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रविवार, 1 सितंबर 2013

इस मुरदा-घर में उम्मीद की किरणें कहाँ से आएँगी?


(यह आलेख कुछ दिनों पहले 'स्त्री मुक्ति' पत्रिका के लिए लिखा गया था. लेख की मूल चिंता तमाम हालिया घटनाओं में वंचित तबके के किशोरों/पुरुषों की भागीदारी के आड़ में शोभा डे जैसे लोगों का महानगरों को बिहारी/उत्तर प्रदेशी/बंगलादेशी/मज़दूरों से खाली कराने के आह्वान के मद्देनज़र इसके मूल कारणों की तलाश है. आज यह आलेख आप सबके लिए)

चित्र यहाँ से साभार 




कुछ दिनों पहले कवि और प्रकाशक अरुण चन्द्र राय ने एक वाकया सुनाया. दिल्ली के पास एक फैक्ट्री के सर्वे के समय उन्हें कुछ किशोर वय के मज़दूर लडके मिले. फैक्ट्री में उनके काम करने के घंटे दस से बारह थे. सब यमुना पार की झुग्गियों में बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहते थे, बिहार और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों से आये इन किशोरों की औसत आय रोज़ के सौ रुपये के आस-पास थी. इनके पास मनोरंजन का न तो कोई साधन था न ही कोई समय. बस एक चीज़ थी. चाइना के सस्ते मोबाइल और उन सबके मोबाइल पर पोर्न क्लिप्स भरे हुए थे. काम के बीच में थककर बीड़ी-तम्बाकू पीते हुए वे इन क्लिप्स को देखा करते थे. अमूमन कड़ाई से काम कराने वाले मालिक और सुपरवाइजर इस बात पर कोई एतराज़ नहीं करते थे. पूछने पर उन्होंने बताया कि इस से रिफ्रेश होकर लड़के फिर पूरे जोश से काम करते हैं’ ! हाँ एक और चीज़ थी उनके पास काम के बाद रिलेक्स होने के लिए – ड्रग्स और शराब!

बहुत पहले कहीं परसाई जी को पढ़ा था जहाँ उन्होंने एक घटना बयान की थी जिसमें एक ऐसे जवान लड़के का वाकया बयान किया गया था जिसने किसी शो रूम के शीशे में लगे एक महिला के बुत को गुस्से में तोड़ डाला था और वज़ह पूछने पर बताया कि साली बहुत सुन्दर लगाती थी’! इन दो घटनाओं को जोड़कर देखते हुए पिछले दिनों देश के अलग-अलग इलाकों में हुई बलात्कार की घटनाएं जेहन में घूम गयीं. ऐसा नहीं कि बलात्कार की ये घटनाएं ग़रीब और वंचित लोगों द्वारा ही घटित हुईं लेकिन इन घटनाओं में इस वर्ग के लोगों की संलिप्तता भी अनेक बार पाई गयी.  इसलिए इन्हें थोडा अलग से और थोड़ा सबके साथ जोड़कर देखे जाने की ज़रुरत है.

