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बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

भारतीय दर्शन परम्परा – बौद्ध दर्शन


'मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत' शीर्षक से लिखी जा रही लेख माला की यह पांचवी किस्त है. अब तक का लिखा आप यहाँ पढ़ सकते हैं. यह लेखमाला दिल्ली से डा ए के अरुण के सम्पादन में निकल रही पत्रिका 'युवा संवाद' में भी प्रकाशित हो रही है.





भारतीय दर्शन परम्परा – बौद्ध दर्शन


भारतीय दर्शन और इसकी प्रवृतियों पर हिन्दी-अंग्रेजी में अनेक महत्वूर्ण किताबें उपलब्ध हैं. इनमें के दामोदरन की ‘भारतीय चिंतन परम्परा’, डी पी चट्टोपाध्याय कि ‘लोकायत’ और ‘भारतीय दर्शन’, राहुल संकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन’, एम हिरियन्ना की ‘आउटलाइंस आफ इन्डियन फिलासफी’, श्रीनिवास सरदेसाई की भारतीय दर्शन वैचारिक और सामाजिक संघर्ष’ जैसी किताबें भारतीय दार्शनिक परम्परा की विभिन्न प्रवृतियों की जनोन्मुख तथा प्रगतिशील व्याख्या प्रस्तुत करती है. इस लेखमाला में भारतीय दर्शन पर बहुत विस्तार से बात कर पाना एक तो इसकी योजना के अनुरूप नहीं होता और दूसरा मेरे पास सैद्धांतिक स्तर पर कहने के लिए कुछ ऐसा नया नहीं है, जो इन किताबों में न हो. यहाँ इस विषय पर लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य हैं इस मिथक को खंडित करना कि भारतीय दर्शन परम्परा मूलतः और सारतः एक आध्यात्मिक परम्परा है. इसी अवधारणा से यह मिथक भी पैदा होता है कि मूलतः आध्यात्मिक होने के कारण भारतीय मानस के लिए मार्क्सवाद जैसी भौतिकवादी विचारधारा स्वीकार्य नहीं है. लेकिन जैसा कि हमने पिछले लेखों में देखा कि हमारे देश में बिलकुल आरम्भिक काल से ही वैदिक धर्म और ब्राह्मणवादी दर्शन के बरक्स भौतिकवादी धाराएँ विभिन्न रूपों में उपस्थित रही हैं और आगे हम देखेंगे चार्वाकों के बाद भी भारत में जो दार्शनिक धाराएँ विकसित हुईं उनमें से अनेक में  पर्याप्त भौतिकवादी तत्व थे.
वैसे सवाल यह भी है कि आध्यात्मिक कहे जाने वाली धार्मिक धाराएँ भी कितनी अ-भौतिकवादी या परलोकवादी हैं? आध्यात्मिकता के लिए अंग्रेजी में दो अनुवाद हैं- मेटाफिजिकल और स्प्रिचुअल, भारतीय आध्यात्मिकता दोनों से अलग अर्थों वाली हैं. प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा ने अपनी हालिया प्रकाशित ‘भारत की जनकथा’ में लिखा है – भारत का सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद है. वह भौतिक संस्कारों से सराबोर है. सारे देवता भौतिक शक्तियाँ हैं. सारा सुख-आनंद भौतिक है. हड़प्पा सभ्यता भौतिक सुख-समृद्धि-सत्ता के प्रेमी एक महान समाज का अवशेष प्रस्तुत करता है. रामायण-महाभारत भौतिक सुखों और प्रतिद्वंद्विता की कथाएं हैं. भारतीय समाज एक धार्मिक समाज दिखाई देता है. लेकिन धर्म अपने-आप में एक भौतिक परिघटना है. इसमें पराभौतिक तत्व बहुत थोड़े से हैं.[i] अगर वर्मा जी द्वारा दिए गए ऋग्वेद के सन्दर्भ में देखें तो उसकी सारी सूक्तियाँ भौतिक सुख-संपदाओं की प्राप्ति के लिए ही हैं, उदाहरणार्थ  –

इंद्र श्रेष्ठानि द्रविणानि धेहि चित्ति दक्षस्य सुभगत्वमसे
पोषं रयीणामरिष्टि तनूनां स्वाद्भानम वाचः सुदिन्त्वमह्नम

(अर्थात – हे देव! हमें श्रेष्ठतम निधियां प्रदान करें, हमें प्रतिभाशाली मष्तिष्क और सौभाग्य प्रदान करें, हमें धन और संपत्ति प्रदान करें, हमारे शरीरों को स्वास्थ्य प्रदान करें, हमें मधुर वाणी दें और हमारे दिन अच्छे करें).

