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गुरुवार, 28 जून 2012

मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत -4


भारतीय दर्शन परम्परा एक
          

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(भारतीय दर्शन पर कुछ बात करने से पहले मैं पिछले आलेख पर मिली प्रतिक्रियाओं के बारे में कुछ बात करना चाहूँगा. यह पूरी आलेखमाला युवा मित्रों से संवाद के लिए लिखी जा रही है. ज़ाहिर है यह बहुत गंभीर या विस्तृत नहीं है. यह भी कि मैं दर्शन का कोई आधिकारिक विद्वान नहीं. बस संगठनों में काम करते हुए और थोड़ा-बहुत पढ़ते-लिखते जो सीखा-समझा है, वही आप लोगों से बांटना चाहता हूँ. इसमें न तो कोई नई प्रस्थापना है, न ही कोई नयी विवेचना. मैंने बस तमाम किताबों में उपलब्ध प्रस्थापनाओं को एक जगह संकलित कर नए पाठक के लिए अध्ययन को आसान बनाने का प्रयास किया है. ) 


भारतीय दर्शन को लेकर आम समझ यही है कि भारतीय दर्शन परम्परा मूलतः आध्यात्मिक दर्शन की परम्परा है. आम बातचीत में ऐसा प्रदर्शित किया जाता है कि भारतीय परम्परा तो आध्यात्मिक रही और आज पश्चिम से भौतिकवाद यहाँ आ गया है और उसी ने सब गडबड किया है. श्रीनिवास सरदेसाई कहते हैं, भारतीय दर्शन यानि वेदांत और वेदांत यानि भारतीय दर्शन, यह समीकरण वेदांत के प्रायः सभी समर्थकों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, जनमानस पर इस मत की गहरी छाप है. और यह सच है कि ऐतिहासिक दृष्टि से वेदांत इस देश का सर्वाधिक व्यापक और प्रतिष्ठित दर्शन है. परन्तु सर्वाधिक व्यापक एवं प्रतिष्ठित दर्शन का अर्थ एकमेव दर्शन नहीं है.[i] वाल्टर रूबेन ने भारत में दर्शन का स्पष्ट प्रारम्भ छान्दोग्य उपनिषद में उद्दालक आरुणि के पुद्गल-जीववाद से माना है और उनके अनुसार उसका भौतिकवाद, जो बहुत आदिम है, उस मान्यता का, जिसे देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लोकायत में प्रागैतिहासिक इहलोक परायणता कहा है, और जो कबायली युगों की विशेषता रही थी, पहला क्रमबद्ध निरूपण है. उद्दालक लगभग 600 ईसापूर्व हुए थे जबकि भारत में लौहयुगीन राज्यों का प्रारम्भ हो रहा था. उसके भौतिकवाद के विरूद्ध याज्ञवलक्य ने तत्काल ही कर्म, संसार और मोक्ष के सिद्धांत के साथ-साथ भारत के सबसे प्राचीन प्रत्ययवाद का सिद्धांत दिया. इस प्रकार दर्शन के इन दो मुख्य संप्रदायों के बीच संघर्ष का सूत्रपात हुआ.[ii]  के दामोदरन, जैसा कि हम आगे देखेंगे इसे और पीछे ऋग्वेदकालीन ऋषि बृहस्पति  (लगभग 1520 ईसा पूर्व)[iii] तक ले जाते हैं. डा राधाकृष्णन ने भी, जो खुद जाहिर तौर पर आध्यात्मिक दर्शन प्रणाली के दार्शनिक थे, अपनी प्रसिद्ध किताब हिस्ट्री आफ फिलासफी में लिखा है कि भौतिकवाद उतना ही पुराना है, जितना दर्शन. यह बुद्ध के पहले के समय में भी मौजूद था. इसके बीजाणु ऋग्वेद के सूक्तों में मिलते हैं.[iv]


स्पष्ट है कि भारतीय दार्शनिक परम्परा में आरम्भ से ही भाववाद और भौतिकवाद, दोनों ही उपस्थित रहे. असल में दुनिया की हर सभ्यता की तरह भारतीय उपमहाद्वीप में भी कोई एक चिंतन परम्परा नहीं रही. अगर ज्ञान-विज्ञान की विधिवत शुरुआत हम वैदिक काल से ही मान लें (क्योंकि इसके पहले कि सिंधु सभ्यता की लिपि अब तक पढ़ी नहीं गयी है तो उस काल के विश्वासों और ज्ञान-विज्ञान के स्वरूप के बारे में कोई निश्चित बात कर पाना संभव नहीं) तो देखेंगे कि एक तरफ कर्मकांडो और दैवी चमत्कारों को मानने वाले थे तो दूसरी तरफ उसे पाखण्ड बताने वाले. इन्हें दो दार्शनिक प्रणालियों के आपसी संघर्ष या वाद-विवाद ही मान लेना और इस पूरी बहस को एक बौद्धिक बहस में तब्दील करना सही नहीं होगा. जैसा कि मैंने पहले अध्याय में भी कहा कि दर्शन किसी शून्य में से नहीं उपजता. इसे अनिवार्य रूप से उस समय की सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से देखना होगा. बकौल कार्ल मार्क्स अस्तित्व के भौतिक साधनों का स्वरूप सामाजिक, राजनीतिक एवं बौद्धिक जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को प्रभावित करता है. मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती वरन उनका सामाजिक अस्तित्व है जो उनकी चेतना को निर्धारित करता है[v] इसका मतलब क्या हुआ? सीधी सी बात है कि एक व्यक्ति या फिर व्यक्तियों का एक समूह जो कुछ सोचता-समझता है, जो उसका कामन सेंस होता है, उसके जो विश्वास होते हैं या इन सब को मिलाकर जो उसकी चेतना बनती है वह सीधे-सीधे जिंदगी के उन हालात पर निर्भर करती है, जिसमें वह जी रहा होता है. ऐसा नहीं होता कि उसे यह सब जन्म के पहले ही मिल गया हो और फिर वह उसी के हिसाब से जिंदगी जी रहा हो. तो भारतीय दर्शन के बारे में भी यही सही है.

भारत में वैदिक प्राकृतिक धर्म के उदय के साथ ही ब्राह्मण पुरोहितों का वर्चस्व स्थापित होने लगा. चार वर्णों वाली व्यवस्था जैसे-जैसे जड़ जमाने लगी, समाज के अंदर एक स्पष्ट बंटवारा दिखने लगा. एक तरफ ब्राह्मण पुरोहित और क्षत्रिय राजा थे जो अपने कर्मकांडों और चमत्कारों की भूल-भुलैया में जनता को भटकाकर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे तो दूसरी तरफ इसका मोल चुकाने वाली आम जनता. आज भी वेदों को लेकर हमारे मन में एक अतिरिक्त श्रद्धाभाव रहता है. लेकिन असल में आज हमारे बीच बच रही पशु-पालक जातियों के गीतों और आलापों की भांति ये वैदिक सूक्त भी दिन-प्रतिदिन की अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति मात्र हैं पशुओं की अभिलाषा, वर्षा की अभिलाषा, विजय की अभिलाषा, स्वास्थ्य की अभिलाषा, संतान की अभिलाषा.[vi] इन्हीं  वेदों को ईश्वर द्वारा रचित बताकर ब्राह्मणों ने अपने लिए विशेषाधिकार सुरक्षित कर लिया था. मनुस्मृति में कहा गया कि ब्राह्मण चूंकि वेदों का अधिकारी है, अतः उसे समस्त सृष्टि के प्रभु होने का अधिकार है. इसी आधार पर ब्राह्मणों ने स्वयं को पूरी तरह से शारीरिक श्रम से मुक्त कर लिया. राजा को ईश्वर की इच्छा का मूर्त रूप घोषित कर दिया गया और इस तरह उसे पूरी तरह निरंकुश बना दिया गया. भौतिक परिस्थितियाँ दर्शन को किस कदर प्रभावित करती हैं इसका एक उदाहरण हमें राहुल सांकृत्यायन की दर्शन-दिग्दर्शन में मिलता है जब वह बताते हैं कि ऋगवेद के पुराने मन्त्रों में यद्यपि इंद्र, सोम, वरुण की महिमा ज्यादा गई गई है, किन्तु उस वक्त किसी एक देवता को सर्वेसर्वा मानने का ख्याल नहीं था....किन्तु जब हम ऋग्वेद के सबसे पीछे के मन्त्रों (दशम मंडल) तक पहुँचते हैं, तो वहाँ बहुदेववाद से एक देववाद की ओर प्रगति देखते हैं. सभी जातियों के देव लोक में उनके अपने समाज का प्रतिबिम्ब होता है. जहाँ आरम्भ काल में देवता, पितृसत्ता को समाज के नेता पितरों की भांति छोटे-बड़े शासक थे, वहाँ आगे नियंत्रित सामंत या राजा बनते हुए अंत में निरंकुश राजा बन जाते हैं. प्रजा के अधिकार जब बहुत कम रह गए, और राजा सर्वेसर्वा बन गया, उसी समय (600-500 ईसा पूर्व) देव राजा का पर्यायवाची शब्द बना.[vii] वर्चस्वशाली वर्ग के इन दोनों प्रतिनिधियों के बीच स्वाभाविक रूप से तालमेल था. ब्राह्मण पुरोहितों ने राजा को पूरी निरंकुशता से राज्य करने का प्रमाणपत्र दिया तो राजा ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों की रक्षा की. शेष जनता को कर्म करो और फल की चिंता न करो का झुनझुना पकड़ा दिया गया. पुनर्जन्म का सिद्धांत इसमें बड़ा मददगार था, लोगों से कहा गया कि आज जो दुःख या सुख भोग रहे हैं, उसके जिम्मेदार उनके पूर्वजन्म के कर्म हैं. अगर वे इस जन्म में अपना धर्म सही तरीके से निभाएंगे तो ईश्वर उन्हें अगले जन्म में ही नहीं, ऊपर स्वर्ग में भी सुख देगा, नहीं निभाएंगे तो अगला जन्म तो बिगडेगा ही, साथ में ऊपर भी नर्क की आग में जलना होगा.  और सबका धर्म अलग-अलग था, ब्राह्मण का धर्म पूजा-पाठ था, क्षत्रिय का युद्ध और राज्य , वैश्य का  व्यापार तो शूद्र का सेवा. इन सभी को अपने धर्म के अनुसार कर्म करते जाना था और फिर उसी के हिसाब से उनके सुख और दुःख निर्धारित होने थे. इसे ही कर्म का सिद्धांत कहा गया. यही वह कर्म था जिसके लिए गीता में कहा गया कि कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन अर्थात सिर्फ कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, फल पर कतई नहीं. फल पर अधिकार तो ईश्वर का था, वह आज दे, स्वर्ग में दे, अगले जन्म में दे या उसके बाद दे. ज़ाहिर है कि पूरी तरह शारीरिक श्रम से मुक्त हो ब्राह्मण वर्ग को वह अवकाश मिला जिससे वह कला, विज्ञान, व्याकरण, ज्योतिष और ऐसे ज्ञान-विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में नए सृजन कर सका. इस तरह उसने अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता स्थापित की. ब्राह्मण होने का अर्थ ही विद्वान होना स्थापित कर दिया गया. आखिर जिनका धर्म सिर्फ सेवा था, जिन्हें पढ़ने-लिखने का अधिकार भी नहीं था, वे विद्वान बनते भी तो कैसे? इस तरह से शूद्रों के साथ अन्याय और उनके श्रम के शोषण के माध्यम से उच्च वर्णों ने अपनी भौतिक सुख-सुविधाएँ जुटाईं आध्यात्म के सहारे!

लेकिन यह गोरखधंधा अनंत काल तक नहीं चल सकता था. दस्तकारी के विकास के साथ समाज में नए वर्गों का उदय हुआ. उत्पादन की नयी तकनीकों के साथ व्यापार में भारी वृद्धि हुई और अब ब्राह्मणों की व्यवस्था इसमें बाधा बनने लगी थी. उन निर्धारित कर्मों और नियमों को मानते हुए उत्पादन और व्यापार का विस्तार संभव नहीं था तो लाजिम है कि इसका विरोध होता. ऐसे में ब्राह्मणवाद और उसके कर्मकांडों पर हमला करने वाले चिंतकों का उदय हुआ जो अपने मूल में भौतिकवादी थे. इसके बाद का इतिहास इन दर्शनों के आपसी संघर्ष का इतिहास है, जो ज़ाहिर तौर पर पुराने वर्चस्वशाली वर्ग और नए उभरते वर्गों का इतिहास है. अगले अध्याय में हम भारतीय दर्शन की कुछ भौतिकवादी प्रणालियों के बारे में विस्तार से बात करेंगे.

