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शनिवार, 21 सितंबर 2013

अनंतमूर्ति का बयान और उसके विरोधों के निहितार्थ

फासीवाद की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि वह अफवाह फैलाता है. जैसा कि संघ परिवार ने मेरे साथ किया. एक कन्नड़ अखबार है 'कन्नड़ प्रबाह' जिसने मेरे बारे में अफवाहें और गन्दी चीजें प्रकाशित कीं. ऐसी चीजें कि मुझे मर जाना चाहिए. यही हिटलर के समय में हुआ था. मेरा शोध इसी पर है. 
अनंतमूर्ति, एक साक्षात्कार में 




वरिष्ठ कन्नड़ लेखक अनंतमूर्ति के  बयान के बाद सोशल मीडिया सहित तमाम जगहों पर बवाल मचा है . ज़ाहिर है कि मोदी को लकड़ी के लाल किले से असली वाले लाल किले तक पहुँचाने की कोशिश में लगे संघ गिरोह और उसके समर्थकों को यह बुरा लगता. ज़ाहिर है कि वे उन्हें देश से चले जाने की सलाहें देने भर से संतुष्ट नहीं होते और उनकी ह्त्या तक की बात करते, लेकिन जो लोग मोदी के समर्थक नहीं हैं वे भी इस बयान से खासे नाराज़ ही नहीं नज़र आ रहे बल्कि उन्हें भगोड़ा और कायर भी कह रहे हैं. रवीश कुमार जैसे समझदार और उदार समझे जाने वाले पत्रकार भी इस मुद्दे पर जिस तरह ‘जनमत’ के नाम पर उनके प्रति अपमानजनक टिप्पणियाँ कर रहे हैं वह सच में हैरान करने वाला है. यहाँ यह भी समझने की ज़रुरत है कि उनकी प्रयुक्त शब्दावली थी, 'आई डीड ना वांट टू लिव इन अ कंट्री रुल्ड बाई मोदी'. लिव रहना ही नहीं होता, जीना भी होता है. उन्होंने कहीं विदेश जाने की बात नहीं की हैं. वह कह रहे हैं कि ऐसे देश में वह जीना नहीं चाहेंगे जिसका प्रधानमंत्री मोदी हो. वह कह रहे हैं कि वह इस धक्के से मर जाएँगे. (मूल बयान यहाँ पढ़ा जा सकता है)

 फिर भी चलिए मान लेते हैं कि वह विदेश जाने की ही बात कर रहे हैं. तो भी एक अस्सी साल के लेखक के प्रति जिस तरह की असहिष्णुता दिखाई जा रही है, वह यह तो बिलकुल साफ़ करती है कि कम से कम भारत में लेखकों को लेकर न्यूनतम सम्मान वाली स्थिति भी नहीं है, वरना शायद इस शोरगुल का एक हिस्सा अनंतमूर्ति की उस चिंता के लिए भी होता जो उस वक्तव्य में उन्होंने एक फासिस्ट सरकार आने की दशा में भारत के सेकुलर और सहिष्णु ताने बाने को लेकर जताई है. एक ऐसे देश में जहाँ मध्यवर्ग का सबसे बड़ा सपना अपने बच्चों या मुमकिन हो तो खुद अपने लिए अमेरिका या किसी अन्य पश्चिमी देश में एक अदद नौकरी हासिल कर लेना हो, मोदी जिस प्रदेश से आते हैं वहां तो अमेरिका और कनाडा जाने के लिए क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तरीक़े अपनाना एकदम रोजमर्रा की बात है, एक ऐसे देश में जहाँ ‘इम्पोर्टेड’ अब भी एक पवित्र शब्द हो वहां एक लेखक के इस बयान पर इतना शोर! 