बाद का एक और अत्यंत प्रचलित श्लोक कहता है – विद्या ददाति विनयं / विनयात याति पात्रताम/ पात्रत्वाद धन्माप्नोति/ धनात धर्मः, ततो सुखं, यानी विद्या से विनय, विनय से योग्यता, योग्यता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है! इसमें आध्यात्म या परलोक है कहाँ? जातियों का विभाजन, मानसिक तथा शारीरिक श्रम का विभाजन, राज्य जैसी संस्था का निर्माण और सम्राटों-सामंतों की समृद्धि के विवरण ‘भौतिक’ समृद्धि और उपलब्धियों के ही विवरण हैं. फिर इन सबके बावजूद भारतीय समाज को एक अध्यात्मिक समाज सिर्फ इसलिए कहना कि, यहाँ ब्राह्मणों का एक छोटा सा लेकिन विशेषाधिकार प्राप्त तबका धर्म और आध्यात्म के नाम पर देश के बड़े मेहनतकश तबके के मानसिक और शारीरिक श्रम को अपने तथा सत्ता के हित में शोषित करता रहा, असल में एक बौद्धिक फ्राड है. हम इसी लेख में देखेंगे कि किस तरह इस  कसौटी पर खरा उतरने वाला वेदान्त कालान्तर में भारत का सबसे प्रभावी दर्शन बना.
    
लोकायत के बाद की भारतीय दार्शनिक प्रणालियों में बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सांख्य प्रणाली, वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, योग प्रणाली, मीमांसा और वेदान्त प्रमुख हैं. बारहवीं शताब्दी के बाद भारत में इस्लाम और सत्रहवीं शताब्दी में ईसाई धर्म का भी प्रवेश होता है तथा बीसवीं सदी बीतते न बीतते एक दर्शन के रूप में समाजवाद ने बौद्धिक वर्ग को गहरे प्रभावित किया और धीरे-धीरे अपनी जगह भी बनाई. जैसा कि मैंने पहले भी कहा, इस लेखमाला में इन सभी पर विस्तार से लिख पाना न तो संभव है और न ही उसकी कोई ज़रुरत. यहाँ मैं बौद्ध दर्शन और फिर अगले तथा भारतीय दर्शन पर अंतिम अध्याय में वेदान्त पर थोड़ा विस्तार से बात करना चाहूंगा.
 
लोकायत के बाद बौद्ध दर्शन ने भारतीय जनमानस को सबसे अधिक उद्वेलित किया और वैदिक धर्म की चार वर्णों वाली व्यवस्था के समक्ष सबसे मज़बूत चुनौती पेश की. वैसे देखें तो छठी शताब्दी ईसापूर्व साडी दुनिया में बौद्धिक उद्वेलन का काल है. इस समय चीन में कन्फ्यूसियस ने एक ऐसे व्यवहारिक धर्म-दर्शन की रचना की जो आज तक चीन के दैनंदिन जीवन को संचालित करता है, ईरान में जोरोस्टर धर्म की पवित्र पुस्तक ज़िंदा अवेस्ता लिखी गयी. यूनान में पेरिक्लीज़ ने एक उन्नत सभ्यता की नींव रखी और भारत में बौद्ध तथा जैन धर्म-दर्शन का आविर्भाव हुआ.[ii]  एंगेल्स ने ‘लुडविग फायरबाख पर निबंध’ में इसे ‘महान ऐतिहासिक मोड़ों के साथ-साथ आये धार्मिक परिवर्तनों के वाहक विश्व धर्मों में इस्लाम और ईसाइयत के साथ शामिल किया है.