थोड़ा पीछे जाकर देखें तो इस देश में योरप की तरह कभी कोई बड़ी सामाजिक क्रान्ति नहीं हुई. सामंती शासन व्यवस्था से सत्ता छीन कर जो औपनिवेशिक व्यवस्था यहाँ आई उसका मूल उद्देश्य अपने पितृदेश के लिए अधिकतम संभव मुनाफ़ा कमाना था. 1857 के बाद से तो अंग्रेज़ी शासन ने किसी सामाजिक सुधार की जगह पूरी तरह से यहाँ की उत्पीड़क सामाजिक संस्थाओं का दोहन अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया. यह समाज को धार्मिक तथा जातीय आधारों पर बाँटे रहने का सबसे मुफ़ीद तरीक़ा था. आप देखेंगे कि जहां पूरे योरप के साथ-साथ इंग्लैण्ड में उस दौर में सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवर्तनों की बयार चल रही थी, भारत में अंग्रेज़ी शासन के अंतर्गत ऐसी कोई बड़ी पहल इस दौर में संभव नहीं हुई. सती प्रथा विरोध जैसे जो कुछ समाज-सुधार आन्दोलन 1857 के पहले थे भी वे बाद के दौर में नहीं दीखते. सामाजिक संरचना पूरी तरह से सामंती मूल्य-मान्यताओं पर आधारित रही. देश में पूंजीवाद आया भी तो औपनिवेशिक शासक के हितों के अनुरूप कमज़ोर और बीमार. यह किसी सक्रिय क्रान्ति की उपज नहीं था जो अपने साथ सामाजिक संरचना को भी उथल-पुथल कर देती. दक्षिण में रामास्वामी पेरियार के नेतृत्व में और फिर फुले तथा अम्बेडकर के नेतृत्व में जातिगत भेदभाव विरोधी आन्दोलन चले भी लेकिन जेंडर को लेकर कोई बहुत मज़बूत पहल कहीं दिखाई नहीं दी. आप देखेंगे कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की मुख्यधारा में शामिल अधिकाँश लोगों के भाषणों, आचार-व्यवहार और नीतिगत निर्णयों में पितृसत्तात्मक तथा ब्राह्मणवादी नज़रिया साफ़-साफ़ झलकता है. कांग्रेस के सबसे प्रमुख नेताओं मोहनदास करमचंद गाँधी, बाल गंगाधर तिलक, राजेन्द्र प्रसाद से लेकर हिंदूवादी नेताओं जैसे मदन मोहन मालवीय तक में यह स्वर कभी अस्पष्ट तो कभी मुखर रूप से दिखाई देता है.  इस दौरान पनपे हिन्दू तथा मुस्लिम दक्षिणपंथी संगठनों में तो यह स्वाभाविक ही था कि महिलाओं को लेकर बेहद संकीर्ण दृष्टि अपनाई जाती. उदाहरण के लिए आर एस एस के दूसरे सरसंघचालक गोलवरकर आर्गेनाइज़र के 2 जनवरी 1961 के अंक के पेज़ 5 पर कहते हैं आजकल संकर प्रजाति के प्रयोग केवल जानवरों पर किये जाते हैं। लेकिन मानवों पर ऐसे प्रयोग करने की हिम्मत आज के तथाकथित आधुनिक विद्वानों में भी नहीं है। अगर कुछ लोगों में यह देखा भी जा रहा है तो यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग का नहीं अपितु दैहिक वासना का परिणाम है। आइये अब हम यह देखते हैं कि हमारे पुरखों ने इस क्षेत्र में क्या प्रयोग किये।मानव नस्लों को क्रास ब्रीडिंग द्वारा बेहतर बनाने के लिये उत्तर के नंबूदरी ब्राह्मणों को केरल में बसाया गया और एक नियम बनाया गया कि नंबूदरी परिवार का सबसे बड़ा लड़का केवल केरल की वैश्य, क्षत्रिय या शूद्र लड़की से शादी कर सकता है। एक और इससे भी अधिक साहसी नियम यह था कि किसी भी जाति की विवाहित महिला की पहली संतान नंबूदरी ब्राह्मण से होनी चाहिये और उसके बाद ही वह अपने पति से संतानोत्पति कर सकती है। आज इस प्रयोग को व्याभिचार कहा जायेगा, पर ऐसा नहीं है क्योंकि यह तो पहली संतान तक ही सीमित है.ब्राह्मणवाद और पितृसत्तात्मक सोच का इससे क्रूर उदाहरण क्या हो सकता है? फिर इस बात पर क्या आश्चर्य किया जाय कि ऐसे गुरु के शिष्य आज भी बलात्कार की वजूहात स्त्रियों के पहनावे से लेकर उनके आचार-व्यवहार, नौकरी और सौन्दर्य तक में तलाश करते हैं? खैर, इस तरह आज़ादी की पूरी लड़ाई मर्दों की लड़ाई बनी रही. औरतों की बेहद मानीखेज़ भागीदारी के बावजूद उनके मुद्दे हमारे नेतृत्वकारी निकाय के सामने कभी बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं रहे. नतीजतन सामाजिक संरचना मोटे तौर पर सामंती बनी रही और विद्यालयों से लेकर परिवारों तक में पितृसत्तात्मक मूल्य आदर्श की तरह स्थापित किये जाते रहे.

इसी के साथ उस दौर की औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों से जिस तरह आर्थिक और क्षेत्रीय विषमताओं में वृद्धि हुई वह आज़ादी के बाद भी बदस्तूर चलती रही. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, उडीसा जैसे पिछड़े क्षेत्रों के भयानक वंचना के शिकार लोग विस्थापित होकर महानगरों में आने को मज़बूर हुए जहाँ की चकाचौंध वे देख तो सकते थे लेकिन उसमें प्रवेश वर्जित था. इन महानगरों में उन्हें मिली नारकीय झुग्गी-झोपड़ियों की रिहाइश, अमानवीय रोज़गार स्थितियाँ और दोयम दर्जे की नागरिकता जहाँ उन्हें कोई भी अपमानित कर सकता था, प्रताड़ित कर सकता था. अपराधी मानसिकता के फलने-फूलने में ये परिस्थितियाँ कैसी भूमिका निभाती हैं इसे अस्सी के दशक में लिखे गए जगदम्बा प्रसाद दीक्षित के उपन्यास ‘मुरदा घर’ में तो हाल में आये अरविन्द अडिगा के उपन्यास ‘द व्हाईट टाइगर’ में देखा जा सकता है. नब्बे के दशक के बाद ये प्रक्रिया और बढ़ी. आर्थिक असमानता की खाई तो चौड़ी हुई ही साथ में सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो थोड़ी-बहुत इमदाद मिलती थी वह भी बंद हो गयी. आवारा पूंजी से भरे बाज़ार ने एक तरफ चकाचौंध को कई गुना बढ़ा दिया तो दूसरी तरह मज़दूरों को मिलने वाली सुरक्षा धीरे-धीरे ख़त्म की जाने लगी. खेती नष्ट हुई और गाँवों से रोज़गार की संभावनाएं भी. नतीजतन गाँवों और छोटे कस्बों से शहरों की तरफ पलायन बढ़ा और बड़ी संख्या में लोग उन्हीं परिस्थितियों में रहने और काम करने को मज़बूर हुए जिसका ज़िक्र मैंने पहले वाकये में किया है.     