लेकिन यहाँ यह मान लेना कि वेदों में सिर्फ आध्यात्म की शिक्षा है, उचित नहीं होगा. यहाँ मैंने पहले ही डा राधाकृष्णन के हवाले से बताया है कि ऋग्वेद में भौतिकवाद के बीजाणु थे. के दामोदरन बताते हैं कि ऋग्वेद के बृहस्पति भारतीय भौतिकवाद के प्रथम प्रणेता माने जाते हैं. उन्होंने ही सर्वप्रथम पदार्थ को परम सत्य घोषित किया था. वह और उनके शिष्य ईश्वर के अस्तित्व से भी इंकार करते थे. वे आत्मा की अमरता और मृत्यु के बाद के जीवन की अवधारणा के भी विरोधी थे[viii]  इसी सन्दर्भ में उन्होंने बृहस्पति के शिष्य धिषण और भृगु (जिनके बारे में का रहीम हरि को भयो, जो भृगु मारहिं लात वाला दोहा है) का भी जिक्र करते हैं. इसी किताब में एम हिरियाना का एक लंबा उद्धरण है जो ऋग्वेद के कुछ ऐसे सूक्तों का जिक्र करता है जिनमें सर्वोच्च वैदिक देवता इंद्र और पुरोहितों पर सवाल खड़े किये गए हैं.[ix] वेदों के अलावा उपनिषदों में तो जगह-जगह ऐसे विचार मिलते हैं. छान्दोग्य उपनिषद (700 ईसा पूर्व) में वैसे तो कर्मकांडों की भरपूर प्रशंसा है, लेकिन प्रथम अध्याय के अंत में दाल-रोटी के लिए हावु-हावु (सामगान का आलाप) करने वाले पुरोहितों का एक दिलचस्प मजाक किया गया है. बक दालभ्य जिसका दूसरा नाम ग्लाब मैत्रेय भी था कोई ऋषि था. वह वेद पाठ के लिए किसी एकांत स्थान में रह रहा था; उस समय एक सफ़ेद कुत्ता वहाँ प्रकट हुआ. फिर कुछ और कुत्ते आ गए और उन्होंने सफ़ेद कुत्ते से कहा कि हम भूखे हैं, तुम साम गाओ, शायद इससे हमें कुछ भोजन मिल जाए. सफ़ेद कुत्ते ने दूसरे दिन आने के लिए कहा. दालभ्य ने कुत्तों की बात सुनी थी. वह भी सफ़ेद कुत्ते के सामगान को सुनने के लिए उत्सुक था. दूसरे दिन उसने देखा कि कुत्ते आगे-पीछे एक की पूँछ दूसरे के मुंह में लिए बैठकर गा रहे थे हि! ओम् खावें, ओम् पीएं, ओम् देव हमें भोजन दें. हे अन्नदेव! हमारे लिए अन्न लाओ, हमारे लिए इसे लाओ, ओम्. इस मजाक में दरअसल, सामगायक पुरोहित पेट के लिए यग्य के वक़्त जो एक के पीछे एक दूसरे का वस्त्र पकड़े हुए सामवेद का गायन करते थे, उसी की नक़ल उतारी गयी है.[x] बाद के उपनिषदों में तो इन कर्मकांडों का उपहास और भौतिकवादी विचारों का ताप और तीखा है. मुंडक उपनिषद में लिखा है यग्य रूपी ये बेड़े कमजोर हैं. जो मूर्ख से अच्छा कहकर अभिनन्दन लेते हैं, वे फिर-फिर बुढ़ापे और मृत्यु को प्राप्त होते हैं. अज्ञान के भीतर विद्यमान खुद को पंडित समझने वाले वे मूर्ख अंधे द्वारा अपने पीछे अन्धों को चलाने वाले की ही तरह दुःख पाते हैं.[xi] यही नहीं वे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष को कमतर ज्ञान (अपरा) घोषित करते हैं[xii] श्वसनवेद घोषणा करता है कि न तो कोई अवतार है, न ईश्वर है, न स्वर्ग है और न नरक है. सभी परम्परागत धार्मिक साहित्य अहंकारी मूर्खों की करतूत है.[xiii]

स्पष्ट है कि हमारी परम्परा कोई एकांगी परम्परा नहीं. लेकिन चूंकि सत्ता वर्ग हमेशा चार वर्णों वाली व्यवस्था का हामी रहा तो उसके लिए इन कर्मकांडों और इनके पोषक दर्शनों को संरक्षण देना लाजिमी था. भौतिकवाद हमेशा ही विरोध का दर्शन रहा और तमाम अपमान तथा उत्पीडन के बावजूद हमारे प्राचीन विद्रोहियों ने लगातार इसका परचम उठाये रखा. अगले अध्याय में ऐसी ही कुछ दार्शनिक प्रणालियों पर थोड़ी  विस्तार से चर्चा होगी.

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इस श्रृंखला के पिछले आलेख 

सन्दर्भ : 

[i] देखें, भारतीय दर्शन वैचारिक और सामाजिक संघर्ष, पेज -33, श्रीनिवास सरदेसाई, पहला संस्करण- 2009, संवाद प्रकाशन, मुंबई-मेरठ  
[ii] देखें, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक भारतीय दर्शन सरल परिचय की वाल्टर रूबेन द्वारा लिखी भूमिका, पेज-9, पेपरबैक संस्करण-2004, राजकमल प्रकाशन-दिल्ली 
[iii] देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पेज-262, वर्ष-2000, किताब महल प्रकाशन, इलाहाबाद
[iv] देखें, हिस्ट्री आफ फिलासफी, खंड 1पेज 377, यहाँ के दामोदरन की किताब भारतीय चिंतन परम्परा से उद्धृत
[v] देखें, राजनैतिक अर्थशास्त्र की आलोचना, कार्ल मार्क्स
[vi] देखें, लोकायत, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, पेज 529, वर्ष-1959, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली   
[vii] देखें, दर्शन-दिग्दर्शन, राहुल सांकृत्यायन, पेज-266, वर्ष-2000, किताब महल प्रकाशन, इलाहाबाद
[viii] देखें, भारतीय चिंतन परम्परा, के दामोदरन, पेज-93, वर्ष- 2001, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (हिन्दी अनुवाद)
[ix] देखें, के दामोदरन की पूर्वोद्धरित किताब, पेज-94
[x] देखें, राहुल सांकृत्यायन, वही,पेज -303
[xi] देखें, वही, पेज -327
[xii] देखें, वही, पेज-327
[xiii] देखें, के दामोदरन की पूर्वोद्धरित किताब, पेज-95

रविवार, 17 जून 2012

एक थे सआदत हसन मंटो


(बाराबंकी से निकलने वाली पत्रिका लोकसंघर्ष ने पिछले महीने जब अपनी पत्रिका के बैक कवर के लिए मंटो पर एक नोट लिखने के लिए कहा तो दो-ढाई सौ शब्दों में मंटो जैसे लेखक के बारे में लिखना मुझे लगभग असंभव लगा. इतना प्रिय और इतना बड़ा लेखक...और दो-ढाई सौ शब्द! लेकिन इसके संपादक सुमन जी जिस लगन और पक्षधरता से यह पत्रिका निकालते हैं, उनके आग्रह को मैं हमेशा ही आदेश की तरह लेता हूँ. तो लिखा...) 




सआदत हसन मंटो अपने वक़्त से आगे के अफसानानिगार थे. इतना आगे कि उनकी मौत के बाद आधी सदी से अधिक का वक़्त गुजर जाने के बाद भी आज तक शायद उन्हें ठीक से पहचाना जाना बाकी है. यह हमारी भाषा की बदनसीबी ही हो सकती है कि मंटो जैसे लेखक की अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खोल दो, काली सलवार, बू और टोबाटेक सिंह जैसी कहानियाँ कस्बाई रेलवे स्टेशनों के सस्ते स्टालों में मंटों की बदनाम कहानियाँ शीर्षक से लुगदी के कागज़ और बेहद घटिया आवरण वाली किताबों में बेची जाती हैं. जीते जी भी  हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के तमाम एलीट लेखकों और आलोचकों के लिए वह  दंगों, फ़िरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाले सामान्य से साहित्यकार थे. बहुत कम लोग यह देख पाए थे कि वह, दरअसल हिन्दी-उर्दू के तत्कालीन परिदृश्य के सारे पाखंड को छिन्न-भिन्न कर समाज का वह बदरंग चेहरा दिखाने वाले रचनाकार थे, जिस तक शहर-ओ-गाँव की शरीफ गलियों में रहने वाले जाते तो हैं, मगर दिन के उजाले में नहीं, रात के अँधेरे में.

अमृतसर की गलियों में अपने पहले उस्ताद अब्दुल बारी से कम्यूनिज्म और शहर की जुए की फड़ों से लेकर तमाम बदनाम गलियों में आवारागर्दी करते हुए ज़िंदगी की तल्ख़ हकीक़त सीखने वाले मंटो सही अर्थों में एक बोहेमियन और विद्रोही लेखक थे. अमृतसर से लाहौर फिर बम्बई की फिल्मी दुनिया और फिर बँटवारे के बाद पाकिस्तान तक के सफर में उन्होंने ज़िंदगी को किताबों के भीतर भी देखा और बाहर भी. सच कहने की उनकी जिद ने उन्हें वह नज़र भी बख्शी और कलम भी जिससे वह इस देखे-भोगे गए को उसकी पूरी तल्खी के साथ दर्ज कर सके. साहित्य की चारदीवारी से बाहर रह गए लोग उनकी कहानियों के नायक बने.

बंटवारे के वक़्त जब चारों ओर साम्प्रदायिकता का दैत्य अट्टाहास कर रहा था, तब मंटों उन गिने-चुने कहानीकारों में से थे जो धर्म के नाम पर किये जा रहे इस खून-खराबे के असली चेहरे देख पा रहे थे. स्त्री विमर्श के हालिया शोर-शराबे से बहुत पहले उन्होंने यह साफ़-साफ़ देखा था कि नफ़रत का यह खेल सबसे पहले स्त्री देह पर खेला जाता है. इसीलिए उनकी कहानियों में यह बहुत तल्खी के साथ और बहुत साफगोई से आता है, बिना किसी परदे के. ज़ाहिर है कि कुलीन और मध्यवर्गीय परिवेश के लोगों की भवें टेढ़ी होतीं, ज़ाहिर है कि काल्पनिक आदर्शों में जीने वालों को वह सब अश्लील लगता. लेकिन मंटो ने इसकी कब परवाह की. उन्होंने नंगे सच लिखे और उसकी कीमत चुकाई. वह उस आदमी की तरह थे जिसने राजा को नंगा देखा ही नहीं था, उसे नंगा कहने की हिम्मत भी की थी. 

42 साल की कम उम्र में उनका चले जाना दक्षिण एशियाई ही नहीं बल्कि दुनिया भर के साहित्य की एक अपूरणीय क्षति थी. फिर भी कोई बीस साल के अपने लेखन काल में उन्होंने जितना कुछ लिखा, वह हमारी धरोहर है जिसके आईने में इतिहास और वर्तमान के कई सफे बहुत साफ़-साफ़ पढ़े जा सकते हैं. जन्मशताब्दी के इस वर्ष में अगर हम यह ज़रूरी काम कर सके तो यह मंटो के साथ हो न हो अपनी अदबी विरासत के साथ एक बड़ा न्याय होगा.
   

