
हाँ,
पुरुष ही नहीं प्रकृति भी नारी के लिए अधिक कठोर है। कुछ कठिनाइयाँ
ऐसी हैं, जिन्हें पुरुषों की अपेक्षा नारी को उसने अधिक
दिया है। संतति-प्रसव का भार स्त्री के ऊपर होना उनमें से एक है। वैसे नारी का ब्याह,
अगर उसके ऊपरी आवरण को हटा दिया जाय तो इसके सिवा कुछ नहीं है कि
नारी ने अपनी रोटी-कपड़े और वस्त्राभूषण के लिए अपना शरीर सारे जीवन के निमित्त
किसी पुरुष को बेच दिया है। यह कोई बहुत उच्च आदर्श नहीं है, लेकिन यह मानना पड़ेगा, कि यदि विवाह का यह बंधन भी
न होता, तो अभी संतान के भरण-पोषण में जो आर्थिक और कुछ
शारीरिक तौर से भी पुरुष भाग होता है, वह भी न लेकर वह
स्वच्छंद विचरता और बच्चों की सारी जिम्मेवारी स्त्री के ऊपर पड़ती। उस समय या
तो नारी को मातृत्व से इंकार करना पड़ता। या सारी आफत अपने ऊपर मोल लेनी पड़ती।
यह प्रकृ़ति का नारी के ऊपर अन्याय है, लेकिन प्रकृति ने
कभी मानव पर खुलकर दया नहीं दिखाई, मानव ने उसकी बाधाओं के
रहते उस पर विजय प्राप्त की।
नारी के प्रति जिन
पुरुषों ने अधिक उदारता दिखाई, उनमें मैं
बुद्ध को भी मानता हूँ। इनमें शक नहीं, कितनी ही बातों में
वह समय से आगे थे, लेकिन तब भी जब स्त्री को भिक्षुणी बनाने
की बात आई, तो उन्होंने बहुत आनाकानी की, एक तरह गला दबाने पर स्त्रियों को संघ में आने का अधिकार दिया। अपने अंतिम
समय, निर्वाण के दिन, यह पूछने पर कि
स्त्री के साथ भिक्षु को कैसा बर्ताव करना चाहिए, बुद्ध ने
कहा - ''अदर्शन'' (नहीं देखना)। और
देखना ही पड़े तो उस वक्त दिल और दिमाग को वश में रखना। लेकिन मैं समझता हूँ,
यह एकतरफा बात है और बुद्ध के भावों के विपरीत है, क्योंकि उन्होंने अपने एक उपदेश में और निर्वाण-दिन से बहुत पहले कहा था - (''...नाहं भिक्खवे,
अञ्ञं एकरूपं पि समनुपस्सापि, यं एवं पुरिसस्स
चित्तं परियोदाय तिट्ठति यथयिदं भिक्खवे, इत्थिरूपम्...,इत्थिसद्दो...,इत्थिफोट्ठब्बो...। नाहं भिक्खे,
अंञ्ञं एकरूपंपि समनुपस्सामि यं एवं इत्थियाचित्तम् परियोदाय
तिट्ठति यथयिदम् भिक्खवे, पुरिसरूपं...पुरिस-सद्दो....,
पुरिस-गंधो..., पुरिसरसो..., पुरिसफोट्ठब्बो...।) - अंगुत्तर निकाय 1।1।1
''भिक्षुओ! मैं
ऐसा एक भी रूप नहीं देखता, जो पुरुष के मन को इस तरह हर लेता
है जैसा कि स्त्री का रूप... स्त्री का शब्द ...स्त्री की गंध... स्त्री का
रस... स्त्री का स्पर्श...।'' इसके बाद उन्होंने यह भी
कहा - ''भिक्षुओं! मैं ऐसा एक भी रूप नहीं देखता, जो स्त्री के मन को इस तरह हर लेता है, जैसा कि
पुरुष का रूप... पुरुष का शब्द... पुरुष की गंध... पुरुष का रस... पुरुष का स्पर्श...।''
बुद्ध ने जो बात यहाँ कही है, वह बिलकुल
स्वाभाविक तथा अनुभव पर आश्रित है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे की पूरक
इकाइयाँ हैं। 'अदर्शन' उन्होंने
इसीलिए कहा था, कि दर्शन से दोनों को उनके रूप, शब्द, गंध, रस, स्पर्श एक दूसरे के लिए सबसे अधिक मोहक होते हैं। सारी प्रकृति में इसके
उदाहरण भरे पड़े हैं। स्त्री के साथ पुरुष की अधिक घनिष्ठता या पुरुष के साथ स्त्री
की अधिक घनिष्ठता यदि एक सीमा से पार होती है, तो परिणाम
केवल प्लातोनिक प्रेम तक ही सीमित नहीं रहता। इसी खतरे की ओर अपने वचन में बुद्ध
ने संकेत किया है। इसका यही अर्थ है कि जो एक ऊँचे आदर्श और स्वतंत्र जीवन को लेकर
चलने वाले हैं, ऐसे नर-नारी अधिक सावधानी से काम लें। पुरुष
प्लातोनिक प्रेम कहकर छुट्टी ले सकता है, क्योंकि प्रकृति
ने उसे बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया है, किंतु स्त्री
कैसे वैसा कर सकती है?
