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बुधवार, 2 जून 2010

महिलायें तो यही सब पढ़ती हैं

औरतों की दुनिया में किताब
· किरण पाण्डेय

कुछ लिखकर कुछ पढ़कर सो
तू जिस जगह सबेरे जागा
उससे आगे बढ़कर सो

भवानी प्रसाद मिश्र


ग्वालियर से बेंगलूर जा रही थी किसी स्टेशन पर गाडी रुकी तो एक पत्रिका वाला सामने से गुजरा। मैने किताबें देखना शुरू किया तो उसने फटाफट गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, सहेली फेमिना जैसी किताबें बढ़ाते हुए कहा कि मैडम महिलाओं की सारी किताबें मौज़ूद हैं। मुझे थोड़ा गुस्सा सा आया, मैने कहा, महिलाओं की मैगज़ीन से क्या मतलब? वह थोड़ा हड़बड़ाया फिर बोला, मैडम महिलायें तो यही सब पढ़ती हैं!

इसी तरह हमारे घर में अख़बार वाले ने कहा कि मैडम सर की तो बहुत सी मैगज़ीन आती हैं, आपके लिये भी कुछ दे दिया करुं…वैसे हमारे पास महिलाओं की सारी पत्रिकायें हैं। मुझे आश्चर्य भी हुआ और इन घटनाओं ने मुझे सोचने पर मज़बूर भी किया। मैने पाया कि वाकई मैने अक्सर महिलाओं को इन्हीं पत्रिकाओं को पढ़ते देखा है और जब कोई पुरुष भी किसी महिला के लिये पत्रिका लाता है तो वे इसी तरह की होती हैं। या फिर नयी पीढ़ी के हाथ में चेतन आनन्द जैसों के बाज़ारु उपन्यास। शायद समाज भी औरतों को इन्हीं पत्रिकाओं तक सीमित रखना चाहता है जहां घर-गृहस्थी और ब्यूटी टिप्स ही होती हैं। यह समाज का पुरुष प्रधान ढांचा बनाये रखने में पितृसत्तात्मक शक्तियों के लिये मुफ़ीद भी होता है, इसीलिये अख़बारों में पुरुषों के लिये तो राजनीति, देश-विदेश और समाज होता है वहीं महिलाओं के लिये व्यंजन बनाने की विधि, पति को खुश कैसे करें जैसे आलेख या फिर ब्यूटी टिप्स होती हैं।

जब भी हम महिलाओं के किसी समूह में होते हैं तो उनकी बातचीत का विषय भी अधिकतर साड़ी, गहने, फ़ैशन या किचेन से आगे नहीं बढ़ पाता या फिर एक-दूसरे की खिंचाई और घर-गृहस्थी की उलझने। घरेलु औरतों का तो यह व्यवहार फिर भी समझ आता है लेकिन कामकाजी औरतें भी कुछ ज़्यादा अलग नहीं होतीं। बस नौकरी का रुटीन काम और उसके बाद वही घर-गृहस्ती।

जबकि इसके ठीक विपरीत पुरुषों की प्रिय पत्रिकायें इण्डिया टुडे, आउटलुक, फ्रंटलाईन जैसी पत्रिकायें और समाचार आदि होतें हैं। उनकी सुबह चाय के साथ अख़बार से होती है जो उन्हें बीते हुए कल से और एक कदम आगे ले जाती है।

कहते हैं शिक्षा सबसे मूल्यवान धन है, सबसे करीबी दोस्त और ऐसी पूंजी जिसे कोई आपसे छीन नहीं सकता। जरा सोचिये क्या केवल डिग्री ले लेने से शिक्षा पूरी हो जाती है। नौकरी मिलने के बाद क्या पढ़ने की ज़रूरत ही ख़त्म हो गयी। ऐसा नही है मित्रों, शिक्षा आपके व्यक्तित्व का समग्र विकास करती। वैसे तो आबादी का अधिकतर हिस्सा नौकरी के बाद पढ़ाई को महत्व नहीं देता और इसमें हम औरतों की स्थिति और भी दयनीय है। हम सिर्फ़ चूल्हे-चौके तथा अन्य घरेलु कामों द्वारा कुशल गृहणी का ख़िताब जीतने की कोशिश करते हैं और इससे भी वक़्त मिला तो सुन्दर दिखने की होड़ में जी तोड़ लग जाते हैं।

