अरब परिघटना – सवाल सिर्फ़ तानाशाही का नहीं है
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पहले ‘उत्तरी अफ़्रीका के हांगकांग’ कहे जाने वाले ट्यूनीशिया और अब अरब क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवाद के सबसे विश्वस्त सहयोगी मिस्र में पिछले दिनों हुई घटनाओं ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। जहाँ ट्यूनीशिया के तानाशाह बेन अली को देश छोड़ कर भागना पड़ा, वहीं मिस्र में होस्नी मुबारक़ द्वारा मंत्रिमण्डल में व्यापक फेरबदल के बावज़ूद लाखों की जनता सड़कों पर है और वह मुबारक़ के सत्ता छोड़े जाने से पहले वापस लौटने के मूड में नहीं लग रही। इन लड़ाईयों ने अब निर्णायक रूप ले लिया है और स्थिति लगातार विस्फोटक बनी हुई है। दशकों से सत्ता में बने हुए इन शासकों के प्रति जनता का जबर्दस्त गुस्सा सिर्फ़ तानाशाही के प्रति नहीं है। पश्चिमी और पूंजीवादी मीडिया इस पूरी परिघटना को केवल ‘चुनाव आधारित लोकतंत्र के समर्थन में तानाशाही के ख़िलाफ़ जनाक्रोश’ के रूप में दिखाने का प्रयास कर रहा है। इसके पीछे उन जगहों पर पुराने शासकों की जगह अपने समर्थन वाले नये चेहरों को स्थापित करने की मंशा भी है कि जिससे वहाँ अमेरीकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवाद के हित सुरक्षित रह सकें। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस आक्रोश की जड़ें गहरी हैं और सीधे-सीधे नव उदारवादी नीतियों के उन घातक तथा विभाजनकारी परिणामों से जुड़ी हुई हैं जिनके स्पष्ट धब्बे हम अपने देश की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में भी देख सकते हैं।
वैसे तो इन दोनों देशों की स्थितियों में काफ़ी फ़र्क है, जहां मिस्र अरब जगत की सबसे अधिक जनसंख्या वाला सामरिक रूप से अत्यन्त महत्वपूर्ण देश है तथा सऊदी अरब व इज़राइल के साथ अरब में अमरीकी साम्राज्यवाद का मज़बूत स्तंभ है, वहीं ट्यूनीशिया फ्रांसीसी उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद भी फ्रांस के व्यापक प्रभाव वाला एक छोटा सा देश है, हालाँकि, अपनी नवउदारवादी व्यवस्था के कारण ट्यूनीशिया भी साम्राज्यवादियों का दुलारा था। लेकिन इन दोनों के बीच समानता का भी एक बिंदु है। वर्ष 2000 के आसपास ही इन दोनों देशों में विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष नियंत्रित नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू की गयीं और अगले कुछ वर्षों में इन नीतियों के परिणाम सतह पर दिखने लगे। ट्यूनीशिया के आंदोलन के दौरान वहां के अर्थशास्त्री स्ट्रास काह्न ने कहा, ‘ट्यूनीशिया की जनता अब ‘विश्व अर्थव्यवस्था की आज्ञाकारी शिष्य बन कर और नहीं रह सकती। इस प्रक्रिया ने उसे भूखों मार दिया है।’ दरअसल, इन दोनों देशों में इन नीतियों के लागू होने के बाद से ही आम जनता का जीवन बेहद मुश्किल होता गया है। 