इसके बरक्स दूसरी दुनिया में समृद्धि ही नहीं आई बल्कि पूरा सांस्कृतिक परिवेश भी बदल गया. उदाहरण के लिए फिल्मों को देखें. आदर्श वे कभी नहीं रहीं. लेकिन आवारा पूंजी के बेरोकटोक आगमन के बाद उनके चरित्र में बहुत बदलाव आया. अश्लीलता और नारी देह के कमोडीफिकेशन को एक मूल्य की तरह स्थापित किया गया. आइटम सांग के रूप में जिन बोलों के साथ बेहद अश्लील नृत्य प्रस्तुत किये जाते हैं उनकी लोकेशंस को जरा गौर से देखिये. अक्सर आपको वह पैसे लुटाते लोगों के सामने खुद को प्रस्तुत करती स्त्री का है. साथ में है भव्य विदेशी लोकेशंस पर उच्च-मध्यवर्गीय या फिर उच्च-वर्गीय जीवन का स्वप्नजगत जो ललचाता है, सपने जगाता है और सीख देता है कि पैसे से कुछ भी ख़रीदा जा सकता है और पैसे कमाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है. स्त्री यहाँ कोई सकर्मक रोल अदा करने की जगह एक ऐसे लक्ष्य की तरह है जिसे या तो पैसे या फिर ताक़त की तरह प्राप्त किया जा सकता है और उसे ऐसा बनाया जाता है मानों वह खुद को प्रस्तुत करने के लिए सदा तैयार है, बस पात्र के भीतर इन दोनों में से कोई एक योग्यता हो. याद कीजिए डियो का वह विज्ञापन जिसमें लडकियाँ बैगपाइपर के पीछे भागते चूहों की जगह ले लेती हैं. और इस सांकेतिकता के बरक्स अधिक फैला हुआ संसार है पोर्न फिल्मों और वीडियो क्लिप्स का. इंटरनेट ऐसी सामग्री से भरा पडा है. हमने उस वाकये में देखा कि किस तरह वह इस अशिक्षित, विस्थापित, वंचित और शोषित समूह के लिए अफीम का काम करता है. लेकिन यहाँ यह ध्यान देना ज़रूरी होगा कि ऐसा सिर्फ उनके साथ नहीं है. संपन्न घरों के मित्र और लक्ष्य विहीन बच्चों से लेकर बड़ों तक यह असर साफ़ दिखाई देता है. एक तरफ सामंती पारिवारिक संरचना जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है तो दूसरी तरफ ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जिसमें स्त्री को सिर्फ देह, वह भी किसी भी तरह पाई जा सकने वाली देह बनाकर पेश किया जाता है. यह सब मिलकर स्त्री के प्रति एक हिंसक मानसिकता को जन्म देता है जिसका परिणाम हम कभी खाप पंचायत के रूप में देखते हैं, कभी बलात्कारों के रूप में तो कभी कश्मीर से उत्तर पूर्व तक के ‘डिस्टर्ब’ क्षेत्रों में लोगों के आत्मसम्मान को कुचलने के लिए सैनिकों द्वारा महिलाओं पर किये गए अत्याचार के रूप में.  और इन सबके बीच होती है अपनी रोज़ाना की जद्दोजेहद में लगी औरत.  घर से निकलती हुई, अपने हकूक के लिए ही नहीं सर्वाइवल के लिए भी जद्दोजेहद करती, इस बाज़ार में अपने लिए काम तलाशती, इस थोड़ी सी आज़ादी को सेलीब्रेट करती और इस सारी प्रक्रिया में पुरुष के साथ प्रतियोगिता में उतरती तो घर के भीतर अपनी पारम्परिक भूमिका के साथ कभी एडजस्ट तो कभी विरोध करती तथा रोज़ ब रोज़ इस मानसिकता की आँखों में काँटा बनती!  मुक्ति की तलाश में नौकरी से लेकर प्रेम तक वह जहाँ भी जाती है उसे अक्सर इसी मानसिकता का सामना करना पड़ता है.