कितना बुरा लगता है जब थोड़ा बड़ा होते ही बच्चा अपनी समस्याओं के लिये आपको मना कर देता है और कहता है कि, रहने दो आपको नहीं आयेगा पापा से ही पूछ लेता हूं। यदि थोड़ा सा ज़ोर दें तो सच्चाई ख़ुद समझ आयेगी। हमने वाकई पढ़ने का कभी सोचा ही नहीं। यदि अख़बार को हाथ में लिया भी तो लोकल न्यूज़ या फिल्मी गासिप को उलट-पुलट कर परे कर दिया। सम्पादकीय पन्ना तो कभी पढ़ने की कोशिश ही नहीं की, राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों से ख़ुद को हमेशा दूर रखा और यही सोचा कि यह हमारा क्षेत्र नहीं। नतीज़ा यह कि हम समाज से इतना कट जाते हैं कि जब कहीं इन मुद्दों पर बात भी हो तो हम सिर्फ़ मुंह देखते रह जाते हैं और हीन भावना से भरकर यही सोचते हैं कि काश हम भी इस बहस में शामिल हो पाते। वैसे समाज और शिक्षा व्यवस्था का ढांचा भी कुछ ऐसा है जो इन प्रवृतियों कि शुरु से बढ़ावा देता है। इसीलिये तो कक्षा पांच की किताब की तस्वीर में पिता अख़बार पढ़ रहे होते हैं, राजू खेल रहा होता है, मां खाना बना रही होती है और कमला पानी ला रही होती है और ग्रेज़ुएशन में लड़कियों के लिये एक अलग विषय ही होता है- गृह विज्ञान!

इन सबका नतीज़ा यह कि हमें अपने ऊपर आत्मविश्वास ही नहीं हो पाता। हमेशा किसी भी निर्णय के लिये हम परिवार या बाहर के पुरुषों पर ही निर्भर होते हैं। हमारी अपनी स्वतंत्र समझ या राय नहीं बन पाती। इसलिये अपने व्यक्तित्व के विकास के लिये ज़रूरी है कि हम समाज से कट कर नहीं बल्कि इसका हिस्सा बनकर रहें ताकि हम अपने निर्णय आत्मविश्वास के साथ ले सकें।

आज जब समाज में महिलायें हर क्षेत्र में काम कर रही हैं। समानता स्थापित करने के लिये जी तोड़ मेहनत कर रही हैं तो यह ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने मानसिक स्तर को भी समृद्ध करें। यह तभी संभव है कि हम अपनी रुचि का विस्तार घर-गृहस्थी से आगे देश, समाज, राजनीति, इतिहास, दर्शन, साहित्य और अन्य उच्चतर क्षेत्रों तक करें जिससे एक तरफ़ हम समाज को पूरी तरह समझ सकें और दूसरी तरफ़ अपनी वर्तमान स्थिति का भी सही आकलन कर सकें।

और मुझे बेहद ख़ुशी तब हुई जब मेरी ही एक सहयात्री एक स्टेशन पर उतरी और जब लौटी तो उसके हाथ में मेन्स्ट्रीम और हिन्दुस्तान टाईम्स के साथ एक ब्लैक काफ़ी थी। दुनिया बदल रही है- रफ़्तार भले धीमी हो। क्या हम इसमे शामिल नहीं होंगे?