शुक्रवार, 15 जून 2012

अर्थ के अनर्थ की तहकीकात



जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर गिरीश मिश्र की नई किताब बाज़ार-अतीत और वर्तमान’ की समयांतर में लिखी समीक्षा आप सब के लिए 



बाज़ार को लेकर साहित्य और समाज, दोनों में जितनी बहस आज है, शायद पहले कभी नहीं थी. नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की संरचनात्मक समायोजन वाली नई आर्थिक नीतियों के लागू  होने के बाद से जिस तरह से बाज़ार में नई-नई उपभोक्ता वस्तुओं का एकदम से आगमन हुआ और इस नई आर्थिक व्यवस्था के फलस्वरूप जन्में एक नए मध्यवर्ग के बीच उपभोक्तावाद ने जिस तरह से जड़ें पसारी, यह वैकल्पिक व्यवस्था का स्वप्न देखने वाले लोगों के लिए भौंचक कर देने वाली परिस्थितियाँ थीं. सोवियत रूस के विघटन के बाद पहले से ही अवसन्नता कि स्थिति में पड़े हुए बौद्धिक वर्ग के लिए यह परिघटना एक आघात से कम न थी. वैसे भी खासतौर पर हिन्दी के साहित्यिक वाम के एक बड़े हिस्से के बीच वामपंथ को लेकर जो समझदारी रही वह किसी वैज्ञानिक समझदारी की जगह वंचित-शोषित वर्ग के प्रति एक भावनात्मक लगाव और पक्षधरता के कारण ही थी, आज भी है. यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी, एक हद तक इसके सकारात्मक पहलू भी हैं, लेकिन कई बार वामपंथ के औजारों की सही समझ के अभाव में केवल भावनात्मक पक्षधरता ऐसे सूत्रों में अनुदित होती है कि वह उन्हीं उद्देश्यों के विरुद्ध काम करने लगती है, जिनके साथ होने का वह दावा कर रही होती है.
बहुचर्चित कहानी बाज़ार में रामधन इसका एक बड़ा उदाहरण है. उदारीकरण की नई नीतियों को लेकर अक्सर ऐसी चीजें देखी जाती हैं. इन्हें आज़ादी के बाद लागू की गयी नीतियों और माडलों की तार्किक परिणिति की तरह देखने की जगह एक बिलकुल नई परिघटना की तरह देखा गया. नेहरूवादी समाजवाद को, जो अपने मूल में राजकीय पूंजीवाद का ही एक माडल था, शुरू से ही तमाम लोगों द्वारा समाजवादी माडल की तरह देखा गया, जिनमें खुद को वाम कहने वाले साहित्यकार ही नहीं राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता भी शामिल थे. तो नब्बे के दशक के बाद के समय में उस पुराने राजकीय पूंजीवाद को एक तरह की नास्टेल्जिया से याद किया जाना (जो कमोबेश अब भी ज़ारी है) और प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे शत्रु बाज़ार के खिलाफ जंग का एलान कर दिया गया. बाज़ार के खिलाफ लिखी गयी कविताओं से लेकर कहानियों, उपन्यासों और लेखों का एक जखीरा आज हमारे सामने है. एक ऐसे शब्द बाजारवाद- के खिलाफ यह छायायुद्ध लगातार लड़ा जा रहा है, जो असल में कहीं है ही नहीं, जो असल में पूंजीवाद की जगह बड़ी चतुराई से पूँजीवाद के सिद्धांतकारों द्वारा पेश किये गए शब्द बाजार प्रणाली (market system) का भ्रष्ट अनुवाद है. इस शब्द की लोकप्रियता का यह आलम है कि एक आलेख में मेरे द्वारा लिखे गए बाज़ार की ताकतों को एक वरिष्ठ संपादक ने, जो एक वरिष्ठ साहित्यकार भी हैं, बाजारवाद में तब्दील कर पूरे वाक्य को हास्यास्पद बना दिया था. वरिष्ठ अर्थशास्त्री और विश्व साहित्य के गंभीर अध्येता प्रोफ़ेसर गिरीश मिश्र की सद्य-प्रकाशित पुस्तक बाज़ार-अतीत और वर्तमान ऐसे संभ्रम के माहौल में बहुत सारे धुंध और जाले साफ़ करती है. वह न केवल इस शब्द के पीछे छुपी साजिश को सामने लेकर आता है, बल्कि पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित उपभोक्ता की सार्वभौमिकता के दावे को भी प्रश्नांकित करता है. साथ ही वह बाजार की उत्पति से लेकर उत्पादन संबंधों में बदलाव के साथ-साथ आई इसकी भूमिका की विस्तार से जांच-पड़ताल करते हैं.

जिस पहली और सबसे ज़रूरी बात वह आरम्भ करते हैं वह यह कि बाज़ार न तो पूंजीवाद के दौर की पैदाइश हैं न ही पूंजीवाद के साथ समाप्त हो जायेंगे. बाज़ार का उद्भव नामक अध्याय में वह उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का विस्तार से वर्णन करते हैं. प्राक-आधुनिक समाजों में वस्तु-विनिमय (barter-system) की जगह मुद्रा के उदय की व्याख्या करते हुए वह मुर्गियों और बकरी के बीच के विनिमय की दिलचस्प दिक्कतों वर्णन करते हुए वह प्राक-मुद्रा के उदय के बारे में बताते हैं. पश्चिम के साथ भारत में बाज़ार के उदय और विकास का निर्धारण करने के लिए वह अथर्ववेद, पाणिनी और कौटिल्य अर्थशास्त्र के उद्धरण देते हुए सिद्ध करते हैं कि 500 ई.पूर्व में ही व्यापार न केवल स्थानीय अपितु आयात-निर्यात संबंधी व्यापक स्तर पर भी शुरू हो चुका था. सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के विकास के साथ-साथ व्यापार की पूरी व्यवस्था की संरचना और स्वरूप में भी बदलाव आया. बाणभट्ट की हर्षचरितम के उद्धरणों के सहारे वह बताते हैं कि - इस दौर तक व्यापार में मुनाफाखोरी जैसी प्रवृति भी आ गयी थी. इस दौर में वणिज तस्कर जैसे शब्द का प्रयोग मिलता है जिससे यह रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि चोर बने बिना धनवान वणिक होना मुश्किल है. साथ ही वह यह महत्वपूर्ण तथ्य भी रेखांकित करते हैं कि बाज़ार को राज्य द्वारा नियंत्रित रखने की परिघटना हजारों वर्ष पुरानी है. अगले अध्याय में वह पूंजीवाद के पहले भारत में विनिमय की विवेचना करते हुए वह तीन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, पहला बाज़ार निरंतर विकसित और विस्तृत होता रहा, दूसरा- उत्पादन का मूल उद्देश्य उपभोग को विविधतापूर्ण बनाना था न कि मुनाफ़ा कमाना और तीसरा बाज़ार सख्ती से ग्राम समुदाय और तत्कालीन प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन था, जहाँ कीमतों, वस्तुओं की गुणवत्ता और मापतौल पर राज्य या समाज की निगाह निरंतर बनी रहती थी. गडबडी करने वालों पर सख्त कार्यवाही होती थी. इसी दौर में योरप के बाजारों की संरचना की विवेचना करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सामंतवाद के पतन तक आई समस्त आर्थिक प्रणालियों के लिए यह प्रस्थापना सही थी कि पारस्परिकता, पुनर्वितरण और पारिवारिकता के सिद्धांत मूलाधार बने रहे. हालांकि वह इस तथ्य को रेखांकित नहीं कर पाए हैं कि इस दौर में खासतौर से भारत जैसे समाज में, जहाँ जाति जैसी उत्पीडक सामाजिक संरचना के कारण  स्वनिर्भर गाँवों में उत्पादक खुद अपने उत्पाद का उपभोग कर पाने के लिए आज़ाद नहीं था, बाज़ार ने एक हद तक मुक्तिदाता की भूमिका भी निभाई, यहाँ ग़ालिब का वह शेर याद किया जा सकता है और ले जायेंगे बाज़ार से गर टूट गया/ जाम-ए-जम से मेरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है.

बाज़ार का प्रभाव असल में पूंजीवाद के आगमन के साथ बढ़ता चला जाता है. इस दौर में बाज़ार समाज के कार्यकलाप में सहायक की भूमिका से आगे बढ़कर एक ऐसी सत्ता में तब्दील हो जाता है जो पूरी आर्थिक प्रणाली का नियंत्रण, नियमन और निर्देशन करने लगता है. लाभ इकलौता उद्देश्य बन जाता है और बाज़ार पर समाज का नियंत्रण धीरे-धीरे खत्म होता चला जाता है. यह स्वचालित तथा स्वनियमित बाज़ार मनुष्यता के समक्ष एक चुनौती की तरह आता है. उत्पाद आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए नहीं अपितु बाज़ार में बेचने के लिए आता है, जिसका उद्देश्य, जाहिर तौर पर मुनाफ़ा कामना होता है. यहाँ तक कि श्रम, भूमि और मुद्रा भी मुनाफे के उद्देश्य से माल में तब्दील हो जाते हैं. पोलान्यी का उद्धरण देते हुए वह बताते हैं कि श्रम, भूमि और मुद्रा को माल बनाकर उन्हें बाज़ार तंत्र के हवाले करने के परिणाम समाज के लिए विध्वंसकारी होंगे. आज हिन्दुस्तान सहित दुनिया भर में जारी जल-जंगल-जमीन की लूट और श्रम के बेतहाशा शोषण के साथ मुद्रा बाज़ार की उठापठक के चलते मानवता के सम्मुख उपस्थित अभूतपूर्व संकट के मद्देनजर इस भविष्यवाणी के महत्व को समझा जा सकता है. श्रम, भूमि और मुद्रा को माल बनाकर पूंजीवाद की हवस ने खुद स्वनियमित बाज़ार को भी संकट में डाल दिया है. इसका सीधा परिणाम बाज़ार और समाज में टकराव के रूप में सामने आता है. इसी शीर्षक के अगले अध्याय में वह पूंजीवाद के विकास के साथ पैदा हुई परिस्थितियों का विस्तार से वर्णन किया है. योरप में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में हुए गाँवों के विघटन और वहाँ से पलायन पर मजबूर मजदूरों की नगरीय व्यवस्था से पैदा हुई घृणा को रेखांकित करते हुए वह इस असंतोष के कारणों की विस्तार से विवेचना करते हैं. साथ ही वह पूंजीवादी उत्पादन संबंधो के स्थापित होने के साथ-साथ उसके पक्ष में चलने वाली बौद्धिक कार्यवाहियों का ज़िक्र करते हैं. एडम स्मिथ के वेल्थ आफ नेशंस के साथ वह टामसन हाब्स और विलियम टाउनसेंड के उस निष्कर्ष का ज़िक्र करते हैं जिसमें यह साफ़ किया गया था कि मुक्त समाज में दो नस्लें होंगी, सम्पतिवानों की और मजदूरों की. मजदूरों की संख्या खाद्य पदार्थों की उपलब्धि पर निर्भर होगी ; और जब तक संपत्ति सुरक्षित रहेगी तब तक भूख मजदूरों को काम करने के लिए बाध्य करेगी. किसी मैजिस्ट्रेट की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि भूख अनुशासित करने का अच्छा तरीका है. ज़ाहिर है कि इस गैरबराबरी और संसाधनों की लूट के पक्ष में माल्थस या रिकार्डो जैसे सिद्धांतकार सामने आते हैं. पी बी से कहते हैं कि जो बना है वह सब बिक जाता है, एडम स्मिथ किसी अदृश्य हाथ द्वारा बाज़ार को हमेशा संतुलन में रखे जाने की बात करते हैं, माल्थस श्रमजीवी वर्ग की विपन्नता की जिम्मेवारी उनके द्वारा जनसंख्या बढाए जाने के सर थोप देते हैं. साहित्य से लेकर दर्शन तक में पूंजीवाद के निजी सम्पति के अधिकार और श्रम, जमीन और मुद्रा को माल में बदल देने के पक्ष में माहौल बनया जाता है. लेकिन इसी के साथ-साथ इस लूट का प्रतिरोध भी जन्म लेता है. गिरीश जी ने राबर्ट ओवेन का हवाला दिया है, जिसने अगर बाज़ार अर्थव्यस्था को अपने खुद के नियमों के अनुसार विकसित होने दिया गया तो वह बड़ी और स्थाई बुराइयों को जन्म देगी. इसी दौर में अंपटन सिंक्लेयर के जंगल जैसे उपन्यास लिखे गए, जो नई फैक्ट्रियों के भीतर श्रमिकों के भयावह शोषण और बाहर उनकी नारकीय जीवन स्थितियों का ज़िंदा दस्तावेज बना.