ज़रा उस वर्ग के लिहाज से इन सब चीजों को एक साथ रखकर देखें जिसपर मैं यह लेख केन्द्रित करना चाहता हूँ. एक तरफ़ निजी जीवन में सौन्दर्य का पूर्ण अभाव बल्कि कहें तो कुरूपता का वर्चस्व. गंदे घर, पहनने को अच्छे कपडे नहीं, कारखानों, होटलों, बंगलों और दुकानों में हाड़तोड़ मेहनत और अपमान वाला नारकीय जीवन, विस्थापन और दारिद्र्य तो दूसरी तरफ चारों ओर फ़िल्मों और विज्ञापनों के बिलबोर्डों पर बिखरा, उन्हीं कारखानों के मालिकों और बड़े कारकूनों के यहाँ दिखता, सड़क पर मंहगी कारों और दुकानों तथा होटलों में मुक्त भाव से पैसे लुटाता और घरों में ऐश्वर्य के सारे साधन जुटाता सौन्दर्य. इन सबके साथ मुक्तिदाता मनोरंजन के रूप में उपलब्ध पोर्न और नशा. क्या यह सब उस सौन्दर्य के प्रति नफरत पैदा कर देने के लिए काफ़ी नहीं? क्या यह सब उन्हें अमानवीय बना देने के लिए काफ़ी नहीं? इस अमानवीयता के परिणाम के रूप में उनका एक रूप बलात्कारी की तरह नज़र आता है तो इसमें आश्चर्य कैसा? अगर यह अमानवीयता मध्यवर्गीय निर्भया से लेकर उन्हीं झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली मासूम लड़कियों के साथ ऐसे अत्याचार के रूप में आ रहा है तो क्या सिर्फ दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देकर इस पर पाबंदी लगाई जा सकती है? ज़ाहिर है कि इसका इलाज़ पट्टियाँ और टहनियां कतरने में नहीं जड़ पर प्रहार करने में है. उन अमानवीय स्थितियों को दूर करने में है.

लेकिन दिक्कत यह है कि इनकी जड़ें बहुत गहरे इस व्यवस्था के समृद्ध और प्रभावी लोगों से जुडी हैं जिनके व्यापारिक तथा सांस्कृतिक हित नशे और पोर्न के व्यापार से तथा ऐसी फ़िल्मों और ग़ैरबराबरी की ऐसी व्यवस्था से जुड़े हैं. यह सब मिलकर उनके मुनाफ़े को बढ़ाते हैं तथा उनके वर्चस्व को बनाए रखते है. इसलिए वे कभी नहीं चाहेंगे कि इन जड़ों पर सवाल उठे. तो वे एक तरफ ज़ोर-शोर से ‘फांसी दो’ का उन्माद पैदा करते हैं तो दूसरी तरफ बिहारियों-उत्तर प्रदेशियों के ख़िलाफ़ इसे एक क्षेत्रीय मुद्दा बनाकर उन्हें निकाले जाने की मांग करते हैं. इस आड़ में वह मूल समस्या को तो धुंधला करते ही हैं साथ में अमीरजादों की ऐसी ही हरकतों या फिर परिवार के भीतर हो रही ऐसी घटनाओं पर भी पर्दा डालने की कोशिश करते हैं. बलात्कार कोई भी करे या किसी के साथ भी हो, एक भयावह रूप से संगीन घटना है और इसके अपराधी को सज़ा मिलनी चाहिए, इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है? लेकिन यह हद से हद फौरी उपाय हो सकता है. यह याद रखना होगा कि बलात्कार केवल एक यौन अपराध नहीं है. इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी हैं. इसीलिए इसका कोई भी दीर्घकालिक तथा स्थाई निराकरण समाज के भीतर से अमानवीकरण के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों तथा स्त्रीविरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता से एक फैसलाकुन जंग लड़े बिना मुमकिन नहीं है.    




24 टिप्‍पणियां:

  1. जितना समय ये किशोर उन क्लिप को देखने में लगाते हैं उतने समय में कुछ और भी कर सकते हैं नहीं करते क्यूँ क्युकी नारी शरीर , पोर्न से "रिफ्रेश " होना उनका अधिकार हैं।

    अरुण को कैसे पता उनके मोबाइल में पोर्न था , क्या उन्होने उनके मोबाइल चेक किये थे , क्या देखने बाद उन्होने पुलिस में कम्प्लेंट करना उचित नहीं समझा ? क्यूँ नहीं समझा ? ना बालिग़ के मोबाइल में पोर्न , या बालिग़ के मोबाइल में पोर्न होना अपराध हैं , इतनी सी बात नहीं पता अरुण राय को ??

