- शुद्धब्रत सेनगुप्ता
(जयपुर साहित्य महोत्सव पर यह टिप्पणी इस महोत्सव के आयोजकों की
पक्षधरता और गंभीरता तथा सलमान रश्दी मामले के कानूनी पहलू को साफ़-साफ़ बयान करती
है. हमने इसे काफिला से साभार लिया है. अनुवाद मेरा है...और इसका आदेश देने के लिए
मैं साथी दिगंबर का आभारी हूँ.)
क्या आप को मालूम था कि कानून के चार कोने होते हैं? मैं नहीं
जानता था, लेकिन जो भी जयपुर साहित्य महोत्सव के लिए प्रेस रिलीज लिखता है वह यह
जानता था . क्या आप जानते थे कि सिर्फ इन चार कोनों के भीतर ही ‘विचारों का आदान
प्रदान हो सकता है साहित्य को प्रेम किया जा सकता है’. मैं नहीं
जानता था लेकिन जो भी जयपुर साहित्य महोत्सव के लिए प्रेस रिलीज लिखता है वह यह जानता है.
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२० जनवरी २०१२ को जयपुर साहित्य महोत्सव द्वारा जारी
प्रेस रिलीज
यह प्रेस रिलीज जयपुर साहित्य महोत्सव के आयोजकों
द्वारा जारी की जा रही है. ऐसा उनके संज्ञान में आया है कि कुछ प्रतिनिधियों ने
सत्रों के दौरान ऐसा व्यवहार किया है जिसके बारे में आयोजकों को पहले से पता नहीं था और जिसके
लिए उन्होंने सहमति नहीं दी थी. इन
प्रतिनिधियों द्वारा प्रकट किये गए किसी भी विचार या इनके द्वारा की गयी किसी भी
कार्यवाही को जयपुर साहित्य महोत्सव की किसी प्रकार की संस्तुति नहीं है. प्रतिनिधियों द्वारा की गयी कोई भी टिप्पणी उनक व्यक्तिगत विचार होगा और महोत्सव इनका किसी भी तरह से समर्थन नहीं करता या उसके
लिए इसके आयोजकों या उनके लिए काम कर रहे लोगों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
महोत्सव के आयोजक पूरी तरह से सभी प्रभावी कानूनों के पालन के लिए पूरी तरह से
प्रतिबद्ध हैं और कानून के किसी भी तरह के उल्लंघन को रोकने के लिए अपना पूर्ण
सहयोग देते रहेंगे.
कोई भी प्रतिनिधि या महोत्सव से संबद्ध कोई भी ऐसा व्यक्ति जो
कानून का उल्लंघन करता पाया जाएगा उसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और सभी आवश्यक
आनुषांगिक कदम उठाये जायेंगे. हमारी कोशिश
हमेशा से सिर्फ कानून के चार कोनों
के भीतर विचारों के आदान-प्रदान और साहित्यप्रेम को बढ़ावा देने के लिए मंच प्रदान
करना रहा है. हम इस उद्देश्य के लिए अब भी समर्पित हैं. [फर्स्ट पोस्ट से ]
ऐसा कोई व्यक्ति जो पूरी कड़ाई से
किसी बाड़े के ‘चार कोनों के भीतर साहित्य को प्रेम करता है’ वह मुझे जेल-पुस्तकालय
के एक मेहनती उपयोगकर्ता की तरह लगता है. मैं मुतमइन हूँ कि तिहाड
जेल में ऐसे तमाम अच्छे लोग हैं जिनकी अध्ययन प्रवृतियाँ उनके कारावास की
परिस्थितियों के कारण इस व्याख्या के अनुरूप हैं. मैं नहीं
जानता था कि कोई किसी
साहित्य महोत्सव की कार्यवाहियों को बिल्कुल इन्हीं सन्दर्भों में परिभाषित कर
सकता है. आप हर दिन नई चीजें सीखते हैं.
भारत सरकार
के वित्त मंत्रालय ने (जिसके तत्वावधान में सीमा
शुल्क तथा उत्पाद शुल्क विभाग अपना काम करते हैं), जिसने ५ अक्तूबर १९८९ को ‘प्रतिबन्ध’
का यह आदेश दिया था, प्रेस को जारी एक बयान में कहा था कि यह प्रतिबन्ध जिस
पुस्तक को प्रतिबंधित किया जा रहा है उसके ‘साहित्यिक या कलात्मक योग्यता को कम
नहीं करता’, प्रतिबन्ध के कारणों पर विस्तार से बताते हुए वित्त मंत्रालय ने
यह इंगित किया कि यह किताब “ कुछ एहतियाती उपायों के तहत प्रतिबंधित की गयी है.