इस अध्याय में गिरीश जी, सामंतवाद के दौर से निकलकर पूंजीवाद के दौर में आने पर सामाजिक संरचनाओं में हुए बदलाव का ज़िक्र करते हैं. ज़ाहिर तौर पर पूंजीवाद सामंतवाद की तुलना में एक आगे बढ़ी हुई सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था थी, जहाँ मनुष्य की अस्मिता और आजादी के लिए सम्मान था. आर्थिक गैरबराबरी तो खैर पूंजीवाद की लाक्षणिकता है ही, लेकिन सामंतवाद के सामाजिक गैरबराबरी वाले ढांचे में दरार तो इसने लगाई ही. गिरीश जी के शब्दों में जाति-बिरादरी, छुआछूत और धर्म-सम्प्रदाय के बंधनों से मुक्त तो कर दिया मगर भूख और सामाजिक असुरक्षा का हर्निश भय पैदा कर दिया. हालांकि, भारत में अपनी स्वाभाविक विकास प्रक्रिया से गुजरे बिना जिस तरह से औपनिवेशिक शासन द्वारा बीमार और सतमासा पूंजीवाद आया, गिरीश जी  का यह कथन और अधिक विवेचना की मांग करता है कि ब्राह्मण-शूद्र, हिन्दू-मुसलमान, ऊंच-नीच के भेद मिट गए और वे सब एक ही नई बिरादरी-मजदूर वर्ग- के सदस्य हो गए. असल में, भारत में इस तरह के जाति-धर्म विहीन मजदूर वर्ग के उदय की बात सरलीकरण सी लगती है. यहाँ ये सामाजिक विभेद लंबे समय तक अधिरचना में उपस्थित रहे और आधार में आज भी इनकी गहरी उपस्थिति दिखाई देती है. इस सन्दर्भ में थोड़ी और विवेचना और खास तौर पर उस दौर के फुले-पेरियार-अम्बेडकर जैसे आन्दोलनों के महत्व के रेखांकन की आवश्यकता थी, जिसे लेखक चुके हैं. साथ ही पूरी किताब में महिलाओं के सन्दर्भ में कोई बातचीत न होना भी खटकता है. पूंजीवाद महिलाओं को भी एक हद तक आजादी देता है, लेकिन साथ ही वह न तो उन्हें चूल्हे-चौके से मुक्ति दिलाता है और न ही लैंगिक असमानता को पूरी तरह खत्म करता है. साथ ही वह नारी देह को एक वस्तु के रूप में तब्दील कर देता और महिलाओं के श्रमिक के रूप में तब्दील हो जाने के बाद भी उन्हें पुरुषों की तुलना में दोयम दर्जे की मजदूरी और कार्य परिस्थितियाँ मिलती हैं. अभी हाल में आई जयति घोष की किताब नेवर डन एंड पुअरली पेड और इन्द्रानी मजूमदार की किताब विमेन वर्कर्स एंड ग्लोबलाइजेशन बताती हैं कि किस तरह आरंभिक पूंजीवादी बाज़ार में ही नहीं, बल्कि भूमंडलीकृत बाज़ार में महिला श्रम के साथ दोयम व्यवहार जारी है.

आगे के दो अध्यायों पाश्चात्य चिंतन में बाज़ार : एक और पाश्चात्य चिंतन में बाज़ार :दो में गिरीश जी बाजार के प्रति पश्चिमी समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा शासन व्यवस्था के बदलते नजरिये का विस्तार से जिक्र करते हैं. किताब पढ़ते हुए इन अध्यायों में बदलती सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ बाजार के असर और उसके समर्थन के बदलते माहौल का ज़िक्र तो मिलता है, लेकिन यहाँ एक तरह का दोहराव भी लगता है और किताब के क्रम में एक व्यवधान सा आता भी दिखता है. ये दोनों अध्याय अगर बाजार और समाज में टकराव के पहले होते तो शायद बेहतर होता. जहाँ पहले अध्याय में उन्होंने अरस्तू और ईसाई धर्मगुरुओं की धन कमाने की बेलगाम प्रवृति के राजनीतिक सद्गुण और व्यक्ति के कल्याण के लिए घातक होने की मान्यता के साथ शुरुआत कर अठारहवीं सदी आते-आते पूंजीवाद के प्रमुख विचारक वाल्तेयर के इस निषकर्ष कि धार्मिक सहिष्णुता और बाजार के बीच घनिष्ठ संबंध होता है और फिर उनके इस स्टैंड कि धर्मगुरु, योद्धा और सामंत, खलनायक और व्यापारी नायक और बुद्धिजीवी होते हैं के बहाने पहले कही बात को ही और स्पष्ट किया है. बाद में वह पूंजीवादी विचारों के विकास और इसी के बरक्स समाजवाद के विचार के विकास का विस्तार से विवेचन करते हुए हीगेल, मार्क्स और शुम्पीटर जैसे विचारकों पर चर्चा करते हैं. यहाँ भी शुम्पीटर के बाद सीधे केन्स का आना थोड़ा खलता है. यहाँ विषय विस्तार माँगता था. पूंजीवादी संतुलन के अदृश्य हाथों या से के सिद्धांत के असफल होने के कारणों की विवेचना और उन स्थितियों के विवरण जिसके कारण महामंदी आई और केन्स उसके तारणहार बने, के बिना यह आम पाठक के लिए मुश्किलात पैदा करता है. हालांकि केन्स के बाद के विकास को जरूरी तवज्जो दी गयी है, जिसमें एक बार फिर से शासकीय नियंत्रण को समाप्त कर मुकरत बाज़ार विचारधारा की वापसी की बात की गयी है. हाँ, यहाँ अगर भारतीय संदर्भ में नेहरूवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था के तत्कालीन पूंजीवादी विश्व की मजबूरियों और सहूलियतों तथा समाजवादी ब्लाक की मजबूत उपस्थिति के बरक्स चर्चा की गयी होती तो पाठक के लिए इसके असली चरित्र को समझना और नेहरूवादी समाजवाद के पूंजीवादी रंग को पहचानना आसान हो जाता. साथ ही वह यह रेखांकित करने में भी स्पष्ट नहीं हैं कि बाज़ार नहीं बल्कि मुनाफे की हवस में डूबा अनियंत्रित पूंजीवाद हमारे समय के लिए घातक है, जिसके चलते उत्पादन आवश्यकता की पूर्ती की जगह माल के उपभोग को केन्द्र में रखकर किया जाता है. दिक्कत बाजार से नहीं, उस पर पूंजीवादी नियंत्रण से है, जिसमें सारा अधिशेष पूंजीपतियों की जेब में चला जाता है और इस प्रकार सामाजिक सम्पति व्यक्तिगत सम्पति में तब्दील होती जाती अहि और असमानता की खाई और गहरी होती जाती है. जिस सरलीकरण के खिलाफ उन्होंने शुरू में बात की थी, कई बार बाज़ार के खिलाफ जैसे टर्म्स का उपयोग कर वह खुद उसके शिकार होते हैं. यह विषय अलग से एक अध्याय की मांग करता है. इसके आगे मुद्रा बाजार की विवेचना है, जो अर्थशास्त्र न जानने वाले पाठकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
                
इस पुस्तक की एक विशिष्ट उपलब्धि है इसका अंतिम अध्याय ईश्वर मंडी और बाज़ार. वाल्तेयर बाजार की उपस्थिति में जिस धार्मिक सहिष्णुता की बात कर रहे थे, उसे तो खैर उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के इतिहास ने गलत साबित किया ही साथ ही मुनाफे की हवस ने धर्म को ही एक बाजार में तब्दील कर दिया. अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा हिन्दुस्तान में ही हुआ. लेकिन गिरीश जी एमिल जोला की किताब लुर्द के हवाले से बताते हैं कि किस तरह डेढ़ सौ साल पहले एक असामान्य दृष्टि वाली चौदह साल की बच्ची द्वारा कुमारी मेरी के तथाकथित दर्शन के किस्से का वाणिज्यिक उपयोग कर पोप की संस्तुति से एक स्थल को तीर्थस्थल और उसके पास के झरने को चमत्कारी घोषित कर वहाँ न केवल एक भव्य गिरिजाघर बनाया गया बल्कि उसे एक सफल वाणिज्यिक केन्द्र में तब्दील कर दिया गया. एक ऐसे दौर में जब औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव में चारों ओर वैज्ञानिकता का बोलबाला था, यह परिघटना रहस्यात्मकता के प्रति लोगों के असीम आकर्षण और पूंजीवादी बाज़ार द्वारा हर चीज को माल में तब्दील कर लेने को स्पष्ट रेखांकित करता है. भारत में तो ऐसे तमाम किस्सों से हम परिचित हैं ही.

कुल मिलाकर गिरीश जी की यह किताब हिन्दी में अर्थशास्त्र पर उपस्थित गैर पाठ्य-पुस्तकीय पुस्तकों की कमी को एक हद तक पूरा करने वाली ही नहीं बल्कि एक नई बहस को शुरू करने वाली भी है जो आम पाठक को चीजों को देखने की एक ताज़ा अंतर्दृष्टि देती है. हालांकि 174 पृष्ठों की इस किताब का 350/- रुपये का मूल्य पाठक  और किताब के बीच एक दूरी पैदा करता ही है, लेकिन यह भी साबित करता है कि पूंजीवादी बाज़ार ने किसी को नहीं छोड़ा है, यहाँ तक कि अपने विरोधियों को भी नहीं. 

समीक्षित पुस्तक बाज़ार अतीत और वर्तमान

लेखक गिरीश मिश्र

प्रकाशक ग्रन्थ शिल्पी

पृष्ठ संख्या 174 (हार्डबाऊंड)
मूल्य रु 350/- 
   

बुधवार, 13 जून 2012

जनसत्ता की बहस में समयांतर का दखल

(मंगलेश डबराल के एक संस्था में जाने और उसके बाद हम जैसों के विरोध के बाद उस पर खेद व्यक्त करने के प्रकरण को बहाना बनाकर जनसत्ता के यशस्वी संपादक आदरणीय श्री ओम थानवी जी ने जो 'बहस' चलाई, उससे आप लोग परिचित हैं. वह इस कदर 'लोकतांत्रिक' थी कि एक साहब ने यह लिखा कि 'योगी आदित्यनाथ साम्प्रदायिक हैं, लेकिन राष्ट्रभक्त हैं. उनके यहाँ जाने में क्या दिक्कत?". मैंने जो उत्तर दिया था उसे न छापने की वजह श्री थानवी जी ने उसका एक ब्लॉग पर प्रकाशित होना बताया, लेकिन अगले ही हफ्ते उसी ब्लॉग पर टिप्पणी के रूप में दर्ज एक पीस जनसत्ता के महान पन्नों पर प्रमुखता से छपा. और फिर झूठे तथ्यों और आरोपों से भरी अपनी एक टिप्पणी से उन्होंने इस 'बहस' को खत्म कर दिया. एक 'महान' अखबार का संपादक होने की यह सुविधा तो है उनके पास कि उसके पन्नों पर वह अपनी सुविधा के हिसाब से 'बहस' चलायें, लेकिन दुनिया जनसत्ता पर ही खत्म नहीं होती. समयांतर के ताजा अंक में 'दिल्ली मेल' स्तंभ के तहत  ओम थानवी जी और उनके चम्पूओं (शब्द जनसत्ता के एक चर्चित कालम से साभार) द्वारा चलाई गयी  उस बहस के तमाम मिथ्या आलापों-प्रलापों का जवाब देती यह टिप्पणी  यहाँ साभार प्रस्तुत है)


शीतयुद्ध के पुराने हथियार, नये प्रहार

पिछले पांच सप्ताह से जनसत्ता ने ऐसी बहस चला रखी है, जिसके लिए एब्सर्ड (बेहूदी, इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि हिंदी में बेहतर पर्यायवाची सूझ नहीं रहा है)सबसे उपयुक्त शब्द है। इसे जनसत्ता की सीमा कहें या हिंदी का दुर्भाग्य कि जब देश में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर इतनी जबर्दस्त हलचल हो और अखबार का संपादक या तो इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ रहा होता है या साहित्य के। क्या आपने इस संपादक को कभी किसी राजनीतिक विषय पर लिखते देखा है? अगर वह सामयिक होता है तो भी कुल मिलाकर साहित्यकारों की आवाजाही से आगे नहीं बढ़ पाता वरना तो आप जानते ही हैं कि वह 'मुअनजोदड़ो' पहुंच जाता है। इस पर हमें नवक्लासिकी अंग्रेजी कवि एलेक्जेंडर पोप की याद आ रही है जिन्होंने जुल्फों पर हुए एक विवाद पर 'रेप ऑफ द लॉक' नाम की लंबी कविता लिख मारी थी। वह कविता और कवि अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में साहित्य के क्षुद्रताओं में फंस जाने के उदाहरण के तौर पर याद किया जाता है। 