    सौन्दर्य के पार्टी हिंसा बलात्कार करने का नया कारण , वाह , तारीफ़ करनी होगी आप सब बुद्धिजीवियों की जो केवल और केवल बलात्कार करने वाले को बचाने की सोचते हैं

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  2. "यह याद रखना होगा कि बलात्कार केवल एक यौन अपराध नहीं है. इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी हैं. इसीलिए इसका कोई भी दीर्घकालिक तथा स्थाई निराकरण समाज के भीतर से अमानवीकरण के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों तथा स्त्रीविरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता से एक फैसलाकुन जंग लड़े बिना मुमकिन नहीं है. "Ashok Kumar Pandey




    अशोक कुमार पाण्डेय ये और बता देते की कितने साल ये जंग लड़नी होगी।

    क्या आप को ये नहीं दिखता ये सब बच्चे इस दुनिया में कैसे आये हैं , कितनी विवाहित महिला यौन हिंसा और रोज बलात्कार का शिकार होती हैं और जिसका परिणाम ये बच्चे होते हैं। एक एक घर में ६ -६ बच्चे कैसे पैदा होते हैं जहां पुरुष काम ही नहीं करता हैं और रोज अपनी बीवी का बलात्कार करता हैं।

    सामाजिक सुधार कैसे होगा ?? पुरुष को रिफ्रेश होने के लिये स्त्री का शरीर कब तक सुलभ उपलब्ध होता रहेगा ??

    पूरे आलेख में कहीं भी स्त्री की बात , उसकी हां या ना और उसी उम्र की किशोर बच्चिया भी क्या किसी का रेप करती मिली हैं आप को कभी। नहीं वो तो घरो में मैड का , झाड़ू लगाने का , बेबी सिटींग का काम करती हैं ना तो उनके पास हैं और ना उनकी सैलरी उनको मिलती हैं।

    हर घर में एक भी या बाप हैं जो उनकी तनखा पर अधिकार रखता हैं और उन पर निगरानी भी। और उनकी माँ भी गाहे बगाहे इन बच्चियों की मार कुटाई इनके बाप भाई से करवा कर अपने कर्त्तव्य की इती समझती हैं


    बलात्कार स्त्री के प्रति सबसे बड़ी हिंसा हैं और बलात्कार इस लिये नहीं होते क्युकी समाज में कई क्लास हैं , बल्कि इस लिये होते हैं क्युकी पुरुष को अपनी सत्ता कयाम रखें का ये सबसे आसन तरीका लगता हैं।

    आप के आलेख स्त्री मुक्ति के लिये तो बिलकुल नहीं हैं हाँ उसकी आड़ में पुरुष को कुकर्म को एक आड़ देने की चेष्टा जरुर हैं।

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    1. रचना जी, लगता है आपने पहले से कुछ तय करने के बाद रिएक्ट किया है. वरना यह दिखता कि न तो मैं पितृसत्ता को डिफेंड कर रहा हूँ न ही किसी चीज़ को जस्टिफाई. यहाँ मुद्दा सिर्फ इतना था कि जो एक हल्ला मचाया जा रहा है कि तमाम केसेज में ग़रीब और वंचित वर्ग के लोग ऐसे अपराधों में मुब्तिला पाए जा रहे हैं, उसकी वजूहात की तलाश की कोशिश मैंने की थी. यह मैंने पहले ही पैरा में साफ़ किया जब यह लिखा कि 'इन दो घटनाओं को जोड़कर देखते हुए पिछले दिनों देश के अलग-अलग इलाकों में हुई बलात्कार की घटनाएं जेहन में घूम गयीं. ऐसा नहीं कि बलात्कार की ये घटनाएं ग़रीब और वंचित लोगों द्वारा ही घटित हुईं लेकिन इन घटनाओं में इस वर्ग के लोगों की संलिप्तता भी अनेक बार पाई गयी. इसलिए इन्हें थोडा अलग से और थोड़ा सबके साथ जोड़कर देखे जाने की ज़रुरत है.'

      तो यह अलग से देखा जाना है समग्र रूप से बलात्कार की समस्या की विवेचना नहीं.

      लेख आपने पढ़ा होता तो आपको पता होता कि स्त्री के प्रति इस हिंसा की शिनाख्त मैंने बार-बार की है. "एक तरफ सामंती पारिवारिक संरचना जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है तो दूसरी तरफ ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जिसमें स्त्री को सिर्फ देह, वह भी किसी भी तरह पाई जा सकने वाली देह बनाकर पेश किया जाता है. यह सब मिलकर स्त्री के प्रति एक हिंसक मानसिकता को जन्म देता है जिसका परिणाम हम कभी खाप पंचायत के रूप में देखते हैं, कभी बलात्कारों के रूप में तो कभी कश्मीर से उत्तर पूर्व तक के ‘डिस्टर्ब’ क्षेत्रों में लोगों के आत्मसम्मान को कुचलने के लिए सैनिकों द्वारा महिलाओं पर किये गए अत्याचार के रूप में. और इन सबके बीच होती है अपनी रोज़ाना की जद्दोजेहद में लगी औरत. घर से निकलती हुई, अपने हकूक के लिए ही नहीं सर्वाइवल के लिए भी जद्दोजेहद करती, इस बाज़ार में अपने लिए काम तलाशती, इस थोड़ी सी आज़ादी को सेलीब्रेट करती और इस सारी प्रक्रिया में पुरुष के साथ प्रतियोगिता में उतरती तो घर के भीतर अपनी पारम्परिक भूमिका के साथ कभी एडजस्ट तो कभी विरोध करती तथा रोज़ ब रोज़ इस मानसिकता की आँखों में काँटा बनती! मुक्ति की तलाश में नौकरी से लेकर प्रेम तक वह जहाँ भी जाती है उसे अक्सर इसी मानसिकता का सामना करना पड़ता है."