स्त्री के
घुमक्कड़ होने में बड़ी बाधा मनुष्य के लगाये हजारों फंदे नहीं हैं,
बल्कि प्रकृति की निष्ठुरता ने उसे और मजबूर बना दिया है। लेकिन
जैसा मैने कहा, प्रकृति की मजबूरी का अर्थ यह हर्गिज नहीं है,
कि मानव प्रकृति के सामने आत्म-समर्पण कर दे। जिन तरुणियों को
घुमक्कड़ी-जीवन बिताना है, उन्हें मैं अदर्शन की सलाह नहीं
दे सकता और न यही आशा रख सकता हूँ, कि जहाँ विश्वामित्र-पराशर
आदि असफल रहे, वहाँ निर्बल स्त्री विजय-ध्वजा गाड़ने में
अवश्य सफल होगी, यद्यपि उससे जरूर यह आशा रखनी चाहिए,
कि ध्वजा को ऊँची रखने की वह पूरी कोशिश करेगी। घुमक्कड़ तरुणी को
समझ लेना चाहिए, कि पुरुष यदि संसार में नए प्राणी के लाने
का कारण होता है, तो इससे उसके हाथ-पैर कटकर गिर नहीं जाते।
यदि वह अधिक उदार और दयार्द्र हुआ तो कुछ प्रबंध करके वह फिर अपनी उन्मुक्त
यात्रा को जारी रख सकता है, लेकिन स्त्री यदि एक बार चूकी
तो वह पंगु बनकर रहेगी। इस प्रकार घुमक्कड़-व्रत स्वीकार करते समय स्त्री को खूब
आगे पीछे सोच लेना होगा और दृढ़ साहस के साथ ही इस पथ पर पग रखना होगा। जब एक बार
पग रख दिया तो पीछे हटाने का नाम नहीं लेना होगा।
घुमक्कड़ों और
घुमक्कड़ाओं, दोनों के लिए अपेक्षित गुण
बहुत-से एक-से हैं, जिन्हें कि इस शास्त्र के भिन्न-भिन्न
स्थानों में बतलाया गया है, जैसे स्त्री के लिए भी
कम-से-कम 18 वर्ष की आयु तक शिक्षा और तैयारी का समय है, और
उसके लिए भी 20 के बाद यात्रा के लिए प्रयाण करना अधिक होगा। विद्या और दूसरी
तैयारियाँ दोनों की एक-सी हो सकती हैं, किंतु स्त्री चिकित्सा
में यदि विशेष योग्यता प्राप्त कर लेती है, अर्थात् डाक्टर
बनके साहस-यात्रा के लिए निकलती है, तो वह सबसे अधिक सफल और
निर्द्वंद्व रहेगी। वह यात्रा करते हुए लोगों का बहुत उपकार कर सकती है। जैसा कि
दूसरी जगह संकेत किया गया, यदि तरुणियाँ तीन की संख्या में
इकट्ठा होकर पहली यात्रा आरंभ करें, तो उन्हें बहुत तरह का
सुभीता रहेगा। तीन की संख्या का आग्रह क्यों? इस प्रश्न
का जवाब यही है कि दो की संख्या अपर्याप्त है, और आपस मे
मतभेद होने पर किसी तटस्थ हितैषी की आवश्यकता पूरी नहीं हो सकती। तीन की संख्या
में मध्यस्थ सुलभ हो जाता है। तीन से अधिक संख्या भीड़ या जमात की है, और घुमक्कड़ी तथा जमात बाँधकर चलना एक दूसरे के बाधक हैं। यह तीन की संख्या
भी आरंभिक के लिए है, अनुभव बढ़ने के बाद उसकी कोई आवश्यकता
नहीं रह जाती। ''एको चरे खग्ग विसाण-कप्पो'' (गैंडे के सींग की तरह अकेले विचरे), घुमक्कड़ के
सामने तो यही मोटो होना चाहिए।
स्त्रियों को
घुमक्कडी के लिए प्रोत्साहित करने पर कितने ही भाई मुझसे नाराज होंगे,
और इस पथ की पथिका तरुणियों से तो और भी। लेकिन जो तरुणी मनस्विनी
और कार्यार्थिनी है, वह इसकी पर्वाह नहीं करेगी, यह मुझे विश्वास है। उसे इन पीले पत्तों की बकवाद पर ध्यान नहीं देना
चाहिए। जिन नारियों ने आँगन की कैद छोड़कर घर से बाहर पैर रखा है, अब उन्हे बाहर विश्व में निकलना है। स्त्रियों ने पहले-पहल जब घूँघट