2006 से 2008 के बीच ट्यूनीशिया में मक्के, गेंहू और चावल की क़ीमतों में तीन गुने से भी अधिक की बढ़ोत्तरी हुई और इसी दौर में बेरोज़गारी में भी तीस फीसदी से अधिक की बढ़ोत्तरी देखी गयी। बात यहीं पर नहीं रुकी और 2010 के दिसम्बर तक अनाजों और शक्कर की क़ीमतों में और बत्तीस फीसदी की बढ़ोत्तरी हो गयी। जहाँ एक तरफ़ जनता मंहगाई और बेरोज़गारी के बोझ तले दबी जा रही थी वहीं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक वहाँ की सरकार पर खाद्य पदार्थों से सभी प्रकार की सब्सीडियाँ हटाने तथा व्यापार को और मुक्त करने के लिये दबाव बना रहे थे। मिस्र में भी वर्ष 2000 में लागू इन नीतियों के ऐसे ही परिणाम सामने आये। वहां ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़कर चालीस फ़ीसदी हो गयी, मंहगाई में भयावह वृद्धि हुई और बेरोज़गारी की दर अभूतपूर्व रूप से ऊंचे स्तर पर चली गयी। इन सबसे बेख़बर बेन अली और उसके पारिवारिक सद्स्यों सहित सत्ता वर्ग से जुड़े लोग दोनों हाथों से पैसे कमाने में लगे रहे। भ्रष्टाचार द्वारा सरकारी ख़ज़ाने का एक बड़ा हिस्सा इन लोगों ने अपनी तिजोरियों में भर लिया। इन सबका प्रतिरोध होना स्वाभाविक ही था। ट्यूनीशिया में वर्ष 2000 में ही हाई स्कूल के छात्रों ने एक बड़ा और देशव्यापी आंदोलन किया था, इसके ठीक बाद इराक़ युद्ध के विरोध में हज़ारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरे, 2002-2003 में दूसरा इंतिफ़ादा आंदोलन उभरा तथा 2008 में गफ़्सा में हड़तालें और प्रदर्शन हुए। हालांकि इन सबको बेन अली की फ्रांस समर्थित तानाशाही सरकार ने पुलिस तथा सेना के दम पर दबा दिया लेकिन इसके ठीक बाद जून 2010 में सिडी बोज़िड में एक छात्र मोहम्मद अल-बुआज़िज़ी ने बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ एक आंदोलन के दौरान आत्मदाह कर लिया और इसके बाद से ही आंदोलन पूरे ट्यूनिशिया में फैल गया तथा देश भर में हड़तालों, प्रदर्शनों तथा दमन का दौर शुरु हो गया जो जनवरी इंक़लाब की पूर्वपीठिका बनी और अंततः जनता बेन अली को देश बदर करने में सफल हुई। हालांकि यह भी सच है कि अभी भविष्य के ट्यूनीशिया की शक्ल साफ़ नहीं हुई है लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि जनता किसी एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ नहीं एक जनविरोधी व्यवस्था के ख़िलाफ़ सड़क पर आई थी और उसे ज्यादा दिन तक ख़ामोश नहीं रखा जा सकता।
मिस्र की स्थिति भी अलग नहीं है। देश के भीतर बढ़ती बेरोज़गारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार, ट्रेड यूनियनों पर प्रतिबंध, विपक्षी पार्टी बनाने पर अघोषित प्रतिबंध तथा अमरीका परस्त नीतियों के चलते लोगों में भारी आक्रोश था। हालिया परिघटना के पहले भी 2 अप्रैल, 2010 को पूरे मिस्र में लाखों लोग सड़कों पर उतर आये थे और उन्हें पुलिस तथा शासन के भयावह दमन के बाद ही शांत किया जा सका था। पिछले नवम्बर में चुनावों के नाम पर हुई नौटंकी के बाद से ही देश भर में गुस्सा खदबदा रहा था और ट्यूनीशिया की बग़ावत ने लोगों में वह हिम्मत भर दी कि पिछले कई दिनों से देश भर में लाखों प्रदर्शनकारी सड़कों पर हैं और अब सेना ने भी जनता के इस हिरावल दस्ते पर कोई दमनात्मक कारवाई करने से मना कर दिया है। राष्ट्रपति की सरकार में दिखावटी तब्दीली की तमाम कोशिशों के बावज़ूद जनता किसी समझौते के लिये तैयार नहीं।