न जाने क्यों मुझे ऐसे में गुजरात के उस मुसलमान युवक की याद आ रही है जिसका दंगाइयों के सामने हाथ जोड़े फ़ोटो उस दौर में गुजरात दंगों की त्रासदी का प्रतीक बन गया था. वह गुजरात से कोलकाता चला गया था! एक प्रोफ़ेसर बंदूकवाला थे जो एक नयी और आधुनिक रिहाइश में अपने हिन्दू दोस्तों के बीच रहने चले आये थे उन दंगों के पहले और फिर उन्हें वहाँ दंगों के दौरान इतना परेशान किया गया कि वह लौटकर पुरानी मुस्लिम बस्ती में चले गए. विभाजन के समय यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आये लोगों का क़िस्सा तो पुराना हुआ अभी मुजफ्फरनग
र दंगों के बाद कितने लोग अपना गाँव छोड़कर किसी और सुरक्षित ठिकाने पर चले गए! देश न छोड़ सके तो देस छुडा दिया गया. हिटलर के राज में , जिससे अनंतमूर्ति सहित तमाम लोग नरेंद्र मोदी की तुलना करते हैं,  ब्रेख्त सहित कितने लोगों को देश छोड़ना पड़ा और सी आई ए ने किस तरह चार्ली चैपलिन को देश छोड़ने पर मज़बूर किया ये किस्से इतने भी पुराने नहीं (चाहें तो इसमें सोवियत संघ से देश छोड़ने वाले, कश्मीर से देश छोड़ने वाले, पाकिस्तान और इरान से देश छोड़ने वाले, फलस्तीन से देश छोड़ने वाले तमाम जाने अनजाने लोगों को जोड़ लें, मैं बख्श किसी को नहीं रहा, सिर्फ उदाहरणों की भीड़ लगाने की जगह प्रतिनिधि उदाहरण प्रस्तुत कर दे रहा हूँ). क्या कहेंगे आप इन सब लोगों को? भगोड़ा? कायर? देशद्रोही? कह लीजिये कि अभी आप ऐसे हालात से नहीं गुज़रे.

अनंतमूर्ति . कर्नाटक में रहकर कन्नड़ में लिखते हैं. उस कर्नाटक में जहाँ दक्षिणी राज्यों में पहली बार बी जे पी सत्ता में आई और श्रीराम सेने के उत्पातों के रूप में शिवसेना और बजरंग दल के उत्पातों का प्रयोग हुआ. जहाँ उनका मशहूर उपन्यास ‘संस्कारम’ लगातार विवाद में रहा. जो उन्हें जानते हैं वह शायद यह भी जानते होंगे कि एक लेखक की तरह सिर्फ लिखकर ही नहीं एक कार्यकर्ता की तरह सड़क पर आकर भी उन्होंने साम्प्रदायिक शक्तियों की मुखालिफत की. इमरजेंसी के खिलाफ स्टैंड लिया. चौरासी के दंगों पर तीखी प्रतिक्रिया दी और २००४ का लोकसभा चुनाव इस घोषणा के साथ लड़ने का मन बनाया कि वह ‘ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ने के मुख्य वैचारिक उद्देश्य से ही चुनाव लड़ रहे हैं’. यही नहीं उन्होंने चुनाव में देवेगौडा का दिया टिकट तब ठुकरा दिया जब देवेगौड़ा ने बीजेपी के साथ समझौता कर लिया. वह वामपंथी भी नहीं हैं. लोग जानते ही हैं कि बेंगलोर को बेंगलुरु नाम देने के आन्दोलन में वह बेहद सक्रीय रहे हैं. असल में वह एक ओर ब्राह्मणवादी संस्कारों और विचारों के कट्टर विरोधी रहे हैं तो साथ में देशज आधुनिकता के समर्थक हैं. इस रूप में वह शब्दवीर भर नहीं कि उन्हें शोशेबाज़ी का शौक हो. वह सक्रिय राजनैतिक लेखक रहे हैं जिन्होंने ऐसी ताक़तों के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ी है. वह राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, शान्तावेरी गोपाल गौड़ा जैसे समाजवादी नेताओं के साथ नजदीकी से जुड़े रहे हैं.  ऐसे में अगर वह मोदी के आने के बाद देश छोड़ने की बात कह रहे हैं तो उसे समझा जाना चाहिए. एक सक्रिय वयोवृद्ध लेखक  यह कह भर नहीं रहे हैं, यह कहते हुए कर्नाटक में ‘धुंडी’ पर लगे प्रतिबंध और उसके लेखक योगेश मास्टर की गिरफ्तारी के खिलाफ सक्रिय हैं. तो यह पलायन नहीं है. इस उम्र में वह अपने शरीर और अपने हौसलों की सीमा जानते हैं. वह जानते हैं कि देश में साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथ में ताक़त आने के बाद उन जैसे लेखकों के विरोध का अधिकार किस तरह छीना जाने वाला है. उम्र भर जिन ताक़तों के ख़िलाफ़ एक लेखक खड़ा रहा उनके ताक़तवर होते जाने से एक हताशा भी पैदा होती है, निराशा भी, खीझ भी. बहुत दिन नहीं हुए जब मराठी के ख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर ने कहा था कि 'मेरे पास पिस्तौल हो तो मैं सबसे पहले मोदी को गोली मार दूँगा'. यह कोई हिंसक कोशिश नहीं थी, एक लेखक की हताशा थी. इस हताशा में हत्याएं तो नहीं लेकिन तमाम लेखकों की आत्महत्याएं हमने देखी हैं.