बौद्ध धर्म तथा इसके प्रणेता गौतम बुद्ध की कथाओं से हिंदी का समाज भली-भांति परिचित है. दुःख से परिचय के बाद उन्होंने इस जीवित जगत में ही इससे मुक्ति पाने का मार्ग दिखाया. इस मार्ग के आठ सूत्र थे – सम्यक विश्वास, सम्यक आकांक्षाएं, सम्यक भाषण, सम्यक आचरण, सम्यक जीवन यापन, सम्यक प्रयत्न, सम्यक मानसिक अवस्था और सम्यक ध्यान. बुद्ध की शिक्षाओं को एक पंक्ति में कहना हो तो वह यह है की माध्यम मार्ग पर चलते हुए अभिलाषाओं का अंत करना. लेकिन यहाँ दो बातें महत्वपूर्ण हैं और वही बुद्ध-दर्शन की दो महत्वपूर्ण निष्पतियाँ हैं – पहला यह की उन्होंने दुःख से मुक्ति की बात इसी जीवित जगत में की किसी अलौकिक या पारलौकिक जगत (स्वर्ग आदि) में नहीं और दूसरा उन्होंने यह सिद्धांत दिया कि इस दुख का कारण है, उस कारण के निवारण बिना दुःख से मुक्ति संभव नहीं. इस जगत में ऐसे समस्त कार्य-व्यापारों और वस्तुओं का कोई न कोई कारण होता है, हर घटना का किसी न किसी चीज से कार्य-कारण संबंध होता है. नया कभी भी पुराने की पुनरावृति या जारी रहना नहीं होता. पुराने का नए में रूपांतरण एक वस्तुगत आम नियम – कारण और प्रभाव के नियम- की क्रियाशीलता से होता है. इस आम नियम को, जो अनुभवसिद्ध अस्तित्व को संगठित करता और रूप देता है, बुद्ध कर्म का नियम कहते थे. यही बुद्ध-दर्शन का ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ है.