      और अंत में जो लिखा है वह वह है जिसके न होने की शिकायत आप कर रही हैं.

      " बलात्कार कोई भी करे या किसी के साथ भी हो, एक भयावह रूप से संगीन घटना है और इसके अपराधी को सज़ा मिलनी चाहिए, इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है? लेकिन यह हद से हद फौरी उपाय हो सकता है. यह याद रखना होगा कि बलात्कार केवल एक यौन अपराध नहीं है. इसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष भी हैं. इसीलिए इसका कोई भी दीर्घकालिक तथा स्थाई निराकरण समाज के भीतर से अमानवीकरण के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों तथा स्त्रीविरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता से एक फैसलाकुन जंग लड़े बिना मुमकिन नहीं है. "

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    2. जी एक दम सही , हिडेन अजेंडा की पोस्ट पर कमेन्ट करना मै तय कर के ही इस ब्लॉग जगत में आयी हूँ

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    3. ऐसी क्रान्तिधर्मिताएं अक्सर अधकचरे अतिउत्साह में तब्दील होती हैं..जिसके लिए उस पोस्ट/लेख को पढ़े जाने की भी ज़रुरत नहीं महसूस की जाती जिस पर बात की जा रही है..खैर

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    4. ऐसी क्रान्तिधर्मिताएं अक्सर अधकचरे अतिउत्साह में तब्दील होती हैं.

      एक दम सही कहा हैं आप ने , नारी का ज्ञान , नारी के तर्क , नारी की क्रांति हमेशा से पुरुष वर्ग को अधकचरी ही लगती हैं , मानसिकता आलेख में नहीं होती , मानसिकता कंडिशनिंग में होती हैं। गलती आप की नहीं हैं उस समाज की कंडिशनिंग की हैं जो पुरुष को ये नहीं सिखाता की हो सकता अब आप के इस तर्क के बाद कुछ कहना फिजूल हैं क्युकी आप ने मेरा पहला कमेन्ट पढ़ा ही नहीं जहां प्रश्न था की बच्चे पैदा कैसे होते है जहां आर्थिक रूप से कमजोर परिवार हैं ??

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    5. यह सोचना भी एकदम ग़लत है कि निम्नवर्गीय परिवारों में ही पारिवारिक हिन्सा और पैट्रियार्की है और बाक़ी समाज इससे मुक्त है। यही वह सोच है जिसके भरोसे शोभा डे जैसे लोग शहरों को ग़रीब गुर्बा से ख़ाली करने की मांग करते हैं। शोभा भी महिला हैं, आसाराम के समर्थन में भी बहुत सी महिलाएं हैं, मेरे लिए महिला होने भर से कोई जेण्डर प्रश्न पर सही नज़रिये वाला नहीं हो जाता। वर्ग का सवाल किनारे कर के इस परिघटना पर की गई कोई भी बात अधकचरी ही हो सकती है।

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    6. यह सोचना भी एकदम ग़लत है कि निम्नवर्गीय परिवारों में ही पारिवारिक हिन्सा और पैट्रियार्की है और बाक़ी समाज इससे मुक्त है।

      ये मेने नहीं आप ने कहा हैं और मेने इस बात पर ही आपत्ति दर्ज की हैं।
      रेप हर वर्ग में होते हैं इस लिये रेप को क्लास से जोड़ना ही गलत हैं।
      महिला अंध भक्त हैं क्युकी उनको शुरू से धर्म से जोड़ दिया जाता हैं वही पुरुष को करियर के लिये प्रेरित किया जाता हैं
      जेंडर पर प्रश्न और नज़रिया जब भी महिला रखती हैं उसको नारीवादी कह कर अलग धारा से जोड़ कर एक नया वर्ग तैयार कर दिया जाता हैं और फिर उनकी बातो को अधकचरा कहने की सोच कोई नयी हैं ही नहीं
      तर्क को तर्क से कांटे या जोड़े तभी बहस हो सकती हैं लेकिन अगर आप के पास तराजू हैं जिसमे आप मेरे ज्ञान को तोल कर उसको कचरा कहना चाहते तो ये आप की अपनी सोच हैं

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    7. फिर तो बहुत साफ़ है कि आपने यह लेख पढ़ा नहीं सिर्फ देखा है वरना यह ज़रूर पढ़ा होता...