मिस्र में न केवल इन नीतियों को अधांधुंध तरीके से लागू किया गया, बल्कि प्रतिरोध की हर आवाज़ को दबाने का भी प्रयास किया गया। वहाँ विपक्षी राजनीतिक पार्टियाँ बनाने के लिये राष्ट्रपति से लाईसेंस लेने को ज़रूरी बना दिया गया और इसके चलते सिर्फ़ वही लोग सक्रिय राजनीति में आगे आ पाये जो होस्नी मुबारक़ तथा अमेरीकी नीतियों के समर्थक थे। वहाँ के समाजवादियों और वामपंथियों को पार्टी बनाने की छूट नहीं दी गयी और इन संगठनों से जुड़े लोग सामाजिक संगठन बना कर भी बड़ी मुश्क़िल से ही काम कर पा रहे थे। नये औद्योगिक क्षेत्रों में ट्रेड यूनियन नहीं बनाने दिये गये और पुरानी जगहों पर जो ट्रेड यूनियनें हैं उन्हें भी एक सरकारी फेडरेशन के अधीन रखा गया है। ‘फ़ोर्थ इंटरनेशनल’ में ल्यूक स्टाबार्ट को दिये गये एक साक्षात्कार में वहाँ की भूमिगत कम्यूनिस्ट पार्टी के प्रवक्ता ने इन ट्रेड यूनियनों को ‘ मज़दूरों की पुलिस चौकी’ क़रार दिया। यही नहीं, 1956 में तत्कालीन राष्ट्रपति नासिर द्वारा ‘इजिप्टियन वीमेन्स यूनियन’ को भंग किये जाने के बाद से ही वहाँ महिलाओं के अपना संगठन बनाने पर पाबंदी है। यहाँ तक कि डाक्टर, शिक्षक, इंजीनियर जैसे प्रोफेशनल लोगों को भी अपना संगठन बनाने की छूट नहीं है। अपने अधिकारों की मांग उठाने वाले बीस हज़ार से अधिक लोग सींखचों के पीछे हैं तथा इनके साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया जाता है। ज़ाहिर है कि जब जनता की मुसीबतें हद से ग़ुज़र जाती है तो ऐसे सैलाब आते ही हैं। इस समय मिस्र में चल रहा आंदोलन ऐसा ही सैलाब है जिसे मुबारक़ और उनके अमेरीकी आका तिनकों से रोकने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी ही एक कोशिश के तहत उन्होंने बेहद बदनाम गृहमंत्री अबीब अल अदीली को हटाकर उनकी जगह एक पूर्व सैन्य जनरल तथा अमेरीकी पिट्ठू महमूद वागडी को लाकर की, लेकिन जनता इन छोटे-मोटे परिवर्तनों से नहीं मानने वाली। वह मुबारक़ की पूरी सत्ता और व्यवस्था का परिवर्तन चाहती है। कभी पूरी तरह सत्ता के दमन चक्र की साझीदार रही सेना भी अब आमजन पर गोली चलाने से इंकार कर रही है और तमाम पुराने न्याधीश तथा दूसरे अधिकारी जनता के पक्ष में सामने आये हैं। उपन्यासकार अला अल अस्वानी, कवि मेहमूद सहित तमाम लेखक जनता के आंदोलन के साथ हैं और वे न केवल तानाशाही बल्कि नव उदारवाद की कोख से निकली आर्थिक-व्यवस्था से छुटकारा चाहते हैं। ज़ाहिर है कि एक निष्पक्ष चुनाव-आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था इसका पहला कदम हो सकती है लेकिन इसकी मंज़िल तो एक समतावादी समाज की स्थापना ही होगी।
भारत में भी पिछले दो दशकों से लागू नव उदारवादी नीतियों के विषफल सामने आ गये हैं। कमरतोड़ मंहगाई, भूख, बेरोज़गारी, असमानता से जनता आज त्राहि-त्राहि कर रही है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद अब कोई अपवाद नहीं नियम बन गये हैं। राजनैतिक व्यवस्था के प्रति लोगों के बीच भयावह आक्रोश और मोहभंग की स्थिति है जिसका प्रस्फुटन समय-समय पर तमाम आंदोलनों के रूप में दिख ही रहा है। बिनायक सेन जैसे मसलों पर सत्ता के दमन चक्र की क्रूरता जिस तरह सामने आ रही है वह इस आक्रोश की आग में घी डालने वाली ही है। आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में यह सैलाब हिन्दुस्तान की सड़कों पर भी दिखाई दे। इतिहास अभी मरा नहीं है।
इतिहास कभी मरता है भला? जो ऐसा सोचते हैं वे मुगालते में हैं।
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है अशोक जी. हम तो उस दिन के इंतजार में बेसब्री से हैं जब हिंदुस्तान की सड़कों पर भी ऐसा ही सैलाब दिखाई दे.