आप देखेंगे कि यह अनश्वर, अपरिवर्तनीय तथा शाश्वत वैदिक धर्म के सिद्धांत के सीधे खिलाफ खड़ा है. बौद्ध धर्म किसी भी मूलतः अपरिवर्तनशील और शाश्वत तत्व को, फिर वह पार्थिव हो या आध्यात्मिक, इस संसार का मूल कारण नहीं मानता. इस नजरिये से आप देखेंगे कि आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती. उन्होंने इसे ‘अनात्मवाद’ कहा. बुद्ध का दर्शन समस्त घटनाओं की क्षण भंगुरता पर विश्वास करता था. यह बिलकुल आरम्भिक स्तर का द्वन्द्वात्मक नज़रिया था. बुद्ध ने न केवल आत्मा और ईश्वर के अस्तित्व से इंकार किया बल्कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मणों, भुजा से क्षत्रियों, पेट से वैश्यों और पैरों से शूद्रों के पैदा होने जैसी मान्यताओं, वैदिक यज्ञों, पशुबलि, कर्मकांडों आदि का भी पुरजोर विरोध किया. उन्होंने जनता को सुनी-सुनाई ख्याली बातों पर आँख मूँद कर विश्वास करने की जगह उन्हें जांचने-परखने और विश्लेषण करने की सलाह दी.  ज़ाहिर है कि यह एक नास्तिक दर्शन था हालांकि इसे भौतिकवादी कहना सही नहीं होगा, क्योंकि ईश्वर और आत्मा के निषेध के बावजूद वह यह नहीं मानते थे कि जीवन-प्रक्रिया केवल शरीर में सीमित है, उनका कहना था कि वैयक्तिक चेतना मृत्यु के बाद भी ज़ारी रहती है.[iii]  दर्शन-दिग्दर्शन में राहुल सांकृत्यायन ने कोसल देशीय पायासी के उद्धरण से बताया है कि बुद्ध समझते थे कि भौतिकवाद उनके ब्रह्मचर्य और समाधि का भी विरोधी है. अगर मृत्यु के बाद के फल की चिंता लोग नहीं करेंगे तो ब्रह्मचर्यवास नहीं करेंगे. इसीलिए लोगों को इस ओर प्रवृत करने के लिए ज़रूरी है कि मृत्यु के बाद के अस्तित्व को स्वीकार किया जाय. इस प्रकार उन्होंने खुद को अनात्मवादी-अभौतिकवादी की श्रेणी में रखा.[iv]
लेकिन यह मान लेना त्रुटिपूर्ण होगा कि बुद्ध का दर्शन केवल राजमहल के अशेष सुख और उसके बाहर पसरे दुःख के एक सांयोगिक साक्षात्कार से पैदा हो गया. कोई भी दर्शन, कोई भी विचार शून्य में या किसी व्यक्तिगत सुख-दुःख-लालसा से नहीं उपजता, और अगर उपजा भी तो अपने समय में प्रभावी तो कतई नहीं होता. किसी भी दर्शन या विचार के उपजने के पीछे सामाजिक-आर्थिक कारण होते हैं और उस विचार की सफलता-असफलता में भी व्यक्तिगत कौशलों की तुलना में ये कारण अधिक महत्वपूर्ण होते हैं. बौद्ध दर्शन के सम्बंध में भी यही सच है. ज़ाहिर है कि यह वैदिक ब्राह्मण धर्म की तुलना में प्रगतिशील था और ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती देता था. बुद्ध के काल तक ब्राह्मणों का वर्चस्व काफी बढ़ गया था. कर्मकांड और अंधविश्वास इतने बढ़ गए थे कि आम मेहनतकश जानता इससे आक्रान्त थी. क्षत्रिय राजा भी ब्राह्मणों की इस बढती शक्ति से परेशान थे. व्यापार-वाणिज्य में प्रगति के साथ समृद्ध हुआ व्यापारी वर्ग भी अपनी सामाजिक स्थिति में उन्नयन चाहता था. चार्वाकों जैसे भौतिकवादियों ने ब्राह्मण पाखण्ड पर हमले तो किये, लेकिन वे इतने तीखे और व्यवस्था विरोधी थे कि शासकों के लिए उसे स्वीकारना पूरे सामंतवाद के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करना था, क्योंकि ब्राह्मण ही अपने पुनर्जन्म के सिद्धांतों तथा एक अविनाशी, शाश्वत ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देकर उनके शासन को सुरक्षित बनाते थे तथा चार वर्णों वाली व्यवस्था को कड़ाई से लागू करा शोषित जानता का वह बड़ा वर्ग तैयार करते थे जिसके शोषण के भरोसे सताधारियों की सुख-संपदा बनती तथा स्थाई होती थी. देखा जाय तो धन-संपदा के निरंतर संचयन और भोग-विलास के बढ़ते चलन में सत्ताधारी वर्ग खुद तो भौतिकवाद का ही पालन कर रहा था लेकिन शोषित जन को वह आध्यात्म और कर्मकांड में ही फंसाए रखना चाहता था जिससे कि वे इस स्थिति के प्रतिकार में खड़े न हों. ज़ाहिर है कि ऐसे में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को स्वीकार करने के अलावा कोई और चारा नहीं था. बौद्ध धर्म अपने अनात्मवादी-अभौतिकवादी रूप में ब्राह्मणों से त्रस्त समाज के लिए अधिक स्वीकारणीय था.
अपनी अंतर्वस्तु में बेहद क्रांतिकारी ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ के साथ जुड़े प्रतिसन्धि और कर्म के सिद्धांत सत्तावर्ग को निश्चिन्त करते थे. उन्होंने कर्म के उस सिद्धांत को मज़बूत किया कि तुम जैसा कर्म करोगे उसी के चलते अमीर-गरीब, सुख-दुःख जैसी स्थितियां तुम्हें मिलेंगी. इस तरह सृष्टि के लिए जो क्षणभंगुरता का नियम था वह सामाजिक जीवन के लिए लागू नहीं होता था. बुद्ध के दर्शन ने पारलौकिक जगत की अवैज्ञानिक व्याख्या पर तो तीखा हमला किया लेकिन लौकिक जगत के मामले में वे इस सुधारवाद से आगे नहीं बढ़ सके कि दुःख ब्रह्मण-अब्राह्मण सबको एक सामान होता है और उसे दूर करने का तरीका भी सभी के लिए एक है. सिद्धांत में मध्यमार्ग वास्तविक जगत में मध्य मार्ग नहीं था. यह सत्ताधारी वर्ग के हितों पर कोई कुठाराघात नहीं करता था. सामजिक-आर्थिक शोषण से उपजे भेदभाव को दूर करना उनके एजेंडे में नहीं था, वह सिर्फ आध्यात्मिक दुखों तक सीमित थे. इसीलिए जब ऋणग्रस्त लोगों ने या दासों ने अपनी मुक्ति के लिए बौद्ध संघों की शरण ली तो बुद्ध ने नियम बनाये कि ऋणी को संन्यास नहीं लेना चाहिए, दासों को संन्यास नहीं देना चाहिए. जब सैनिकों ने हिंसा की रह छोड़ बौद्ध धर्म अपनाने की पहल की तो चिंतित राजा बिम्बिसार की चिंता दूर करते हुए बुद्ध ने नियम बनाया कि राजसैनिकों को संन्यास नहीं देना चाहिए.[v] स्त्रियाँ तो खैर बुद्ध की दुनिया में दोयम दर्जे की नागरिक रही हीं.