इसमें कुछ ऐसे अंशो की पहचान की गयी है जिनका खास तौर पर अनैतिक धर्मान्धों और ऐसे
दूसरे लोगों द्वारा विकृतिकरण और दुरुपयोग किया जा सकता है. प्रतिबन्ध लगाने का यह
आदेश इस दुरुपयोग को रोकने के लिए दिया गया है.” ज़ाहिर तौर पर इस किताब को अपने आप में कोई
ईशनिन्दक या आपत्तिजनक किताब नहीं समझा गया था, बल्कि जैसा कि इसके लेखक ने कहा इसे
‘अपनी अच्छाई की वज़ह से’ प्रतिबंधित होने की एक बेतुकी स्थिति में रखा गया – इसे दूसरों
द्वारा दुरुपयोग किये जाने से बचाने के लिए. आखिरकार, उच्च कलात्मक और साहित्यिक
योग्यता वाली एक किताब का उसके लेखक या दरअसल उसके द्वारा अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा
कैसे दुरुपयोग किया जा सकता है.
अभी तक मेरी विनम्र (और शायद कम जानकारी के कारण ) राय
है कि जयपुर साहित्य महोत्सव में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे अवैधानिक या असाधारण कहा
जा सके. जैसा कि हमने देखा, यह प्रतिबन्ध आदेश भी इस किताब को उच्च साहित्यिक और
कलात्मक उत्कृष्टता वाली होने के अलावा कुछ नहीं कहती. कुछ लोगों ने, जो लेखक थे,
इस उच्च साहित्यिक और कलात्मक उत्कृष्टता वाली कृति से ऊँची आवाज में कुछ हिस्से
पढ़े थे. क्या लेखकों या साहित्य प्रेमियों से, खासतौर पर एक साहित्यिक महोत्सव में,
यही करने की उम्मीद नहीं की जाती – लिखना, पढ़ना, किताबों के बारे में, अच्छी
किताबों के बारे में बात करना?
शान्ति का उल्लंघन नहीं हुआ है. पुस्तक की सामग्री का
दुरुपयोग नहीं किया गया है – ऐसा हो सकता था यदि तमाशाइयों ने इसे पढ़ा होता और
लोगों से जाकर तोड़फोड़ करने के लिए कहा होता. या, यदि उन्होंने इसे लेखक के इरादों
के विपरीत उसके अर्थ और उद्देश्यों को विकृत करने के उद्देश्य से इसे पढ़ा होता.
यदि जिन लोगों ने यह किताब नहीं पढ़ी है और यह कहते हैं कि वे इस किताब को नहीं
पढेंगे, वे अब उत्तेजित हो रहे हैं तो जिन्होंने इसे पढ़ा है उन्हें इसके लिए जिम्मेदार
नहीं ठहराया जा सकता. यदि इसकी वज़ह से शान्ति का
उल्लंघन हुआ है तो इस ‘उल्लंघन’ की जिम्मेदारी किसी भी उस व्यक्ति पर पड़नी चाहिए
जो हिंसा भड़काने वाले और गैरजिम्मेदार आह्वान करता है या दूसरों की स्वतंत्रता का
उल्लंघन करता है. क्योंकि हिंसात्मक या स्वतंत्रता का हनन करने वाली परिस्थितियों
को शांतिपूर्ण नहीं कहा जा सकता. जहाँ तक मैं जानती हूँ, इस
साहित्यिक कृति के हिस्सों को पढ़ने वाले उन लेखकों में से किसी ने भी इस तरह की
कोई बात नहीं की. मैं उन सबको जानती हूँ, वे सभी शांतिपूर्ण लोग हैं.
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि सेक्शन ११ के तहत
प्रतिबंधित कोई भी वस्तु आयात नहीं की गयी. जिन व्यक्तियों ने इस साहित्यिक कृति
के उन हिस्सों का पाठ किया, जिन्हें सब जानते हैं, उनके हाथों में यह किताब नहीं
थी. उन्होंने देश में कोई प्रतिबंधित वस्तु ‘आयात’ नहीं की थी. उन्होंने कागज़ के
एक टुकड़े से पाठ किया.