जवाब देंहटाएंदोनों देशों का जनपक्ष सामने रखता ...एक सम्रध निष्पक्ष विशलेषण ...इतिहास से कोई कुछः नहीं सीखता...वो बार - बार दोहराया जाता है ... यह सैलाब क्रान्ति की और अग्रसर है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही विचारणीय लेख......... जरुरत है आज इनसे सबक ले कर कुछ करे हमारी भी सरकार............
जवाब देंहटाएंउत्तर मुबारक काल की अब शुरुआत है, मीडिया खासकर अल जजीरा का फ़ोकस अब मिस्र के बाद बहरीन और लीबिया हो गया है..सवाल पूछा जा रहा है, मुबारक के बाद कौन...इरान के सर्वोच्च मुल्लाह ने मिस्र के जागरण को इस्लामी जागरण बता कर एक नया रंग देने की कोशिश की है..जाहिर है उसकी आडियंन्स मिस्र नही वरन बहरीन और यमन है जहाँ शिया समुदाय सत्ता के नज़दीक है..सऊदी की नाक के नीचे मृतप्रयाय इरान बहरीन और यमन में शिया क्रांति करके न केवल अपनी दमनकारी व्यवस्था को संजीवनी देना चाहता है वरन अपने इसरायली और अमेरिका विरोधी जलवे का सिक्का सुन्नी बहुल अरब देशों में चलवाना चाहता है. मिस्र के जन विद्रोह से इतिहास को अभी बहुत से सबक सीखने है..यह प्रक्रिया अभी जारी है..अभी कई सतून गिरने हैं..अमेरिकी पिठ्ठुओं की व्यव्सथायें एक एक कर चरमरा रही हैं..और उसके सबसे बडे पिठ्ठु सऊदी शासकों का विकिट जब तक नहीं गिरेगी..साथ ही इरान में वन जन क्रांति जब तक मुक्कम्मिल नहीं होगी तब तक यह पूरा भूभाग जलता रहेगा. इसमें इस्लामी कट्टरपंथी ताकतें अपने दांत नये सिरे से दिखा सकती हैं जिससे सारे समीकरण बदल सकते हैं..इसराईल के पास कोई ५०० न्यूक्स हैं..जरा भी उसके अस्तित्व को खतरी होने पर एक बडे खतरे का अंदेशा यहां हमेशा बना रहेगा...
जवाब देंहटाएंमामला गंभीर है..अमरीकी विरोध..इस्लामी रुढिवाद को ताकत देगा जिसका फ़ासिस्ट स्वरुप इरान में देख ही रहे हैं..फ़िर हमस में देखा है..वे बहुत नज़दीक हैं लेबनान में..हिज्बोल्लाह के चलते..और बहरीन, यमन में उनके गुर्रे जनवाद का नाम लेकर सत्ता छीनने के लगभग पास हैं..क्या जनवादी शक्तियां इन खतरों से वाकिफ़ हैं??