      " हमने उस वाकये में देखा कि किस तरह वह इस अशिक्षित, विस्थापित, वंचित और शोषित समूह के लिए अफीम का काम करता है. लेकिन यहाँ यह ध्यान देना ज़रूरी होगा कि ऐसा सिर्फ उनके साथ नहीं है. संपन्न घरों के मित्र और लक्ष्य विहीन बच्चों से लेकर बड़ों तक यह असर साफ़ दिखाई देता है. एक तरफ सामंती पारिवारिक संरचना जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है तो दूसरी तरफ ऐसा सांस्कृतिक परिवेश जिसमें स्त्री को सिर्फ देह, वह भी किसी भी तरह पाई जा सकने वाली देह बनाकर पेश किया जाता है. यह सब मिलकर स्त्री के प्रति एक हिंसक मानसिकता को जन्म देता है जिसका परिणाम हम कभी खाप पंचायत के रूप में देखते हैं, कभी बलात्कारों के रूप में तो कभी कश्मीर से उत्तर पूर्व तक के ‘डिस्टर्ब’ क्षेत्रों में लोगों के आत्मसम्मान को कुचलने के लिए सैनिकों द्वारा महिलाओं पर किये गए अत्याचार के रूप में. और इन सबके बीच होती है अपनी रोज़ाना की जद्दोजेहद में लगी औरत. घर से निकलती हुई, अपने हकूक के लिए ही नहीं सर्वाइवल के लिए भी जद्दोजेहद करती, इस बाज़ार में अपने लिए काम तलाशती, इस थोड़ी सी आज़ादी को सेलीब्रेट करती और इस सारी प्रक्रिया में पुरुष के साथ प्रतियोगिता में उतरती तो घर के भीतर अपनी पारम्परिक भूमिका के साथ कभी एडजस्ट तो कभी विरोध करती तथा रोज़ ब रोज़ इस मानसिकता की आँखों में काँटा बनती! मुक्ति की तलाश में नौकरी से लेकर प्रेम तक वह जहाँ भी जाती है उसे अक्सर इसी मानसिकता का सामना करना पड़ता है."

      "तो वे एक तरफ ज़ोर-शोर से ‘फांसी दो’ का उन्माद पैदा करते हैं तो दूसरी तरफ बिहारियों-उत्तर प्रदेशियों के ख़िलाफ़ इसे एक क्षेत्रीय मुद्दा बनाकर उन्हें निकाले जाने की मांग करते हैं. इस आड़ में वह मूल समस्या को तो धुंधला करते ही हैं साथ में अमीरजादों की ऐसी ही हरकतों या फिर परिवार के भीतर हो रही ऐसी घटनाओं पर भी पर्दा डालने की कोशिश करते हैं."

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    8. सब पढ़ा हैं जो सही हैं उसको सही वो ठीक हैं प्रतिक्रिया उस पर दी जाती हैं जो गलत हैं , बलात्कार का कारण हैं पुरुष का महिला पर हावी होना। आप जिन बातो को कह रहे उनमे वो तथ्य कहां हैं जिसमे एक पिता अपनी पुत्री से बलात्कार करता हैं। एक बेटा माँ से , ससुर बहु से , जीजा साली से और वीभत्स दादा / नाना अपनी नातिन / पोती से और इस सब के लिये कारण सिर्फ एक हैं की नारी का शरीर पुरुष को "रिफ्रेश " करने के लिया बना हैं। बड़े बड़े शब्दों में छोटी सी बात कहीं खो जाती हैं।

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    9. आप लोगो ये लिंक जरुर पढना चाहिये ताकि आप लोग धरातल से जुड़ कर बलात्कार क्यूँ होते हैं समझ सके


      http://timesofindia.indiatimes.com/city/jaipur/Father-rapes-3-year-old-after-wife-refuses-sex-girl-critical/articleshow/21967595.cms?intenttarget=no

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    10. आप यह सिद्ध करने के लिए इतनी मेहनत क्यों कर रही हैं कि आपने सच में लेख का एक शब्द भी गौर से नहीं पढ़ा है? वरना शुरू में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह लेख एक ख़ास सवाल का जवाब देने के लिए है जिसका ज़िक्र इंट्रो में ही स्पष्ट है.