इस एब्सर्डिटी का सबसे बड़ा कारण यह है कि यह पूरा लेख इंटरनेट के उन गैरजिम्मेदाराना और अधिकांशत: संदेहास्पद स्रोतों पर आधारित है जिनके चलानेवालों में से अधिकांश की विश्वसनीयता ही शंकास्पद है। यह अचानक नहीं है कि वे अराजकता व उच्छृंखलता के माहिर हैं। पर इससे क्या! ओम थानवी तो अपने लेख की शुरुआत ही इंटरनेट की आरती के साथ करते हैं। सवाल है क्या यह संजाली-प्रेम यों ही उमड़ पड़ा है? और क्या अब संपादक महोदय बुक नहीं सिर्फ फेसबुक में ही उलझे रहते हैं? ऐसा लगता नहीं है। अशोक वाजपेयी की शब्दावली में कहें तो वह ''चतुर-सुजान'' आदमी हैं। विवाद की शुरुआत 29 अप्रैल, 12 के अंक में थानवी के लिखे लेख से हुई जिससे ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है मानो वह साहित्य और बौद्धिक जगत में उदारता की वकालत कर रहे हों। इस में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? पर उदारता की आखिर सीमा क्या है या क्या होनी चाहिए इसकी बात वह नहीं करते।  असल में इस लेख का असली उद्देश्य वामपंथियों और उनके संगठनों को निशाना बनाना है। दक्षिण पंथ की यह सबसे बड़ी रणनीति रही है कि वह जिसे निशाना बनाता है उसे सबसे पहले अनुदार व कट्टर घोषित करता है और फिर आतंकवादी करार देता है।

फिलहाल लोकतंत्र और उदारता की बात करनेवाले पश्चिम द्वारा दुनिया के मुसलमानों के खिलाफ यही तरीका अपनाया जा रहा है। दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया भर में ठीक यही रणनीति कम्युनिस्टों के खिलाफ अपनायी गई थी। उसी दौरान कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसी सीआईए पोषित संस्थाएं अस्तित्व में आईं और भारत में उससे ओम जी के आराध्य अज्ञेय व अन्य कलावादी और रेडिकल ह्यूमेनिस्ट जुड़े थे।इस पर याद आया कि थानवी के कम्युनिस्टों पर इस बार निशाना साधने का कारण निजी है। (यह बात और है कि वह नवउदारवादी नीतियों से मेल खा रहा है।) वह कम्युनिस्टों से इसलिए जले बैठे हैं कि उन्होंने थानवी के अज्ञेय महोत्सव को उस तरह सफल नहीं होने दिया जैसा वह चाहते थे। इसलिए मंगलेश डबराल तो सिर्फ बहाना हैं।

इसी तरह वह कहते हैं कि  ''पंकज बिष्ट देहरादून में रमाशंकर घिल्डियाल 'पहाड़ी' की जन्मशती पर भाजपाई कवि रमेश पोखरियाल निशंक के साथ मंच पर बैठे तो इसकी चर्चा भी तल्खी से हुई।'' यह बात भी तथ्यात्मक रूप से गलत है। पंकज बिष्ट मंच पर बैठे ही नहीं। वह सिर्फ अपनी बात कहने के लिए मंच पर चढ़े थे और उस के खत्म होने के साथ नीचे उतर गए।  वैसे भी वह मंच निशंक का नहीं था न ही वह अवसर किसी कलावादी या प्रतिक्रियावादी या सांप्रदायिक नेता की जन्मशती का था। बल्कि वह अवसर एक कम्युनिस्ट की जन्मशती का था। बिष्ट वहां क्यों गए और वहां उन्होंने क्या कहा वह सब (समयांतर दिसंबर, 11) उन्हीं के द्वारा लिखा जा चुका है। सच यह है कि आज तक किसी ने उस लिखे हुए को कहीं भी किसी तरह की कोई चुनौती नहीं दी है। यहां तक कि संजालियों-जंजालियों ने भी नहीं।  वामपंथियों ने कहीं भी इस बात पर आपत्ति नहीं की कि पंकज बिष्ट वहां क्यों गए। जहां और जिन लोगों ने शुरू में करने की कोशिश की उनसे ओम थानवी खासे परिचित हैं। वे वामपंथी नहीं हैं हां संजालिए जरूर हैं। उन्हें वामपंथी कहने के पीछे थानवी के निहित स्वार्थ हैं जो छिपे नहीं हैं।   

पर हम इस विवाद पर समय खराब करने की जगह उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर बात करने की कोशिश करते हैं। 

कोई कहां जाता है और क्यों जाता है यह मसला निजी विवेक और तात्कालिकता से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए आपातकाल में वामपंथ और आरएसएस तक ने मिल कर काम किया था। या माना कल को नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में कोई आयोजन वली दकनी पर करें तो कैसे कोई सेक्युलर कवि, बुद्धिजीवी या संस्था उसमें भाग लेने जा सकती है? या धर्मनिरपेक्षता पर ही कोई आयोजन करे तो कोई कैसे वहां जाएगा? अपने उत्तर में चंचल चौहान ने यह बात बड़े  तार्किक ढंग से रख दी है। उन्होंने थानवी के इस अरोप को भी बे-बुनियाद साबित कर दिया है कि वामपंथी लेखक संगठन अपने सदस्यों को आदेश देते हैं कि वे कहां जाएं और कहां न जाएं। उन्होंने उदय प्रकाश के जलेस से तथाकथित मोहभंग के झूठ को भी साफ कर दिया है: ''ओम थानवी ने उदय प्रकाश के जनवादी लेखक संघ से 'मोहभंग' के विचित्र कारण की शोधमयी पत्रकारिता करते हुए ऐसा आभास दिया जैसे जनवादी लेखक संघ 'अर्जुन सिंह की गोद में जा बैठा', और इस वजह से उदय प्रकाश जलेस से भाग गए, ऐसा विचित्र तर्क तो उदय प्रकाश भी संभवत: स्वीकार नहीं करेंगे, और जलेस से उन्होंने इस्तीफा दे दिया हो, ऐसा भी कोई सबूत नहीं है।'

पर थानवी के लेख में हिंदी साहित्य के परम पीडि़त लेखक उदय प्रकाश को लेकर कुछ बहुत ही मजेदार बातें कही गई हैं। उन पर आने से पहले हम याद दिलाना चाहेंगे कि जब अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उदय प्रकाश दौड़कर नौकरी के लिए भोपाल पहुंचे थे। वहां उन्हें किसने बुलाया था या वह कैसे गए थे इन पर विस्तार से बात करने का यह स्थान नहीं है। उन्होंने उदय प्रकाश के इंटरनेट के हाल के लेख को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह 16 साल सीपीआई के पूर्णकालिक सदस्य थे, बाईस वर्ष सीपीएम से जुड़े जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहे। सात साल पहले उनका जनवादी लेखक संघ से मोहभंग हुआ है। 

अब जरा इस गणित को देखिये। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि उदय प्रकाश दिल्ली आने के बाद, और वह दिल्ली आपात काल के दौरान आ चुके थे, जनवादी लेखक संघ (जिसका जन्म ही 1982 में हुआ) से जुड़ गए थे। फिर सात साल पहले उनका जलेस से मोहभंग भी हो चुका है यानी इस तरह 36 वर्ष तो उन्हें दिल्ली में ही हो गए हैं। तब निश्चय ही उससे पहले वह सीपीआई में होंगे। क्या वह सीपीआई के सदस्य 12-13 वर्ष की अवस्था में हो गए थे? क्या उनके इलाके में सीपीआई ने 'बाल-भाकपा' बनाई हुई थी? 

अब दूसरी बात लीजिए। थानवी लिखते हैं, ''तीन साल पहले गोरखपुर में उदय के फुफेरे भाई का निधन हो गया। वे जिस कॉलेज के प्राचार्य थे, वहां उनकी बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में कॉलेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष और विवादास्पद सांसद योगी आदित्यनाथ ने उदय प्रकाश को उनके भाई की स्मृति में स्थापित पुरस्कार दिया।... उदय बार-बार कहते हैं उन्हें खबर नहीं थी, न अंदाज कि उनके और भाई की स्मृति के बीच योगी आदित्यनाथ आ जाएंगे।''

पहली बात तो यह है कि आदित्यनाथ का साहित्य या पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं है। वह उस कालेज की कार्यकारिणी के अध्यक्ष हो सकते हैं जो उनका मठ चलाता है पर उनका अकादमिक जगत से भी कोई संबंध नहीं है। यहां उनके और राकेश सिन्हा के बीच के अंतर को समझा जा सकता है। राकेश सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिविज्ञान के प्राध्यापक हैं और लेखक हैं। यह ठीक है कि उन्होंने हेडगेवार पर किताब लिखी है इस पर भी वह हैंतो लेखक ही। उनसे असहमति और बातचीत की गुंजाइश बनी रहती है पर आदित्यनाथ और एक लेखक के बीच कौन- सा ऐसा बिंदु है जो किसी तरह के संबंध या संवाद की गुंजाइश छोड़ता है? भारत नीति प्रतिष्ठान संघियों का गढ़ हो सकता है पर वह स्वामियों का अखाड़ा तो नहीं ही है। इसलिए उसे लेकर जिस तरह से विवाद खड़ा किया  गया है वह पूरी तरह शंकास्पद है। फिर आदित्यनाथ मात्र विवादास्पद नहीं हैंबल्कि घोर सांप्रदायिक और जातिवादी हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई सांप्रदायिक दंगों से उनका संबंध रहा है और 'उत्तर प्रदेश को गुजरात बना देना है' जैसे आह्वान वह समय-समय पर करते रहे हैं। यही कारण है कि लेखकों ने उदय प्रकाश के आदित्यनाथ के हाथ से 'कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति सम्मान' लेने की आलोचना करते हुए कहा था: 'हम अपने लेखकों से एक जिम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं...।'  (उस समारोह के निमंत्रण पत्र में बतलाया जाता है कि उदय प्रकाश का नाम कुंवर उदय प्रकाश सिंह छपा था। क्या यह संयोग मात्र था?) यहां याद करना जरूरी है कि लेखक कोई तटस्थ व्यक्ति नहीं होता है। यह देश सांप्रदायिकता के कारण विभाजन जैसी त्रासदी से गुजर चुका है और आज भी इस समस्या से पार नहीं पा सका है। नरेंद्र मोदी और आदित्यनाथ इस समाज के लिए कलंक हैं। हर रचनात्मक कर्म का संबंध गहरी नैतिक चेतना और दायित्व बोध से होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो लेखक होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। यही कारण है कि उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल आदि की द्विजदेव पुरस्कार लेने के लिए आलोचना की गई थी। द्विजदेव ने 1857 में  अंग्रेजों का साथ दिया था और स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के पुरस्कार स्वरूप उन्हें अयोध्या की जागीर मिली थी।  

पर इन सब बातों को छोडि़ए। तत्काल कई  सवाल हैं जिनके जवाब उदय प्रकाश को (और उनके पब्लिसिस्ट ओम थानवी को भी) देने चाहिए। पहला, उनके फुफेरे भाई के नाम पर शुरू किया गया वह पुरस्कार क्या सिर्फ परिवार के ही लोगों के लिए था या औरों के लिए भी था? अगर औरों के लिए भी था तो क्या शालीनता के लिए उदय प्रकाश को यह नहीं कहना चाहिए था कि इस पुरस्कार को कम से कम पहली बार परिवार से बाहर के किसी और लेखक को दिया जाए, मैं बाद में ले लूंगा? यह किसी से छिपा नहीं है कि उदय प्रकाश हिंदी के सबसे ज्यादा अलंकृत लेखकों में से हैं। अगर वह एक पुरस्कार के लिए थोड़ा रुक ही जाते तो क्या उनकी प्रतिष्ठा घट जाती? 

