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शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

सोहन शर्मा जी को श्रद्धांजलि


कल बोधिसत्व भाई से ख़बर मिली कि सोहन शर्मा जी नहीं रहे।

मेरा उनसे कभी कोई व्यक्तिगत संबंध तो नहीं रहा, लेकिन एक पाठक के रूप में मै उन्हें वर्षों से जानता हूं। वह वरिष्ठ कहानीकार और प्रतिबद्ध लेखक थे। जनपक्ष परिवार की तरफ़ से उनको कामरेडाना श्रद्धांजलि और लाल सलाम।

यहां वेब पत्रिका आखर के नश्तर कालम के लिये लिखा उनका एक व्यंग्य साभार…


साठ के दशकं में मुंबई में कालबादेवी और भूलेश्र्वर का शुमार शहर के भीड़भाड़ भरे व्यस्ततम इलाको में होता था। लोग हंसी मजाक में कंहा करते थे किं दादर से लोकल ट्रेन या बस में चर्नी रोड तक तो आप अधिक से अधिक आधे घंटे में पहुंच सकते हैं। लेकिंन चर्नी रोड से कालबा देवी जाकर वापस लौटने में डे़ढ – दो घंटे तो लग ही जाएंगे क्योंकिं भूलेश्र्वर कालबादेवी में लोग चलते नहीं रेंगते हैं। सड़क पर चलते हुए कंधे से कंधा सटाए इस कदर रेलमपेल कि केले छिलने लगते हैं.

सड़क पार कर लेना तो कोई मोर्चा फतह कर लेने से कम बड़ी बात नहीं होती थी़. संकरी सड़कें, गलिया दोनों तरफ दुकानें और इन्हीं सबके बीच आती-जाती साइकलें मोटरें और सामान पहुंचाने वाले टेम्पो-सड़कें ही फ़ुटपाथ थी और फ़ुटपाथ ही सड़कें। भीड़ का सैलाब सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक। इसी फ़ैलाव के बीच कोटन एक्सचेंज की इमारत में लाखों के वारे न्यारे होते थे।

कंधे से कंधा छिलती वह भीड़भाड़ असुविधाजनक जरुर थी। पर तकलीफदेह नहीं। लोग शांति से बगैर किंसी शोरशराबे के अपने गंतव्य तक चले ही जाते थे। इसी बीच किंसी के पैर पर पैर पड़ गया तो वह ‘माफ कंरना भाई’ या ‘सॉरी मोटा भाई’ कंहकंर हाथ उठा देता। सामने वाला भी मुस्करा कर गर्दन हिलाते हुए आगे बढ जाता। किंसी को किंसी से कोई शिकायत नहीं थी।

न लोगों से, न वाहनों से और न नगर प्रशासन से। क्योंकिं कंालबादेवी -भूलेश्र्वर का वह क्षेत्र शहर का व्यावसायिकं मेनु था। व्यापारी बिरादरी शांति और सद्‌भावना से चलती है। सड़क के दोनों तरफ कंपड़ों के लटकते थान तथा बर्तन की दुकानों पर झुलती बाल्टियां आने-जाने वालों के ललाट से टकरा कर उनका इस्तकबाल करती। बीच की संकरी गलियों की पूरी- मिठाई की दुकानों से उठती महकं कुछ देर रुक कर स्वाद देने को ललचाती, कंई लोग पूरी मिठाई का स्वाद लेते फिर आगे बढ जाते। उस असुविधाजनक माहौल में भी एक सुख में आत्मीयता हुआ करती थी। वह आत्मीयता कमोबेश आज भी भुलेश्र्वर- कालबादेवी में मौजूद है।

हां, उन दिनों यदि धोबीतालाब या वी़ टी़ स्टेशन से आप किंसी टैक्सी वाले को कालबादेवी, भूलेश्र्वर चलने के लिए कहते तो वह जेब से पांच रुपये का नोट निकाल कर कहता – ‘बाबूजी! ये पांच रुपया आप मुझसे ले जाइये, लेकिंन मुझे उधर जाने को मत कहिए।’ फिर मुस्कराकर हाथ जोड़ देता। तो उस दौर में मुंबई याने उस समय की बंबई के टैक्सी वालों की इन्कार करने की यह अदा भी प्यारी लगती थी। टैक्सी वाले आज भी उस तरफ जाने से इन्कार कर देते हैं। लेकिंन उस प्यारी सी अदा की जगह अब टैक्सी वालों की नजरों में पैसेंजर के प्रति अपमानित करने वाली उपेक्षा और एक अजीब सी कचोटने वाली हिकारत होती है। एक ही शहर के बाशिंदे एक दूसरे की नजर में फालतू बन गये हैं।