छोड़ा तो क्या कम हल्ला मचा था, और उन पर क्या कम लांछन
लगाये गये थे? लेकिन हमारी आधुनिक-पंचकन्याओं ने दिखला दिया
कि साहस करने वाला सफल होता है, और सफल होने वाले के सामने
सभी सिर झुकाते हैं। मैं तो चाहता हूँ, तरुणों की भाँति
तरुणियाँ भी हजारों की संख्या में विशाल पृथ्वी पर निकल पड़े और दर्जनों की
तादाद में प्रथम श्रेणी की घुमक्कड़ा बनें। बड़ा निश्चय करने के पहले वह इस बात
को समझ लें, कि स्त्री का काम केवल बच्चा पैदा करना नहीं
है। फिर उनके रास्ते की बहुत कठिनाइयाँ दूर हो सकती है। यह पंक्तियाँ कितने ही
धर्मधुरंधरों के दिल में काँटे की तरह चुभेंगी। वह कहने लगेंगे, यह वज्रनास्तिक हमारी ललनाओं को सती-सावित्री के पथ से दूर ले जाना चाहता
है। मैं कहूँगा, वह काम इस नास्तिम ने नहीं किया, बल्कि सती-सावित्री के पथ से दूर ले जाने का काम सौ वर्ष से पहले ही हो
गया, जब कि लार्ड विलियम बेंटिक के जमाने में सती प्रथा को
उठा दिया गया। उस समय तक स्त्रियों के लिए सबसे ऊँचा आदर्श यही था, कि पति के मरने पर वह उसके शव के साथ जिंदा जल जायँ। आज तो सती-सावित्री
के नाम पर कोई धर्मधुरंधर - चाहे वह श्री 108 करपात्री जी महाराज हों, या जगद्गुरु शंकराचार्य - सती प्रथा को फिर से जारी करने के लिए सत्याग्रह
नहीं कर सकता, और न ऐसी माँग के लिए कोई भगवा झंडा उठा सकता
है। यदि सती-प्रथा-अर्थात् जीवित स्त्रियों का मृतक पति के साथ जाय तो, मैं समझता हूँ, आज को स्त्रियाँ सौ साल पहले की अपनी
नगड़दादियों का अनुसरण करके उसे चुपचाप स्वीकार नहीं करेंगी, बल्कि वह सारे देश में खलबली मचा देंगी। फिर यदि जिंदा स्त्रियों को जलती
चिता पर बैठाने का प्रयत्न हुआ, तो पुरुष समाज को
लेने-के-देने पढ़ जायँगे। जिस तरह सती-प्रथा बार्बरिक तथा अन्याय मूलक होने के
कारण सदा के लिए ताक पर रख दी गई, उसी तरह स्त्री के उन्मुक्त-मार्ग
की जितनी बाधाएँ हैं, उन्हें एक-एक करके हटा फेंकना होगा।
स्त्रियों को भी माता-पिता की संपत्ति में दायभाग मिलना चाहिए, जब यह कानून पेश हुआ, तो सारे भारत के कट्टर-पंथी उसके खिलाफ उठ खड़े हुए। आश्चर्य तो यह है कि कितने ही उदार समझदार कहे जाने वाले व्यक्ति भी हल्ला-गुल्ला करने वालों के सहायक बन गये। अंत में मसौदे के खटाई में रख दिया गया। यह बात इसका प्रमाण है कि तथाकथित उदार पुरुष भी स्त्री के संबंध में कितने अनुदार हैं।
भारतीय स्त्रियाँ
अपना रास्ता निकाल रही हैं। आज वह सैकड़ों की संख्या में इंग्लैंड,
अमेरिका तथा दूसरे देशों में पढ़ने के लिए गई हुई हैं, और वह इस झूठे श्लोक को नहीं मानतीं -
''पिता रक्षति
कौमारे भर्त्ता रक्षति यौवने।
पुत्रस्तु स्थाविरे
भावे न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति।''
आज इंग्लैंड,
अमेरिका में पढ़ने गयीं कुमारियों की रक्षा करने के लिए कौन संरक्षक
भेजे गये हैं? आज स्त्री भी अपने आप अपनी रक्षा कर रही है,
जैसे पुरुष अपने आप अपनी रक्षा करता चला आया है। दूसरे देशों में स्त्री