इस इंटरव्यू के बाद उठे विवाद की रौशनी में दिए गए एक इंटरव्यू में वह कहते हैं,
मैं नेहरू और इंदिरा के प्रति आलोचनात्मक हो गया. मैं आपातकाल के खिलाफ़ था. इसके लिए मेरी आलोचना हुई मुझे ऐसे गालियाँ कभी नहीं दी गयीं जैसी आज दी जा रही हैं. इस आदमी के पीछे कारपोरेट जगत की ताकत है और अधिकाँश मीडिया की भी. और इसके सभी प्रसंशक एक साहित्यिक आदमी की टिप्पणी से परेशान हो गए. आखिरकार मैं वही हूँ, एक लेखक. . यहाँ तक कि मैं अंग्रेजी में भी नहीं लिखता. यह दिखाता है कि साहित्य में अब भी ताक़त है. जब एक सर्वसत्तावादी सत्ता में आता है तो जो आज चुप हैं वे और चुप हो जायेंगे. इसलिए मैं एक ऐसी दुनिया में नहीं रहना चाहता जहाँ मोदी प्रधानमंत्री हो. गौर कीजिए वह यहाँ ‘देश’ नहीं ‘दुनिया’ कह रहे हैं. साहित्य की भाषा से परिचित लोग जानते हैं कि दुनिया का मतलब वह दुनिया ही नहीं होता जिसका राजा आज अमेरिका है. दुनिया भावभूमि के रूप में प्रयुक्त होती है, जैसे लेखकों की दुनिया, कवियों की दुनिया, कलाकारों की दुनिया. तो देश भी सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं होता, वह मानसिक और वैचारिक निर्मिति भी होता है. इस भारत कहे जाने वाले भौगोलिक देश में एक मोदी की दुनिया रहती है जहाँ विरोध के लिए कोई जगह नहीं, जहाँ सहिष्णुता कोई जीवन मूल्य नहीं, जहाँ संविधान की कोई क़ीमत नहीं, जहाँ लेखक का पर्यायवाची चारण है. चाहें तो दो साल पहले हुए गुजरात साहित्य अकादमी के उर्दू कवि के साथ व्यवहार को याद कर लें. चाहें तो सरूप ध्रुव जैसी गुजराती लेखिका से पूछ लें. जो होशियार हैं वे चुप हैं, आहिस्ता आहिस्ता जबानें बदल रहे हैं जो नहीं हैं वे अनंतमूर्ति की तरह साफ़ बोल रहे हैं और गालियाँ सुन रहे हैं. उनकी दिक्कत यह है कि वह अपनी वैचारिक नागरिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी भौगोलिक नागरिकता त्यागनी पड़े.

लेकिन लोग इसे समझना नहीं चाहते. वे अस्सी साल के लेखक से, जो आज भी सड़क पर खड़ा है अपने एक साथी की किताब पर प्रतिबंध लगाए जाने के ख़िलाफ़, ‘वीरता’ के उच्चतम मानदंडों की उम्मीद करते हैं लेकिन ख़ुद उसकी चिंताओं पर सोचने को भी तैयार नहीं. वे उन हालात को रोकने के लिए लड़ाई में उतरने को तैयार नहीं. उनके पास अनंतमूर्ति को देने के लिए यह आश्वासन नहीं कि आपको कहीं नहीं जाना पड़ेगा, हम हिटलर के इस अवतार को सत्ता में आने ही नहीं देंगे. वे उनके ‘पलायन’ को प्रश्नांकित करते हैं और इस तरह उनके संघर्षों और उनकी चिंताओं को परदे के पीछे भेज दिए जाने में मदद करते हैं. मुझे डर है कि वे अपनी भौगोलिक नागरिकता बचाने के लिए अपनी वैचारिक नागरिकता त्यागने की तैयारियाँ मुकम्मिल करने में लगे हैं. अगर नहीं तो उन्हें समझना चाहिए कि यह एक लेखक की कातर पुकार नहीं चुनौती है अपने नागरिकों के प्रति.