इसके अलावा, संयोग से, अभी तक, जहाँ तक मुझे जानकारी है
भारतीय कानून में ऎसी कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं है जिसके तहत किसी ऎसी किताब का
केवल ‘पाठ’ भर करने के लिए किसी को अपराधी ठहराया जा सके जिसके आयात पर प्रतिबंध
है. यदि आपके पास वह किताब है तो इसे ‘जब्त’ किया जा सकता है. लेकिन पाठ पर रोक
कोई नहीं लगाता. यह कैसे हो सकता है? उदाहरण के लिए कोई अपनी स्मृति से कस्टम
द्वारा प्रतिबंधित किताब का पाठ, बार-बार पाठ कर सकता है. क्या कोई साहित्य के
अपने अनुभवों की स्मृतियाँ अपने दोस्तों से साझा नहीं कर सकता. क्या कोई इस स्मृति
के साझा करते समय एक पन्ने पर नज़र डालकर सहायता नहीं ले सकता?
‘पाठ’ पर प्रतिबंध’ लगाने का अर्थ ऎसी कार्यवाहियों को
स्वीकृति देने के बराबर होगा जिन्हें हमारी कानूनी व्यवस्था ‘वैचारिक अपराध’ का
नाम देगी. अभी तक हम इस मुकाम तक नहीं पहुंचे. मुझे उम्मीद है हम कभी नहीं
पहुंचेंगे.
कोई अप्रिय घटना नहीं हुई. स्थिति तनावपूर्ण लेकिन
नियंत्रण में है (बहरहाल, क्या इस अद्भुत देश में हमेशा, हर जगह यही हालात नहीं
होते). जयपुर साहित्य महोत्सव चैन की सांस ले सकता है. उसकी
आत्मा को शान्ति मिले.
इसमें जो पक्ष (क़ानूनी/गैर-क़ानूनी) का उठाया गया है, वह तो ठीक है, पर प्रायोजकों के चरित्र और आयोजकों के साहित्य के प्रति रवैये का विश्लेषण करने की भी ज़रूरत थी. उसे लेकर दो दिन से प्रश्न उठ ही रहे हैं. मैंने भी उठाए हैं. मुझे लगता है प्रगतिशील/जनवादी शक्तियों को इस तरह के आयोजन पर अपना स्टैंड साफ़ रखना चाहिए, जो नहीं हुआ. ग्लेमर, सेलेब्रिटी, शराब- ये भी बकौल एक प्रगतिशील प्रतिभागी, साहित्यकरों की दिलचस्पी को पुष्ट करने वाले कारकों में से एक है. हमें साफ़-साफ़ कहना चाहिए कि यह सिर्फ़ मेला है जिसमें साहित्य को विज्ञापित किया जाता है, बस.
जवाब देंहटाएंsahitya ke nam par hone wale tamashe se parichit karane ke liye aapaka aabhar.....khaye-piye-aghaye sahityakaron se isase adhik aasha nahi ki ja sakati hai. mohan sir ne jis jaroorat ki bat ki hai mujhe bhi lagata hai wah honi chahiye.
जवाब देंहटाएंsahitya ke nam par hone wale tamashe se parichit karane ke liye aapaka aabhar.....khaye-piye-aghaye sahityakaron se isase adhik aasha nahi ki ja sakati hai. mohan sir ne jis jaroorat ki bat ki hai mujhe bhi lagata hai wah honi chahiye.
जवाब देंहटाएंजयपुर साहित्य महोत्सव कैसा जमघट है यह आयोजकों द्वारा कल जारी स्पस्टीकरण और हिदायतनामे से बिलकुल साफ़ हो गया है.हालाँकि उनके प्रेस वक्तव्य की कॉपी हिंदी में नेट पर कहीं नहीं मिली.आगंतुक लेखकों को आकाश में वहीं तक उड़ान भरने की छूट है, जहाँ तक प्रायोजक डोर ढीली करें. उन्हें विस्तीर्ण मैदानों में वि+चरण की भी छूट है, बशर्ते वे अपने पैरों में " धिंगना " बंधवालें.
जवाब देंहटाएंआपने इतनी जल्दी हिंदी में इस लेख को प्रस्तुत करके एक बेहद जरुरी काम किया है. धन्यवाद.
Satya Mitra Dubey
जवाब देंहटाएंउपरोक्त आलेख में अभिव्यक्त विचारों से मेंरी सहमति है.
ऊपर से देखने पर तो यह साहित्य महोत्सव जैसा ही लगता है लेकिन भीतरखाने की चालें बाजार के चतुर खिलाडियों द्वारा बिछाई गई हैं |ग्लैमर और सेलिब्रेटी वाले इस महोत्सव से विचार और प्रतिरोध एकदम गायब है |मुझे लगता है कि इसने कुल मिलाकर साहित्य का नुकसान ही किया है |
जवाब देंहटाएंजयपुर साहित्य महोत्सव ने शायद तय कर लिया है कि वह विवाद पैदा करके ही अपने को प्रचारित करेगा। सही है आजकल विज्ञापन का ही जमाना है।
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