क्या थानवी बताएंगे कि इस शृंखला का दूसरा, तीसरा या चौथा पुरस्कार किस-किस को मिला है? तब क्या यह सिर्फ उदय प्रकाश को देने के लिए आयोजित किया गया था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि स्वर्गीय भाई की स्मृति को सिर्फ आड़ के रूप में इस्तेमाल किया गया हो? ऐसा तो नहीं है कि इस आयोजन के पीछे उद्देश्य  कुछ और ही रहा हो, जिसमें आदित्यनाथ महत्त्वपूर्ण घटक था? 

इंटरनेट पर ही एक और लेख इस बीच आया है जो सुना है प्रकाशन के लिए पहले जनसत्ता को भेजा गया था पर संपादक महोदय ने उसे छापने से इंकार कर दिया। वह है अशोक कुमार पाण्डेय का। इस लेख में दावा किया गया है कि आदित्यनाथ ने अमर उजाला को दिए अपने साक्षात्कार में विवाद पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मैंने तो उदय प्रकाश को पहले ही कह दिया था कि मुझे न बुलवाएं विवाद हो जाएगा। यह बात 5 अगस्त, 2009 को इंडिया टुडे हिंदी ने अपने उत्तर प्रदेश संस्करण में भी छापी थी। हफ्तों से चल रहे विवाद में, जिसमें अब तक दर्जन भर लेख छप चुके हैं, जनसत्ता के पास अशोक कुमार पाण्डेय का लेख छापने की जगह नहीं है। इसलिए कि सारा अभियान निश्चित रणनीति के तहत चलाया जा रहा है इसलिए सिर्फ चुनिंदा लेख छप रहे हैं। जो लेख जरा भी असुविधाजनक साबित हो रहे हैं उनका जवाब प्रायोजित तरीके से अगले सप्ताह दिया जा रहा है।

संयोग देखिए, साल के अंदर ही उदय प्रकाश को मोहन दास कहानी (उर्फ उपन्यास?) पर साहित्य अकादेमी मिला।

संयोग और भी बहुत से हैं। जैसे कि साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उसी गोरखपुर के हैं जहां आदित्यनाथ का लट्ठ पुजता है। (जनवरी, 2011 के दिल्ली मेल में लिखा गया था, ''हिंदी भाषा के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं। इस पर याद आया कि पिछले वर्ष किसी प्रसंग में समयांतर में ही लिखा गया था कि आजकल अकादेमी का एक रास्ता वाया गोरखपुर होकर भी जाता है, जो स्वामी आदित्यनाथ का कार्य और संसदीय क्षेत्र है।'')

इसी तरह उदय प्रकाश का जलेस से मोहभंग उसी दौरान होता है जब दिल्ली में एनडीए की सरकार आ जाती है। वह थानवी को बतलाते हैं कि उन्होंने जलेस छोड़ दिया है पर संगठन से नहीं कहते कि वह जलेस छोड़ रहे हैं।  न ही इतने बड़े नैतिक स्टैंड (?) की सार्वजनिक घोषणा करते हैं या जलेस की अर्जुन सिंह की गोद में बैठ जाने के लिए आलोचना करते हैं। (निर्बाध आवाजाही के लिए?) इसी दौरान उनका पांचजन्य में साक्षात्कार छपता है। वहां भी तर्क यही है कि मुझे नहीं पता था कि यह साक्षात्कार पांचजन्य के लिए लिया जा रहा है। इस पर उदय प्रकाश की जो छीछालेदर उनकी पुरानी सहयोगी ने की वह पाखी (मई, 2011)के पन्नों में दर्ज है।

यह प्रसन्नता की बात है कि उदय अमेरिका में हैं। वह जिस परंपरा से जुड़ गए हैं वह भी कम भव्य नहीं है: अज्ञेय, कैलाश वाजपेयी, निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद और अशोक वाजपेयी। इनमें कुछ भारतीय दर्शन, संस्कृति और राष्ट्रीयता के अग्रदूत हैं तो कुछ रूपवाद के। पर ओम थानवी यह बताएं कि अगर उदय सीपीआई में होते या सीपीएम में होते तो वर्जीनिया विश्वविद्यालय उन्हें बुलाता? या फिर क्या किसी घोषित कम्युनिस्ट लेखक को आज तक किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय ने बुलाया है?

ओम थानवी ने उदय प्रकाश के ब्लॉग में प्रकाशित लेख का उद्धरण विस्तार से छापा है जिसमें उदय ने त्रिलोचन शास्त्री और शैलेश मटियानी के संदर्भ से वामपंथी लेखक संगठनों पर हमला बोला है। उनके अनुसार:  '' क्या हम हिंदी के अप्रतिम कवि - और प्रगतिशील कविता वृहत्रयी में से एक - त्रिलोचन को याद करें, जो पहले स्वयं वामपंथी संगठन से निकाले गए, फिर दिल्ली से उनको शहर बदर करके हिंदू तीर्थ-स्थल हरिद्वार भेज दिया गया। अत्यंत विषम परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हुई ...। क्या हम शैलेश मटियानी को याद करें, जिन्हें जिंदा रहने और अपना परिवार पालने के लिए कसाई (चिकवा-गीरी) का काम करना पड़ा, ढाबों में बर्तन मांजने पड़े?...।'
   
जिस तरह से ये प्रसंग उठाए गए हैं वे लेखकीय मंशा को पूरी तरह उजागर कर देते हैं। त्रिलोचन शास्त्री को कितनी उम्र में जसम से हटाया गया? उन्हें किसने हरिद्वार भेजा? क्यों भेजा? क्या उनके परिवार में कोई नहीं था? वहां वह किसके साथ रहते थे? उनके दो बेटे कहां हैं? वह अंतिम दिनों में वृद्धावस्था के कारण होनेवाले सेनाइल सिंड्रोम या एलजेमियर से पीडि़त नहीं थे? उनकी मृत्यु भरी-पूरी उम्र में बुढ़ापे से जुड़ी बीमारियों के कारण हुई, क्या यह सच नहीं है?

मटियानी को कसाई का काम अपनी पारिवारिक दुकान में करना पड़ा था। इसमें क्या बुराई है? काम तो काम है! उदय प्रकाश जिस ब्राह्मणवाद की कब्र खोदने में लगे हैं क्या वह स्वयं उसी के शिकार नहीं नजर आते हैं? वैसे क्या लेखक दलाई लामा होता है कि पैदा होने के साथ ही उसमें ऐसे चिह्न होते हों कि उसे तुरंत पहचान लिया जाए कि बेटा नामी कथाकार होने वाला है? एक बार लेखक बन जाने के बाद मटियानी ने सिवा लेखन के क्या कोई और काम किया? नौकरी न करना उनका अपना निर्णय था। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें नौकरियां मिलती ही नहीं या मिल ही नहीं रही थीं।

मटियानी, शास्त्री आदि के नाम का इस्तेमाल करना आसान है, उनके डंडे से दूसरों को पीटना तो और भी आसान। पर क्या उदय प्रकाश बतलाएंगे कि जब मटियानी दिल्ली के मानसिक रोग चिकित्सालय में भर्ती थे वह उनसे एक बार भी मिलने गए थे? यह अस्पताल उदय प्रकाश के घर से चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर ही है। उनके पास तो कार भी कई वर्षों से है। क्या उन्होंने कभी मटियानी की कहानियों पर या उनके जीवन संघर्ष पर कहीं एक पैरा भी लिखा है? उन्हें कहीं श्रद्धांजलि ही दी हो? वह तो हिंदी में पीएचडी हैं। इतना तो कर ही सकते थे। त्रिलोचन शास्त्री के लिए उन्होंने क्या किया, जो बीमारी के दौरान अंतिम दिनों में उनके घर के बगल में ही रहते थे? उदय प्रकाश और थानवी को भी याद दिलाना जरूरी है कि शास्त्री जी के उपचार व मदद के लिए दिल्ली की मुख्य मंत्री के पास जो प्रतिनिधि मंडल गया था उसमें कई वामपंथी लेखक निजी तौर पर और उनके तीनों संगठन के प्रतिनिधि शामिल थे पर जो रिपोर्ट जनसत्ता में इस संबंध में छपी थी, क्या उसमें उदय प्रकाश का नाम था? वैसे यह बतलाना जरूरी है कि दिल्ली सरकार ने शास्त्री जी की भरसक मदद की थी। इसी तरह भाजपा सरकार ने शैलेश मटियानी की।

थानवी ने लिखा है: ''एक लेखक के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के विरोध में इतनी बड़ी तादाद में हिंदी लेखक न कभी पहले एकजुट हुए, न बाद में।' निश्चय ही यह सही है पर इस के साथ यह भी सही है कि इस दर्जे की अवसरवादिता न कभी पहले देखने को मिली और न ही बाद में। पर ऐसा भी नहीं है कि हिंदी लेखक समय-समय पर उन बातों का विरोध न करते रहे हों जिनसे समाज और साहित्य का सरोकार हो। स्वयं जनसत्ता के सती प्रथा का महिमा मंडन करनेवाले एक संपादकीय का विरोध करने में पूरे सौ लेखक शामिल थे। इसलिए लेखकों का विरोध न कोई नई बात है और न ही आश्चर्य की। समझने की बात यह है कि वह किसी एक कारण तक सीमित नहीं होता और न ही भविष्य में होगा।

जो भी हो यह कितना दुखद है कि उदय प्रकाश निजी स्कोर सैटल करने के लिए दो दिवंगतों का इस्तेमाल इतनी अशालीनता और हृदयहीनता से करने में जरा भी झिझक नहीं महसूस कर रहे हैं और थानवी भी उसी हथियार से वामपंथियों के आखेट का आनंद ले रहे हैं।

2 - पर उपदेश कुशल बहुतेरे

समयांतर और पंकज बिष्ट ओम थानवी का किस तरह से पीछा (हांट) करते हैं उसका उदाहरण इधर तहलका पाक्षिक में छपा उनका साक्षात्कार है। यह साक्षात्कार कई तरह की गलत बयानियों से भरा है और स्वयं उनके दोहरे चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है।

साक्षात्कार पर आने से पहले थानवी के इन आप्त वाक्यों को देखें: ''लेकिन क्या ये प्रसंग सचमुच ऐसे हैं, जिन्हें लेकर इतना हल्ला होना चाहिए? क्या हम ऐसा समाज बनाना चाहते हैं, जिसमें उन्हीं के बीच संवाद हो जो हमारे मत के हों? विरोधी लोगों के बीच जाना और अपनी बात कहना क्यों आपत्तिजनक होना चाहिए? क्या अलग संगत में हमें अपनी विचारधारा बदल जाने का भय है? क्या स्वस्थ संवाद में दोनों पक्षों का लाभ नहीं होता? यह बोध किस आधार पर कि हमारा विचार श्रेष्ठ है, दूसरे का इतना पतित कि लगभग  अछूत है! पतित है तो उस पर संवाद बेहतर होगा या पलायन?... दुर्भाव और असहिष्णुता का यह आलम हमें स्वतंत्र भारत का अहसास दिलाता है या स्तालिनकालीन रूस का? 'आवाजाही के हक में' जनसत्ता, 29 अप्रैल, 2012।

कितनी उत्तम बातें हैं! कैसे उदात्त विचार और कैसी सदाशयता है! क्या बात है!

अब देखिये थानवी 15 दिन बाद ही  तहलका (15 से 31 मई) के  साक्षात्कार में क्या कहते हैं: ''पंकज बिष्ट ने अपनी पत्रिका समयांतर में लिखा कि वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए। उन्होंने तीन पेज की रिपोर्ट लिखी। उसमें अपील की कि लेखकों को कार्यक्रम में शिरकत नहीं करनी चाहिए। हम लोगों ने पंकज बिष्ट जी को आमंत्रित किया और वे कलकत्ता चले आए। आप देख सकते हैं कि इनकी कथनी और करनी में कितना अंतर है।''

निश्चय ही किसी कथनी और करनी में अंतर है, पर जानने की बात यह है कि किसकी?