15 टिप्‍पणियां:

  1. after writing on facebook wall i read ur article suggested by oyr friend bit agree with ur idea

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  2. after writing on facebook's wall i read ur article send by our friend bit agree with ur analysis ...

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  3. मेरे ख़याल से तो अनन्‍तमूर्ति जी का बयान ऐसा कोई समझ में न आने वाला बयान नहीं है। वह मोदी द्वारा शासित देश की बात कर रहे हैं। देश यानी भूगोल भर नहीं, संस्‍कृति, सामाजिक मानसिकता आदि भी होता है। अस्‍सी वर्ष की उम्र में वे कहां जाएंगे, यह मानसिक निर्वासन भर होगा जो उनके लिए हज़ारों के लिए हो सकता है। इस बयान का लोग विरोध कर रहे हैं, यह आश्‍चर्य का विषय है। और अभी घटनाएं भविष्‍य में घटित होनी हैं, वे जिस तरह सोचा जाने लगा है उसी अफ़सोसनाक ढंग से घटित हों, ये ज़रूरी तो नहीं। अच्‍छा लेख है अशोक। अनिवार्य।

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  4. "सौ बार इस फरार से बेहतर है खुदकशी,
    क्या गुलिस्ताँ को छोड़ दें बिजली के डर से हम !"
    हम लड़ेंगे, साथी!
    उनके नापाक मंसूबे ध्वस्त होने तक
    या अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक हम लड़ेंगे...
    न तो अनन्तमूर्ति कहीं जायेंगे और
    न ही हम सभी मैदान-ए-जंग से भागने जा रहे हैं....
    यह मुल्क हमारा है, हम सब का है....
    इसे हम उनको अपनी चारागाह नहीं बनाने देंगे...
    जीतता वही है, जो लड़ता है...

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  5. "सौ बार इस फरार से बेहतर है खुदकशी,
    क्या गुलिस्ताँ को छोड़ दें बिजली के डर से हम !"
    हम लड़ेंगे, साथी!
    उनके नापाक मंसूबे ध्वस्त होने तक
    या अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक हम लड़ेंगे...
    न तो अनन्तमूर्ति कहीं जायेंगे और
    न ही हम सभी मैदान-ए-जंग से भागने जा रहे हैं....
    यह मुल्क हमारा है, हम सब का है....
    इसे हम उनको अपनी चारागाह नहीं बनाने देंगे...
    जीतता वही है, जो लड़ता है... http://ppsfin.blogspot.in/2013/09/ashok-kumar-pandey_21.html

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  6. एक सार्थक हस्तक्षेप के लिए शुक्रिया | इस लेख से काफी बाते साफ़ हुयी हैं | जाहिर है , कि कई तरह के वर्जनो ने ऐसी स्थिति पैदा की | मैंने उनका उपन्यास 'संस्कार' पढ़ा है , और मैं समझ सकता हूँ कि इसे लिखने वाला लेखक इस बात से कितना आहात होगा , कि देश की कमान मोदी जैसे लोगों के हाथों में जाए | संस्कार लिखे के बाद उनके ऊपर किस तरह से हमले हुए , मैं यह भी जानता हूँ | लेकिन फिर भी मेरा यही कहना रहेगा , कि यह देश पहले से ही धर्मनिरपेक्ष देश है , और सिर्फ संविधान के स्तर पर ही नहीं , वरन आम सामान्य जनता के स्तर पर भी ..| इसलिए वह उस मानसिक देश में तो कत्तई नहीं रहना चाहेगा , जिसमें मोदी जैसे लोग शाशन करते हों | हां ...वह इस भौगोलिक दुनिया से पलायन भी नहीं करेगा , और ऐसे लोगों का डटकर मुकबला करेगा | ....