17 टिप्‍पणियां:

  1. ये पत्रिकाएं महिलाओं को 'घरेलू' मानकर ही छापी जाती हैं। इनका देश दुनिया से कोई वास्ता नहीं होता।

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  2. सही विश्लेषण ..हम तो बदलाव का परचम थामने वालों में से हैं :-)

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  3. ...isiliye jab hamne daily news akhbaar se khushboo ka prakashan shuroo kiya to pahle hi din spasht kar diya ke mahilaon ke liye hone ke bawajood chand emotional baten kar achcr achatni ki galiyon mein gum hone wali patrika nahin hogiyah.hamne aaj ki stri se judi tamam chunoutiyon ko tarjeeh di aur yakeen maniye ki yah hamari khaam khayali hai ki mahilaon ko sirf yahi pasand hai.

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  4. हा हा हा...सही तो कह रहा है अखबार वाला. महिलायें यही तो पढ़ती हैं. किरण जी ये भी महिलाओं को उनके घेरे में समेट देने की साजिश ही है. मत जानो कि क्या हो रहा है दीन-दुनिया में. जानो कि कैसे खुश होता है पति. कैसे निभायें सास से. कैसे सजें-संवरें. उनके भय का कद कितना बड़ा है कि कहीं जो जान गईं स्त्रियां भी दीन दुनिया के बारे में तो क्या होगा उनका. मैंने अपनी एक स्टूडेंट से इस विषय पर प्रोजक्ट बनाने को कहा था. ऐसे-ऐसे वाकये सामने आये कि क्या कहूं. स्त्रियां का कुंद बुद्धि रहना सामंती सोच वाले इस समाज के लिए बहुत जरूरी है.
    खुशी है कि समय अब तेजी से बदल रहा है. बढिय़ा लिखा आपने. आपके लेख के नाम पर एक ब्लैक कॉफी...पक्की.

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  5. एक एक शब्द सच दर्शाता है ...पर ब्लैक काफी के साथ हिन्दुस्तान टाइम्स की संख्या बढती जा रही है :)

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  6. बात तो बिलकुल सही है...मेरा भी कुछ ऐसा ही अनुभव है...अगर अंग्रेजी की पत्रिका मांगें तब भी वे Femina और Savvy ही बढ़ा देते हैं. वे तो बेचारे अर्धशिक्षित किताबें बेचने वाले हैं एक बार ट्रेन में मुझे Golden Gate पढ़ते देख के MBA का एक छात्र विश्वास नहीं कर रहा था की मैं एक गृहणी हूँ.

    पर इसमें महिलाओं का भी क्या दोष...उन्हें कभी देश,समाज, राजनीति ..की बातों में शामिल ही नहीं करते...अगर ऐसी चर्चा घर मे होती रहेंगी तो माँ,बहन हो या बीवी..उन्हें कह दिया जाता है...जरा चाय बनाओ...नाश्ता लगाओ...कभी भी डिस्कशन में उन्हें शामिल नहीं किया जाता...तो रूचि कैसे जागेगी?...महिलाओं को ज्यादातर, घर के कामों से ही सरोकार होता है..इसलिए उसी से सम्बंधित सामग्री वे पढना चाहती हैं.
    हाँ, नौकरी वाली महिलायें भी इसी तरह की पत्रिकाएं पढ़ती हैं...पर वहाँ भी यही समस्या है...ऑफिस से बचा सारा समय घर की देखभाल में चला जाता है फिर वे थोड़ा रिलैक्स होने को हलकी फुलकी चीज़ पढना चाहती हैं.
    पुरुषों के पास इतना समय होता है कि वे हर तरह की चीज़ें पढ़ते हैं और फिर जब बार बार पढ़ते हैं और डिस्कस करते हैं तो रूचि भी स्वतः ही जागृत होती है. कोई मध्यमवर्गीय महिला सुबह सुबह पूरा अखबार पढने की सोच भी नहीं सकती...बस हेडलाईन देखने और कोई एक कॉलम पढने का समय मिल गया..तो बहुत है.
    फिर भी महिलाओं को खुद ही थोड़ा जागरूक होना पड़ेगा...और रूचि जागृत करनी पड़ेगी. तभी उनकी आवाज़ सुनी जा सकेगी.
    (और ये बुद्धिजीवी और ब्लैक कॉफ़ी के कॉम्बिनेशन का क्या मामला है :))