उन दिनों शहर के भीड़भाड़ भरे क्षेत्र कालबादेवी-भूलेश्र्वर जैसे इक्का-दुक्का ही थे. अब तो दादर, बांद्रा, अंधेरी, मलाड़ और बोरीवली तक यह भीड़भाड़ पसर गयी है। उधर भायखला, परेल, वुᆬर्ला, मुलुंड और ठाणे तक वही भीड़भाड़। खास कर रेलवे स्टेशनों के बाहर और स्टेशनों के समीपवाले सिग्नल-चौराहों तक। आप इन स्टेशनों के पास ही किंसी बस्ती में रहते हैं तो स्टेशन तक पहुंचने के लिए आपको रास्ता ढुढनें में पसीना आ जाएगा। फ़ुटपाथ तो जैसे कंहीं हैं ही नहीं, फ़ुटपाथ के नाम पर सड़क के दोनों तरफ जो जगह होती है जो छोटे-छोटे स्टॉलों की लम्बी-लम्बी कतारों ने हथिया लिया है। जूतों से लेकर कमीज-पतलून और पेटीकोट से लेकर ट्रांजिस्टर तक ठुंसे भरे होते हैं इन स्टॉलों में फेरीवालों के स्टॉलों पर तालपतरी की झुकी-झुकी कंट, रुकं-रुकं चलना होगा। स्टॉल के साथ स्टूल पर बैठे दुकानदार पैर फ़ैलाए। वीडी, सिगरेट फ़ूंक रहे होते है. किसी दुकानदार के स्टूल से टकंरा गये तो वह तुरंत आपकी मां-बहन के साथ रिश्ता बनाने लग जाएगा। – ‘साला! उधर सड़कं पर क्यों नहीं चलता!’ आप दुकानदार को यदि यह समझाने के लिए रुकं गये किं फ़ुटपाथ तो पैदल चलने वालों के लिए ही है तो आसपास की स्टॉलों के लौत्ंडे-लपाड़े उठ आएंगे हाथापाई और खींचातानी में आपकी घड़ी या बटुआ गायब हो जाएगा़. आप मजबूरन सड़कं पर आ जाएंगे। वहीं बसों, टैक्सियों और ऑटो रिक्शा, किसी के साथ टकरा सकते हैं, कुचले भी जा सकंते हैं। किंसी तरह रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म तकं पहुंच गये तो समझिए कि कोई युद्ध जीत लिया।

शाम को तो स्थिति और भी बदतर होती है। आप थके-हारे काम से लौटे हैं। स्टेशन से बाहर निकंलने पर फ़ेरीवालों के स्टॉलों की वही बेहूदी, निर्मम, असभ्य और गंदी दुनिया आपके सामने होती है।

दिनभर में यहां की गंदगी और बेहूदगी कंई गुना ब़ध् गयी होती है। ‘फ़्रूट जूस’ ‘अस्सल मराठी वड़ा पाव’, ‘भजिया-समोसा’ और ‘इडली डोसा’ के स्टॉलों के पास दिनभर को जमा जूठन के ठेर से उठते बदबू के भमूके आपको झकंझोर देंगे़. बदबू से बचने के लिए आप थोड़ा तिरछा हो तो आपके पैर किंसी गड्‌डे में जा अटकेगा और गड्‌डे से निकंलते हुए किंसी स्टॉल वाले की पान की पीकं से आपकी कंमीज रंग-बिरंगी हो चुकी होगी।

हांफते-कंराहते आप हाइवे या चौड़ी सड़कं पर पहुंच गये़. गंदगी और बेहूदगी वहां भी पसरी मिलेगी। फ़ुटपाथ के नाम पर सड़कं के दोनों ओर का हिस्सा सार्वजनिकं मूत्रालय बना हुआ है़. फर्लांग भर तकं ट्रकं, निजी ट्रांसपोर्ट की बसें और कंचरा धेने वाली बड़ी-बड़ी गाड़ियां कंतारबद्ध खड़ी हैं। इस अनधिकृत ‘पार्विंᆬग प्लेस’ के सरपरस्त कौन हैं? बी़ एम़ सी़ का प्रशासन तंत्र और उसके आला अफसर! ट्रैफिकं विभाग के पदाधिकारी! भूआबंटन विभाग! स्थानीय नगरसेवकं! या इन क्षेत्रों से चुनाव जीत कंर विधानसभा और दिल्ली तकं अपना दबदबा बनाने वाले राजनेता-मंत्री! ये सबके सब या इनमें से कुछ! जनता जानती है किं विभिन्न प्रशासनिकं विभागों के पदाधिकारियों को अपनी जेबें भरने में दिलचस्पी है और राजनेताओं को जनता की मुसीबतों का ध्यान चुनाव के समय ही आता है। बाकी दिनों तो वे इधर फटकते भी नहीं।

हां, परप्रांतियों को खदेड़ने की हुंकार भरने वाले मराठी माणुसों के हितैषियों को भी इतनी फ़ुर्सत कंहा कि वे पैदल चलने वालों की असुविधाओं पर नजर डालें। कंहने को तो कंई जगह ‘सब वे’ हैं पर दुर्गंध से गंधाते हुए सब वे में भी फ़ेरीवाले पहुंच गये हैं। और जहां ‘जेबरा क्रांसिंग’ है वहां तो सड़कं पार कंरने के लिए भी दौड़ लगानी पड़ती है।

मुंबई में विभिन्न प्राधिकंरण अरबों रुपये की लागत से मेट्रो रेल, एक्सप्रेस व फ़्लाई ओवर बनाने में जुटे हैं। मुंबई को शंघाई बनाने की होड़ में लगे लोग ‘स्काई लिंकं’ पर फ़ूले नहीं समा रहे हैं। दर्जन भर ‘स्काई वाकं’ को योजनाओं को मंजूरी मिली हुई है पर फुटपाथ निर्माण तथा बने हुए पुᆬटपाथों पर पैदल चलने वाले सुविधाजनकं चल सकें इसकी चिंता किसी को नहीं है।

1 टिप्पणी:

  1. dukhad khabar hai.
    mai jab madhukar singh ki patrika is bar dekhta tha tb unke upnyas ka ansh chhapa tha. unhone bihar me vampanthi partiyon ki sthiti par apni patrika ke liey mujhse likhvaya tha. bihar ke chunav men byst hun. dekhta hun agar photo mila to jaroor bhejunga.

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