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  7. Dear Ashok

    Very timely and important intervention.
    In solidarity
    subhash gatade

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  8. आपने यह तो बताया है कि वे कम्युनिस्ट नहीं हैं. देवेगौड़ा की पार्टी का टिकट ठुकरा दिया था. भाजपा के खिलाफ लड़ चुके हैं लेकिन यह क्यों नहीं बताया कि वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं.
    यह छिपाना तथ्यों को छुपाना है. अनंतमूर्ति जी के इस बयान को एक लेखक के बयान के साथ-साथ एक कांग्रेस राजनीतिज्ञ के बयान की तरह भी देखा जाना चाहिए. जिसे आप छिपाकर उनका बचाव कर रहे हैं.
    आपका विश्लेषण सही है. वे फासीवाद की आहट पा रहे हैं. सबको मिल रही है लेकिन इस तथ्य को छिपाकर एक तरह से कांग्रेस का बचाव किया जा रहा है और बात का वितंडा बनाया जा रहा है.

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    उत्तर
    1. मेरी सूचना का स्रोत हाल फिलहाल विकीपीडिया है जहाँ कांग्रेस से लड़ने के बारे में कोई सूचना नहीं है.

      http://en.wikipedia.org/wiki/U._R._Ananthamurthy

      मैं अन्य स्रोतों से कन्फर्म करता हूँ.

      हटाएं
  9. आप ग़लत कह रहे हैं रमाकांत राय जी. ढूंढते हुए हिन्दू की यह खबर मिली जो आपके कहे को ग़लत साबित करती हैं

    http://www.hindu.com/2004/03/16/stories/2004031614930500.htm

    Ananthamurthy awaiting Congress's response to his offer

    By Our Staff Reporter

    BANGALOE, MARCH 15. The Jnanpith Award winner, U.R. Ananthamurthy, who recently volunteered to contest in the Lok Sabha elections from Bangalore South against the Bharatiya Janata Party if the Janata Dal (S) and the Congress support his candidature, has said that he is awaiting the response from the Congress as its "opinion is very valid as it is a national party".

    Responding to the reported response of the former Prime Minister, H.D. Deve Gowda, to his offer, Dr. Murthy told The Hindu here today that his desire to contest for the elections was a "principled and ideological" one. He was considering the response of the Janata Dal (S). Thanking Mr. Deve Gowda for his "graceful response", Dr. Ananthamurthy said that he would talk to him as the dialogue was not closed.

    Clarifying his ideological position, he said that he would always stand for a nation with diversities and not with the Savarkar kind of Hindutva nationalism.

    His prime ideological objective in opting to contest the elections was to fight the BJP, he added.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनंत मूर्ति का सम्मान करते हुए अर्ज करना चाहूँगा कि उन्होने एक बार राज्यसभा के लिए भरपूर प्रयास किया था। फिर किसी कारणवश वह किसी ..... के हाथ लग गया। कहानी लंबी है। अब इसका प्रमाण आप मांगेगे । महोदय हर चीज का प्रमाण प्रस्तुत करना मुश्किल होता है। अपने रोज़मर्रा के जीवन मे हमारा सामना ऐसी घटनाओं से होता भी है। पर प्रमाण कहा रखते हैं।? डीलिंग मे प्रमाण नहीं चलता । रघुकुल रीति सदा चली आई .... बंधु यहाँ वचन ही काफी है। हाँ किसी को पसंद करना न करना व्यक्तिगत मामला है। इसे वहीं तक सीमित रखें। नैतिकता से न जोड़ा जाय ।

      हटाएं
    2. लगता है बंधू इस खबर के गोपनीय होने को लेकर आप कुछ ज्यादा आश्वस्त हैं. जबकि यह खबर अनंतमूर्ति को जान्ने वाला हर कोई जानता है. द हिन्दू के पुराने पन्ने पलटने पर सारी कहानी मिल जायेगी. हाँ, वह राज्यसभा चुनाव लड़ना चाहते थे. तो? जिस प्रदेश से वह आते हैं वहां से विजय माल्या राज्यसभा में आ चुके हैं तो आप चाहते हैं कि राज्यसभा/लोकसभा गुंडों/धनपतियों के हाथ में तो रहे लेकिन एक लेखक अगर वहां पहुँच कर अपनी आवाज़ बुलंद करना चाहे तो आपको दिक्कत है? मैंने जानबूझकर यहाँ न वह तथ्य दिया था न ही यह बताया था कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कितनी इज्जत है और उन्होंने कितने सम्मान हासिल किये हैं. दोनों गैरज़रूरी लगे थे. मेरा तो मानना है कि उनका जो क़द है उसके अनुसार सरकार को उन्हें राज्यसभा में मनोनीत करना चाहिए.

      हटाएं

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