इस तरह आरम्भिक दौर में समाज के दलित-शोषित वर्ग को आकर्षित करने वाला बौद्ध धर्म अपनी बेहद क्रांतिकारी अंतर्वस्तु के बावजूद सत्ता के दो बड़े केन्द्रों ब्राह्मणों और क्षत्रियों के द्वंद्व में एक केंद्र का हथियार बनकर रह गया. यह तत्कालीन दासता और दारिद्र्य को समझने और व्याख्यायित करने में तो सफल रहा लेकिन उसके लौकिक कारणों पर कोई मजबूत हमला करने में नहीं. इसीलिए यह राजाओं और महाजनों, व्यापारियों का प्रिय धर्म बना. कालान्तर में राज्याश्रय भी मिला और धीरे-धीरे समाज से कटकर गूह्य तंत्र-मन्त्र-साधनाओं के भंवर में ऐसा फंसा कि जब सम्राट अशोक के बाद ब्राह्मण धर्म के नए पैरोकार सामने आये तो इन वेदान्तियों के सैद्धांतिक हमलों के सामने बिलकुल भी टिक न सका और भारत से तो करीब-करीब यह समाप्त ही हो गया (शुरू में दी गयी किताबों के साथ डा शिव प्रसाद सिंह का उपन्यास ‘नीला चाँद’ परवर्ती बौद्ध धर्म की विकृतियों को समझने में बहुत सहायक हो सकता है). बहुत बाद में डा भीमराव अम्बेडकर ने जब हिन्दू धर्म की जातिव्यस्था के प्रतिरोध में इसे दलितों-शोषितों के धर्म के रूप में अपने जीवन के अंतिम वर्षों में चुना तो इसका एक पुनरुद्धार दिखा लेकिन वह भी किसी क्रांतिकारी परिवर्तन का वाहक न बन सका.   

    
       




[i] भारत की जनकथा, पेज-28, लाल बहादुर वर्मा, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
[ii] वही, पेज 100
[iii] भारतीय चिंतन परम्परा, के दामोदरन, पेज 120-124
[iv] दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल संकृत्यायन, पेज-402
[v] वही, पेज 26-27

5 टिप्‍पणियां:

  1. यह लेख आगे पढ़ने वालों के लिये एक प्रस्थान बिन्दु होने की आवश्यकता को पूरा करता है ।

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  2. संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित लेख ...इसे जारी रखें !

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  3. भारतीय दर्शन की भौतिकवादी विचार परम्‍परा को समझने की दृष्टि से अशोक कुमार पाण्‍डे की यह लेखमाला पठनीय है। उन्‍होंने इस संबंध में हुए विचार-विमर्श का समाहार करते हुए सार-संक्षेप में बौद्ध दर्शन की प्रमुख स्‍थापनाओं, उसकी पृष्‍ठभूमि, प्रभाव और परवर्ती काल में उभरी उसकी सीमाओं का अच्‍छा आकलन प्रस्‍तुत किया है। उनकी यह श्रृंखला भौतिकवादी दर्शन के विकास को समझने में निश्‍चय ही एक सार्थक कदम है। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  4. बड़ा ही सटीक विश्लेषण....आप का पठन-पाठन प्रतिबिंबित हो रहा है अशोक भाई ... जारी रखिये...हमें मुझ जैसे लोग जिनका ज्ञान सीमित है उनके लिए बड़ी अच्छी सामग्री तैयार हो रही है....प्रशंसनीय कार्य...

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  5. बड़ा ही सटीक विश्लेषण....आप का पठन-पाठन प्रतिबिंबित हो रहा है अशोक भाई ... जारी रखिये...हमें मुझ जैसे लोग जिनका ज्ञान सीमित है उनके लिए बड़ी अच्छी सामग्री तैयार हो रही है....प्रशंसनीय कार्य...

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