      "यह आलेख कुछ दिनों पहले 'स्त्री मुक्ति' पत्रिका के लिए लिखा गया था. लेख की मूल चिंता तमाम हालिया घटनाओं में वंचित तबके के किशोरों/पुरुषों की भागीदारी के आड़ में शोभा डे जैसे लोगों का महानगरों को बिहारी/उत्तर प्रदेशी/बंगलादेशी/मज़दूरों से खाली कराने के आह्वान के मद्देनज़र इसके मूल कारणों की तलाश है. आज यह आलेख आप सबके लिए)"

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    11. शोभा जी वाले मसले को मैने इस लिये इग्नोर करना सही समझा अन्यथा आप कहते महिला होने के नाते मे बोली जबकि जिस प्रकार से आप उनके बारे में बात करते है या जिस प्रकार से आप मुझे बार बार अधकचरा कह रहे हैं साफ़ झलकता हैं की आप को पढ़ी लिखी तर्क करती नारी " सही " नहीं लगती। आशा हैं वो लिंक पढ़ा होगा जो मैने दिया था। कमेन्ट देने में कोई मेह्नत नहीं लगती हैं हाँ अब आप की खिजलाहट जरुर दिख रही हैं जिस से हंसी आ रही हैं

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    12. मैं क्या कहता इसकी कल्पना से आप नहीं बोलीं :) मजेदार है

      हाँ, असल मुद्दा वही था जिस पर आपने बोलना ज़रूरी नहीं समझा.ज़ाहिर है आप मुद्दे पर बात करने आई ही नहीं हैं. और हाँ, आपकी भाषा बता रही है कि कोई गंभीर लेख पढने की क्षमता का भी अभाव है आप में. तो जाने दीजिये. आप हंस लीजिये..वह कुंठित होने से बेहतर आप्शन है.

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    13. वह कुंठित होने से बेहतर आप्शन है

      exactly now your true colors are showing , you dont want to discuss rape you want to discuss woman who say something because for you such woman are कुंठित

      this is what i have always highlighted and will keep doing so

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    14. कुंठा is not something reserved for male only. You have shown the real face of yours during this discussion. You are here just to achieve some attention by mud slinging. Neither you have taken any pain to read this article nor you have even seen the intro which clearly sets the limit and scope for this.

      you may keep on what you want to. I just give a damn to it

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  3. इससे तो वैसे ही मानसिकता का पता चलता है. कट्टरता नासमझी से पैदा होती है प्रतिबद्धता समझ से. किन्तु कट्टरता तो यहाँ भी दिख रही है. जो पहले ही अपनी विचारधारा को एक विशेष धारा से जोड़ ले तो वह भी तो कट्टर हुआ न.

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - सोमवार -02/09/2013 को
    मैंने तो अपनी भाषा को प्यार किया है - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः11 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra




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  5. यह एक संजीदा बहसतलब लेख है. रचना ने बहस की सार्थक शुरुआत कर दी है .
    बलात्कार की हालिया घटनाओं के पीछे प्राथमिक कारण क्या है ? नव-उदारवादी बाज़ार की अश्लीलता और क्रूरता , जैसा अशोक कहते हैं ? या , पुरुष द्वारा अपने सत्ता कायम रखने का आसान तरीका, जिसे सशक्त होती स्त्री से नयी चुनौती मिलने लगी है ? जैसा कि रचना का इशारा है ?
    बलात्कार के खिलाफ संघर्ष को सही दिशा में आगे बढाने के लिए लिए ये जरूरी सवाल है .
    पूंजीवाद और पितृसत्ता दोनों के खिलाफ साथ साथ लड़ाई की जरूरत है - ऐसा कहना इस बहस से छुट्टी पा लेने का सब से आसान तरीका है .लेकिन इतना काफी नहीं है .
    एक तो बलात्कार का इतिहास नव-उदारवाद से बहुत अधिक पुराना है . दूसरे बलात्कार पितृसत्ता को बनाए रखने का सब से आसान तरीका हो , ऐसा भी नहीं कहा जा सकता . पितृसत्ता बलप्रयोग से ज़्यादा स्वैच्छिक संस्कारों द्वारा नियंत्रण पर अधिक भरोसा करती है . एक तरफ यह सच है कि हर पोर्नदर्शक बलात्कारी नहीं होता, दूसरी तरफ यह भी जरूरी नहीं है कि हर बलात्कारी पितृसत्तावादी ही हो .
    इन सवालों पर गाढ़ी बहस होनी चाहिए .

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    1. बिल्कुल सहमत हूँ आशुतोष जी,
      आपने बहुत कम शब्दों में वो बात कह दी जो मैं कहना चाहता था।ये मामला इतना सीधा है नहीं जितना हम समझ लेते हैं।

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    2. बिल्कुल सहमत हूँ आशुतोष जी,
      आपने बहुत कम शब्दों में वो बात कह दी जो मैं कहना चाहता था।ये मामला इतना सीधा है नहीं जितना हम समझ लेते हैं।

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    3. आशुतोष जी, जो उत्तर ऊपर मूल प्रश्नकर्ता को दिया गया है, उसे देखें

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  6. मैं आपकी पोस्ट को समय की कमी के कारण पूरा नही पढ़ पाया पर जितना पढ़ा मुझे बहुत ही अच्छा लगा............

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