के रास्ते की सारी रुकावटें धीरे-धीरे दूर होती गई हैं। उन देशों ने बहुत पहले
काम शुरू किया, हमने बहुत पीछे शुरू किया है, लेकिन संसार का प्रवाह हमारे साथ है। पूछा जा सकता है, इतिहास में तो कहीं स्त्री की साहस-यात्राओं का पता नहीं मिलता। यह अच्छा
तर्क है, स्त्री को पहले हाथ-पैर बाँधकर पटक दो और फिर उसके
बाद कहो कि इतिहास में तो साहसी यात्रिणियों का कहीं नाम नहीं आता। यदि इतिहास में
अभी तक साहस यात्रिणियों का उल्लेख नहीं आता, यदि पिछला
इतिहास उनके पक्ष में नहीं है, तो आज की तरुणी अपना नया
इतिहास बनायगी, अपने लिए नया रास्ता निकालेगी।
तरुणियों को अपना
मार्ग मुक्त करने में सफल होने के संबंध में अपनी शुभ कामना प्रकट करते हुए मैं
पुरुषों से कहूँगा - तुम टिटहरी की तरह पैर खड़ाकर आसमान को रोकने की कोशिश न करो।
तुम्हारे सामने पिछले पच्चीस सालों में जो महान परिवर्तन स्त्री-समाज में हुए
हैं,
वह पिछली शताब्दी के अंत के वर्षों में वाणी पर भी लाने लायक नहीं
थे। नारी की तीन पीढ़ियाँ क्रमश: बढ़ते-बढ़ते आधुनिक वातावरण में पहुँची हैं। यहाँ
उसका क्रम-विकास कैसा देखने में आता है? पहली पीढ़ी ने परदा
हटाया और पूजा-पाठ की पोथियों तक पहुँचने का साहस किया, दूसरी
पीढ़ी ने थोड़ी-थोड़ी आधुनिक शिक्षा दीक्षा आरंभ की, किंतु
अभी उसे कालेज में पड़ते हुए भी अपने सहपाठी पुरुष से समकक्षता करने का साहस नहीं
हुआ था। आज तरुणियों की तीसरी पीढ़ी बिलकुल तरुणों के समकक्ष बनने को तैयार है -
साधारण काम नहीं शासन-प्रबंध की बड़ी-बड़ी नौकरियों में भी अब वह जाने के लिए
तैयार है। तुम इस प्रवाह को रोक नहीं सकते। अधिक-से-अधिक अपनी पुत्रियों को आधुनिक
ज्ञान-विज्ञान से वंचित रख सकते हो, लेकिन पौत्री को कैसे
रोकोगे, जो कि तुम्हारे संसार से कूच करने के बाद आने वाली
है। हरेक आदमी पुत्र और पुत्री को ही कुछ वर्षों तक नियंत्रण में रख सकता है,
तीसरी पीढ़ी पर नियंत्रण करने वाला व्यक्ति अभी तक तो कहीं दिखायी
नहीं पड़ा। और चौथी पीढ़ी की बात ही क्या करनी, जब कि लोग
परदादा का नाम भी नहीं जानते, फिर उनके बनाए विधान कहाँ तक
नियंत्रण रख सकेंगे? दुनिया बदलती आई है, बदल रही है और हमारी आँखों के सामने भीषण परिवर्तन दिन-पर-दिन हो रहे हैं।
चट्टान से सिर टकराना बुद्धिमान का काम नहीं है। लड़कों के घुमक्कड़ बनने में तुम
बाधक होते रहे, लेकिन अब लड़के तुम्हारे हाथ में नहीं रहे।
लड़कियाँ भी वैसा ही करने जा रही हैं। उन्हें घुमक्कड़ बनने दो, उन्हें दुर्गम और बीहड़ रास्तों से भिन्न-भिन्न देशों में जाने दो।
लाठी लेकर रक्षा करने और पहरा देने से उनकी रक्षा नहीं हो सकती। वह सभी रक्षित
होंगी जब वह खुद अपनी रक्षा कर सकेगी। तुम्हारी नीति और आचार-नियम सभी दोहरे रहे
हैं - हाथी के दाँत खाने के और और दिखाने के और। अब समझदार मानव इस तरह के डबल
आचार-विचार का पालन नहीं कर सकता, यह तुम आँखों के सामने देख
रहे हो।
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साभार- हिंदी समय
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