जनसत्ता, 29 अप्रैल, 2012 में लिखे अपने लेख 'आवाजाही के हक में' के अनुसार तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था कि पंकज बिष्ट उन के आमंत्रण को स्वीकार कर अपने-अपने अज्ञेय के दूसरे विमोचन, जो उपराष्ट्रपति द्वारा किया जा रहा था, और संगोष्ठी में भाग लेने कोलकाता 'चले आए' थे। 'आवाजाही' की उनकी वकालत का इससे अच्छा प्रमाण क्या हो सकता था। पर तब उन्हें वामपंथियों को कोसने का मौका कैसे मिलता! साफ है कि हाथी के दांत खाने के और हैं और दिखाने के और। इस वक्तव्य में और भी कुछ छिपा है, जो छोटेपन या कहें उनकी अनुदारता का प्रमाण है। उनको पंकज बिष्ट का कोलकाता आना अच्छा नहीं लगा। क्यों कि बिष्ट ने कोलकाता पहुंचकर भी उस अखंड कीर्तन में अपना स्वर नहीं मिलाया जिसमें शेष आमंत्रित शामिल थे। वह पंकज बिष्ट का 'भंडाफोड़'  इसलिए करना चाहते हैं कि उन्होंने वहां भी अज्ञेय के बारे में कई ऐसी बातें कही थीं जो थानवी को रास नहीं आईं। कहां गई उनकी वह उदारता जो वह अपने जनसत्ता वाले लेख में मंगलेश डबराल को पीटने के लिए इस्तेमाल करते हैं? कोलकाता से लौट कर बिष्ट ने जो लिखा वह ओम थानवी के लिए किस तरह से असुविधाजनक साबित हुआ वह भी देखने लायक है। थानवी ने अपने साक्षात्कार में कहा है: ''एक अखबार ने लिखा कि अज्ञेय आयोजन में हिंदी के लोग कम बंगाल के लोग ज्यादा शामिल थे...। '' उन्होंने बतलाया नहीं कि वह कौन-सा अखबार था? वह था समयांतर जिसने लिखा था, वहां जो बंगाली भद्रलोक इकठ्ठा हुआ फिर चाहे उसमें शंको घोष हों, सौमित्र चटर्जी हों या अन्य छोटे-बड़े अभिनेता-अभिनेत्री, वे सब उपराष्ट्रपति के कारण ही शामिल हुए थे क्योंकि कोलकाता में उपराष्ट्रपति का आना बड़ी बात थी। उस रिपोर्ट में और भी कई ऐसी बातें थीं जो निश्चित है कि अज्ञेय भक्तों को रास नहीं आई होंगी। (देखें: 'सरोकार निजी बनाम सामाजिक', समयांतर, मार्च, 2012)

आप तहलका के इस साक्षात्कार की भाषा को नोट कीजिए 'चले आए'।  यानी बिष्ट बैठे हुए थे कि उन्हें कोई कोलकाता बुलाए। बेचारे ने कोलकाता कभी देखा नहीं था या हवाई यात्रा नहीं की थी, विशेषकर फ्री फंड की, जो पत्रकारों को अक्सर ही उपलब्ध रहती है।  इसलिए वह मरे जा रहे थे। पर वह वहां कैसे गए चूंकि ये बातें समयांतर की रिपोर्ट में बताना जरूरी नहीं था इसलिए उस पर बात ही नहीं की। पर चूंकि थानवी ने इस छोटी बात को उठा दिया है तो अब यह भी बता ही दिया जाना चाहिए। क्या ओम थानवी ने उस पंकज बिष्ट को, जो अज्ञेय को अंग्रेजों का एजेंट बताता रहा हो, उसी उदारता के चलते बुलाया था जिसकी वकालत उन्होंने जनसत्ता के अपने लेख में की है? या क्या वह बिष्ट को जानते नहीं थे? या थानवी उन्हें कोलकाता की यात्रा की घूस देकर अपने पक्ष में कर लेना चाहते थे? उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का होगा कि समयांतर ने ही इस बात को रेखांकित किया था कि थानवी अपनी किताब का तीन बार विमोचन करवा चुके हैं। यहां तक कि उपराष्ट्रपति को भी इस बात का पता नहीं था कि अपने-अपने अज्ञेय का उनसे पहले भी लोकार्पण किया जा चुका है।

इस परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है कि उन्हें पंकज बिष्ट के कोलकाता आने से क्यों कष्ट हुआ होगा। ऐसे में वह बिष्ट को क्यों बुलाते और उन्होंने बुलाया भी नहीं।  वह यह बतलाने से झिझक क्यों रहे हैं कि पंकज बिष्ट उन पर लादे गए थे। पंकज बिष्ट को निमंत्रण प्रभा खेतान फाउंडेशन की ओर से उनके ही आदमी द्वारा मिला था। यह दो दिन तक कोलकाता रहने का था, पर बिष्ट उस दौरान इतने व्यस्त थे कि उन्होंने मेजबानों से कहा कि उनके लिए एक रात से ज्यादा कोलकाता ठहरना संभव नहीं है और इसीलिए वह अगले ही दिन, यानी गोष्ठी खत्म होने से एक दिन पहले, चले आए थे। उनके लौटने का प्रबंध प्रभा फाउंडेशन ने यथानुसार कर दिया था। बिष्ट को प्रभा खेतान फाउंडेशन ने इसलिए बुलाया था क्योंकि वह प्रभा खेतान के मित्रों में रहे हैं। वह भी वहां प्रभा खेतान के सम्मान के कारण गए थे। यह पहली बार भी नहीं था कि वह प्रभा खेतान फाउंडेशन द्वारा आयोजित किसी समारोह में कोलकाता गए हों। इससे पहले फरवरी, 2010 में भी वह फाउंडेशन के समारोह में वहां जा चुके थे। संयोग से उसमें भी ओम थानवी उपस्थित थे पर उस आयोजन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

ओम थानवी बताएं कि उनकी किताब के विमोचन के इस आयोजन में किस संस्था ने क्या और कितना आर्थिक सहयोग किया था? असल में आयोजन का सारा खर्च प्रभा खेतान फाउंडेशन ने ही उठाया था, जिसमें डेढ़ हजार रुपए कीमत की अपने अपने अज्ञेय की सौ प्रतियां खरीदना भी शामिल था, बाकी संस्थाओं की भूमिका मात्र प्रतीकात्मक थी।

ओम थानवी अपने तथ्यों में कितने दुरुस्त हैं इसके सिर्फ दो प्रमाण प्रस्तुत हैं:

एक : ओम थानवी ने तहलका  में कहा है कि ''पंकज बिष्ट ने अपनी पत्रिका समयांतर में लिखा कि वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए। उन्होंने तीन पेज की रिपोर्ट लिखी। उसमें अपील की कि लेखकों को कार्यक्रम में शिरकत नहीं करनी चाहिए। वामपंथियों को अज्ञेय की जन्मशती का विरोध करना चाहिए?'' हम थानवी और तहलका, दोनों को चुनौती देते हैं कि वे बतलाएं कि पंकज बिष्ट ने समयांतर के कौन से अंक में यह लिखा? इससे ज्यादा गैरजिम्मेदाराना कोई बात हो ही नहीं सकती। 

हां उनके द्वारा संपादित पत्रिका में एक लेख में यह जरूर कहा गया था कि वाम पंथियों को अज्ञेय की शताब्दी नहीं मनानी चाहिए।  उस में भी ''जन्मशती का विरोध'' जैसी कोई बात नहीं थी। बल्कि यह कहा गया था कि जो मनाना चाहते हैं मनायें। दोनों बातों में कितना अंतर है, पाठक समझ सकते हैं। स्वयं गत वर्ष अपने लेख 'अज्ञेय के दिल जले' को अगर थानवी देखें तो उन्हें मिल जाएगा कि यह बात अजय सिंह ने लिखी थी। क्या थानवी और तहलका अपनी गलती सुधारेंगे?

दूसरा: थानवी के अनुसार, ''शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ उनके पहले सप्तक तार सप्तक में शामिल थे।'' यह बात तथ्यात्मक रूप से गलत है। 'उनके पहले सप्तक' का क्या अर्थ है वही जानें? पर तार सप्तक का मतलब ही पहला सप्तक है। सच यह है कि तार सप्तक में न तो शमशेर शामिल थे और न ही केदारनाथ, फिर चाहे वह अग्रवाल हों या सिंह। केदारनाथ अग्रवाल तो किसी भी सप्तक में शामिल नहीं थे। हां, केदारनाथ सिंह जरूर तीसरे सप्तक में शामिल हैं।

अगर थानवी के इस साक्षात्कार को देखा जाए तो, जो बात उभर कर सामने आती है, और जिसे कोई अंधा भी देख सकता है वह यह है कि संकीर्णता वामपंथी नहीं वह दिखला रहे हैं बल्कि वह स्वयं वैचारिक संकीर्णता और जबर्दस्त छोटेपन के शिकार हैं। अगर वामपंथी लेखक संगठन अपने लेखकों को अन्य जगह जाने से रोकते तो फिर नामवर सिंह (प्रलेस) और मैनेजर पाण्डेय (जसम) अज्ञेय के जन्मशती समारोहों में कैसे पहुंचते? पंकज बिष्ट कैसे पहुंचते? और प्रणय कृष्ण कैसे अज्ञेय पर मुग्ध भाव से लिखते? पर लेखक संगठन और स्वयं सामाजिक रूप से सजग लेखक अपने साथियों से यह अवश्य चाहते हैं कि वे जहां भी जाएं देख-भाल कर जाएं। अगर कोई इरादतन कुछ करता है और फिर अपने पापों को ढकने के लिए उसे दूसरों के सर मढ़ता है तो इसका क्या किया जा सकता है?

समयांतर में जब कोलकाता (मार्च) और उसके बाद दिल्ली (अप्रैल) समारोहों की रिपोर्टें छपीं तो निश्चित था कि इन्हें इतनी आसानी से सहन नहीं किया जाएगा। हम तैयार थे पर यह जवाबी कार्रवाही इतनी  बचकानी होगी इसकी हमें उम्मीद नहीं थी। पर मजे की बात यह है कि उन्होंने जो बातें अपने लेखक में कही हैं जैसे कि पंकज बिष्ट निशंक के साथ बैठे या फिर कोलकाता हमारे बुलाने पर गए ये दोनों ही बातें उनके प्रिय ब्लॉगों में से एक में लिखी गईं थीं। आखिर ओम थानवी से पहले यह बात उस ब्लॉग में कैसे लिखी गई जिसे बाद में उन्होंने उद्धृत किया है? संभव है, और इस अतार्किकता के माहौल में तो कुछ भी संभव है, कि कभी ब्लॉग के जंजाली थानवी से प्रेरणा लेते हों और फिर थानवी ब्लॉगों से।

रविवार, 10 जून 2012

बागी टिहरी गाये जा

  • विजय गौड़ 


ब्रिटिश शासन से कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर शासित न होने वाला टिहरी, उस उत्तराखण्ड राज्य का एक जनपद है जो प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रहे (ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊ कमिश्नरी) इतिहास का सच है। 1947 की आजादी के वक्त हैदराबाद और कश्मीर की तरह टिहरी भी गणतांत्रिक भारत का हिस्सा न था, यह इतिहास है। जबकि टिहरी की जनता गणतांत्रिक भारत का हिस्सा होने को बेचैन थी। टिहरी राजशाही के खिलाफ प्रजा मण्डल का आंदोलन इस बात का गवाह है। यह अलग बात है कि गणतांत्रिक भारत से अपने को स्वतंत्र मानने की जिद पर अड़ी रही राजशाही को आज अंधराष्ट्रवादी किस्म की राजनीति राष्ट्रवाद का तमगा देती हो और प्रजामण्डल जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन में शिरकत करती जनता को बागी। 'बागी टिहरी गाये जा", कथाकार विद्यासागर नौटियाल का ललित निबंध है। प्रजा मण्डल के आंदोलन में ही शिरकत करते हुए युवा हुए विद्याासागर नौटियाल को हिन्दी का साहित्य जगत एक ऐसे कथाकार के रूप्ा में जानता है जिनका सम्पूर्ण रचनाकर्म अपने जनपद टिहरी की कथा को कहता रहता है। टिहरी का इतिहास, टिहरी का भूगोल और टिहरी के लोगों की मानसिक बुनावट के कितने ही चित्र उनकी रचनाओं में साक्षात हैं। वे 'टिहरी की कहानियां" कहते हैं। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ों की पृष्ठ भूमि को देखना उस सच्चाई तक न पहुंचना है, जिसको लगातार-लगातार लिखने के लिए कथाकार विद्यासागर नौटियाल बेचैन रहे। उनका, शायद अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" जिसे किताबघर को भेजते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 2011 को मुझे मेल किया था, मेरे कथन का साक्ष्य है। 29 सितम्बर 1933 को गांव मालीदेवल, टिहरी में पैदा हुए कथाकर विद्यासागर नौटियाल न सिर्फ हमें, बल्कि उस टिहरी को भी विदा कह चुके हैं, जो टिहरी गत वर्षों में झील में समा गयी। 12 फरवरी 2012 की सुबह उन्होंने अपनी अंतिम सांस बैंग्लोर के एक अस्पताल में छोड़ी।