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  7. Duनिया बदल रही है- रफ़्तार भले धीमी हो।

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  8. दुनिया वाकई बदल रही है। इन पत्रिकाओं में कुछ भी नया नहीं होता। मेरे घर में इन पत्रिकाओं को आए कितने बरस बीते स्मरण नहीं।

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  9. कुछ लिखकर कुछ पढ़कर सो
    तू जिस जगह सबेरे जागा
    उससे आगे बढ़कर सो...

    इन पंक्तियों ने जान ले ली...बाकी तो है ही...

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  10. यही तो होता है की औरतों को उनके बचपन से ही केवल गृहविज्ञान पढ़ाया जाता .. उनका मनोविज्ञानं भी यदि साथ साथ पढ़ा जाता तो कुछ और ही दुनिया तैयार होती .आपने बहुत बारीकी से इस बात को उधेढ़ दिया .

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  11. यह सब साजिश है महिलाओं को पीछे धकेलने की। जो इन्हें समझती है उनके हाथ में ब्लैक काफी भी होती है और दीगर पत्रिकाएं भी।
    आपने बहुत ही अच्छा विषय लिया और लिखा भी बहुत ही शानदार। आपको बधाई।

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  12. एक ज़रूरी मुद्दा। जिस पर बहस होनी बहुत ज़रूरी है। आैर यह मुद्दा सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं है, सूचना प्राप्त करने के सभी माध्यमों पर तो महिलाआें के लिए एक जगह तय कर दी गई है।

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  13. Men and women, both are labor, Doctor, Engineer, Scientists, Politicians. Both the gender take equal interest in reading good periodicals.

    Reading doesn't depend on gender. It largely depends on individual's interest.

    In society women are considered as an inferior gender , hence the notion that they can read such books only.

    It is the ignorance of vendors and hawkers.

    Wiser lot of men is aware of the position women are holding. So no need to worry on that count.

    Divya

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  14. बहुत सही मुद्दे पर लिखा है। इस विषय पर मैंने
    इस पर मेरी मुझे स्त्रियों की कहे जाने वाली पत्रिकाएँ पसन्द नहीं
    नोटपैड बहना ,
    क्यों डराती हो इतना ?
    लिखा है। समय मिले तो पढ़िएगा।
    घुघूती बासूती

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  15. अच्छा आलेख है... पर जिस तरह सभी औरतें घरेलू पत्रिकाएं नहीं पढ़तीं उसी तरह सभी पुरुष आउट लुक, इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं नहीं पढते, वो क्या पढते हैं ये सभी जानते हैं ...क्योंकि पितृसत्ता स्त्री और पुरुष दोनों पर सामान रूप से असर डालती है.
    पर ये बात तो सही है कि अब ऐसी औरतों की संख्या बढ़ती जा रही है जो घरेलू किताबों की ओर देखती भी नहीं... ब्लॉग जगत इसका अच्छा उदाहरण है.

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  16. kiran ji, achcha aalekh he. aadmi aur aurat ka batwara sadiyon se he, darasal hamne hone diya. Ise badalne k liye apne apne star par dakhal ki jarurat he.

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  17. ek question hai ki - typecasting ki mahilayein aur purush kya padhte hein

    doosra hai ki - grih vigyan padhna politics padhne ke mukaable nimn kyon hai

    yahan bahas ne pahle question ko hi point kiya hai, aur kahin na kahin doosre question ko ulta establish kar dala hai

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