विद्यासागर नौटियाल से मेरा सम्पर्क 1993 के आस पास हुआ था। उस वक्त वे 60 वर्ष की उम्र पार कर रहे थे।  60 वर्ष की उम्र प्राप्त कर चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल देहरादून में रहते हैं, यह जानना मेरे लिए एक अनुभव था। 'फट जा पंचधार" हंस में छप चुकी थी और मैं उस कहानी के गहरे प्रभाव में था। पहाड़ की मुख्यधार के जनजीवन से बाहर के समाज की कथापात्र, एक कोल्टा स्त्री की कथा में आक्रोश और विद्रोह की तीव्रता भरा आख्याान मैंने पहले किसी अन्य कहानी में न पढ़ा था। युगवाणी उस वक्त तक साप्ताहिक पत्र था। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौर में जारी आंदोलन की खबरों को जनता तक पहुंचाने के वास्ते आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ने युगावाणी की शुरूआत की थी। साठ वर्ष की उम्र पर पहुंच चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल के षष्ठिपूर्ति  कार्यक्रम का आयोजन युगवाणी ने किया। शायद देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के बीच नौटियाल जी की वह पहली ही-वैसी जीवन्त उपस्थिति थी। उससे पहले मेरी स्मृति में मैंने उन्हें किसी साहित्यिक कार्यक्रम में देखा न था। हां, कम्यूनिस्ट पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायक रहे विद्यासागर नौटियाल का नाम मैंने जरूर सुना हुआ था। लेकिन वह भी साहित्यिक मित्र मण्डली के बीच नहीं बल्कि टे्रड यूनियन के साथियों के मुंह से। साहित्य की दुनिया के साथियों का राजनीति से दूरी उसका कारण रहा हो शायद। क्योंकि बहुत से अन्य मित्र तब भी जानते थे कि 'फट जा पंचधार" का लेखक और देवप्रयाग सीट से विधायक रहा व्यक्ति एक ही हैं - यह मुझे बाद में यदा कदा की बातचीतों से मालूम हुआ। लेकिन मेरे लिए यह जानना उस वक्त हुआ जब उनकी षष्ठी पूर्ति पर कार्यक्रम आयेजित हुआ। उस कार्यक्रम के दौरान अपने प्रिय नेता के सम्मान समारोह में पहाड़ से पहुंचे सामान्य ग्रामीणों की उपस्थिति मेरे लिए जो सूचना लेकर आयी थी, कथाकार विद्यासागर नौटियाल के प्रति एक खास तरह की निकटता में ले गयी। यद्यपि उस वक्त नौटियाल जी विधायक नहीं थे। शायद कम्यूनिस्ट पार्टी में भी न थे उस वक्त। बांध के सवाल पर पार्टी से भिन्न बनी राय के कारण उन्हें निष्कासित होना पड़ा था। गहरी मानसिक उथल-पुथल के दौर में थे। ऐसा उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में भी स्वीकारा है और यह भी व्यक्त किया है कि 'फट जा पंचधार" उसी मानसिक उथल-पुथल की स्थितियों में लिखी रचना है जिसमें वे खुद को कथापात्र रक्खी की स्थितियों में महसूस कर रहे थे। उत्सुकता स्वभाविक थी कि आखिर साहित्य के कार्यक्रम में एक अच्छी खासी संख्या में उपस्थित ग्रामीणों की उपस्थिति का माजरा क्या है ? एक विधायक एवं एक कथाकार विद्यासागर को जानने का अवसर मुझे उपलब्ध हो रहा था। वहां उपस्थित ग्रामीणों की तादाद बता रही थी कि बहुत करीब से जुड़े रह कर राजनीति करने वाले व्यक्ति के प्रति उसके प्रशंसको और शुभ चिंतकों की भूमिका क्या होती है। शायद उन ग्रामीणों के लिए भी वह अवसर ही रहा होगा जब वे अपने प्रिय नेता को एक दूसरी भूमिका में देख रहे हों। कार्यक्रम में हिस्सेदारी करती उनकी चपलता ऐसा ही कुछ कह रही थी। उनमें से कुछ लोगों ने मंच से भी अपने प्रिय नेता के लिए शुभ कामनायें दी थी। ऐसा ही एक अन्य अवसर पहल के सम्मान समारोह के दौरान था। सिर्फ ये दो ही अनुभव थे जब मैं प्रत्यक्ष रूप से जान सका था कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल ही वह व्यक्ति है जो किसी समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर विधायक रह चुके हैं। अन्यथा कभी कोई ऐसी स्थिति जिसमें वे कथाकार की बजाय सिर्फ एक राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हों, देखने का अवसर मुझे नहीं मिला जो कि इसलिए भी प्रभावित करने वाला था कि समाज के भीतर चीजें इतनी स्पष्ट दिख नहीं रही होती। एक नौकरशाह अपनी असली भूमिका की निकम्मई को कैसे साहित्यकार होकर ढकना चाहता है या साहित्यकारों के बीच वह कैसे अपनी नौकरशाही के कारण हासिल मैरिट को भूनाता है, यह छुपा हुआ नहीं है। या अन्य क्षेत्रों के बीच भी इसे देखा जा सकता है जब अचनाक से एक दिन मालूम होता कि देश का जो प्रधानमंत्री है, वह कवि है और उसके प्रधानमंत्री बनते ही उसकी कविताअें की पुस्तकों के ढेर के ढेर छपने लगते हैं। दिग्गज आलोचकों की एक पूरी फौज उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की मांग करने लगती है। कोई मुख्यमंत्री अपने राजनैतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि अचनाक एक साहित्यकार के रूप्ा में देश विदेश के भीतर सम्मानित होने लग जाता है। बहुत सी अन्य स्थितियों को देखें तो सत्ता पद की गरीमा के दम पर किसी भी क्षेत्र में हिस्सेदारी का मतलब उस क्षेत्र का भी अव्वल कहलाये जाने का चलन जमाने में दिखायी देता है। विद्यासागर नौटियाल जी के संबंध में पायेंगे कि साहित्यकार की भूमिका में वे अपनी रचनाओं के दम पर होते हैं और राजनीति के क्षेत्र में अपने समझदारी और कार्रवाइयों के साथ। दो अलग क्षेत्रों के बीच दखल रखते हुए भी वे किसी एक क्षेत्र में अपनी स्थिति के दम पर दूसरे में प्रवेश नहीं करते। बल्कि कहें कि एक तीसरा क्षेत्र वकालत, जो उनके रोजी रोजगार का हिस्सा था, उसमें उनकी दक्षता को जानने के लिए उनके बस्ते पर ही जा कर जाना सकता था।   

    
 देश दुनिया के भूगोल से परिचित नौटियाल जी की रचनाओं में जिस भूगोल को हम पाते है, वह दुर्गम हिमालय क्षेत्र है। उसका भी एक छोटा सा हिस्सा- टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र का हिमालय। वरना नेपाल से कच्च्मीर तक विस्तृत हिमालय का भूगोल भी तो एक जैसा नहीं। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक स्थितियों के इतिहास की अनुपस्थिति में सामंती सत्ता के अत्याचारों का क्षेत्र। ऐसे अत्याचार, जिनकी अवश्यम्भाविता का विचार मानसिक जड़ता के साथ मौजूद रहता है। जहां शासन-प्रशासन का हर कदम पाप-पुण्य के भय का निर्माण करते हुए सामाजिक जड़ता को स्थापित करना चाहता रहा है। लेकिन लाख षड़यंत्रों के बावजूद भी सामाजिक गतिकी के नियम को फलांगना जिसके लिए संभव न हुआ और उठ खड़े हुए विद्रोहों से निपटने का रास्ता जहां खुलमखुल्ला निहत्थों पर हथियारबंद आक्रमण रहा। रंवाई का तिलाड़ी कांड निहत्थे ग्रामीणों की हत्या का इतिहास है जिसका जिक्र करने की जुर्रत भी करना विद्रोही हो जाना था। सामंती शासन के भीतर घटित ऐसे ढंढक/विद्रोह, दबी कुचली जनता की सामूहिक कोशिशें रही हैं। दस्तावेजीकरण से उनका बचाया जाना सत्ता कोे कायम रखने के लिए जरूरी था। ऐसे ही इतिहास को अनेकों कथाओं में पिरोकर कथाकार विद्यासागर नौटियाल दर्ज करते चले गये हैं। इतिहास की घटनाओं का गल्प होते हुए भी अपने समय से जीवन्त संवाद बनाना उनकी रचनाओं का विशेष गुण है। इतिहास की सतत पड़ताल करती उनकी रचनाओं के पाठ हिन्दी साहित्य की दुनिया के दायरे को अपने तरह से विस्तार देते है। उनके अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" में भी उस अलिखित इतिहास को जानने के स्पष्ट संकेत हैं।    

1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया था, उपन्यास का कथ्य भूकम्प की त्रासद कथा है। जिसका स्मरण ही बेचैन कर देने वाला है। किसको याद करें, किसके लिए रोएं, किसको दें कंधा, किसके कंधें पर धरें सिर, अनंत हाहाकार के बीच किसको कहें पराया ? उत्तरकाशी भूकंप के बहाने लिखी गयी जामक की कथा का सच देश के हर हिस्से में घ्ाटी त्रासदी का सच है। क्या लातूर, क्या गुजरात। प्राकृतिक आपदाओं में ही नहीं, विकास के नाम पर जारी किसी भी योजना का सच उत्तरकाशी भूकंप राहत योजना से अलग नहीं है। व्यवस्था का ताना बाना कितना उलझा हुआ है कि अपनी ही बोली-बानी और क्षेत्र विशेष के व्यक्ति के हाथों भी छले जाने का उपक्रम होते हुए भी आम जनमानस इस यकीन के साथ हो जाता है कि जो कुछ अगला घटित हो रहा है शायद वह उसके हक में ही हो। पूरे उत्तराखण्ड के भीतर शिशु मन्दिरों की खुलती शाखाएं इसका जीवन्त उदाहरण है। उपन्यास में उन चालाकियों को पकड़ा जा सकता है जिनके रास्ते ऐसा झूठ रचा गया है और लगातार रचा जा रहा है। पहाड़ों के सीने को चीर देने वाली थर-थराहट और गाड।-गधेरों को किसी भी तरफ मोड़ देने वाली विध्वंश की गाथा वाला उत्तरकाशी का यथार्थ कुछ ही समय पहले का इतिहास है। हमारे देखे देखे का। टिहरी को डूबो लोगों को उनके घर-बार ही नहीं उनके पारम्परिक रोजी-रोजगार से बेदखल करने की चालाकियां भी हमारी देखी देखी हैं। उपन्यास की खूबी है कि पूरे पहाड़ को भण्ड-मज्या बनने को मजबूर करते इतिहास के एक काले दौर तक पड़ताल करने की युक्ति वह देता है। प्राकृतिक विध्वंश और कृतिम विध्वंश के कारण, जो वाचाल भाषा में राहत भरे शब्दों के रूप्ा में सुना जाता है, त्रस्त और अपने जीवन यापन की स्थितियों से जूझने के अवसर भी खो जाते जामक वासियों को भण्ड-मज्या बनाने के लिए अवसरों के रूप में दिखायी देने वाले स्वामियों और उनके चेले चपाटों की कमी नहीं है। ब्रिटिश शासन काल में ही जंगलो पर किये गये कब्जों के बाद पारम्परिक उद्योग (खेती बाड़ी और जानवर पालन) से वंचित कर दिये गये पहाड। वासियों के पहाड़ से पलायन और भण्ड-मज्या बनने को मजबूर हो जाने की कथा एक साक्ष्य है। बूट, पेटी और टोपी, जुराब के लिए पूरी जवानी को खंदकों में बीता देने का इतिहास सिर्फ देश प्रेम नहीं बल्कि उन स्थितियों से निपटने के लिए शुरू हुई फौरी कार्रवाइयां रही हैं। ऐसी ही जरूरी कथाओं को दर्ज करता नौटियाल जी का लिखित उनकी प्रिय जनता की धरोहर है।