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गुरुवार, 24 मई 2012

युवा पीढ़ी - यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है!


(वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय से मेरी यह बातचीत अगस्त, २०११ में परिकथा के नवलेखन विशेषांक के लिए हुई थी, बाद में यह कथन में भी प्रकाशित हुआ. ज़ाहिर है, कि इस बातचीत के केन्द्र में युवा लेखन ही था. यह वही दौर था जब कहा जा रहा था कि युवा पीढ़ी वही है जिसे रवीन्द्र कालिया जी ने सर्टिफिकेट दिया हो. आज जब गौरव सोलंकी के पत्र के बाद एक नयी बहस शुरू हुई है, यह साक्षात्कार मुझे महत्वपूर्ण लगता है. यहाँ यह रमेश जी के ब्लॉग बेहतर दुनिया की तलाश से साभार)


नये कहानीकार एक नया आंदोलन चलायें



  • अशोक : रमेश जी, आजकल हिंदी की पत्रिकाओं में जिस तरह युवा-आधारित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देती है, उसकी क्या वजहें हैं और क्या सचमुच उससे कुछ हासिल हो रहा है? 


रमेश उपाध्याय: देखिए, अशोक जी, एक वजह तो एकदम प्रत्यक्ष है कि हिंदी साहित्य में लेखकों की एक नयी पीढ़ी आ गयी है। देखते-देखते एक साथ बहुत-से युवा रचनाकार सामने आ गये हैं और उन्हें सामने लाने में हिंदी की उन पत्रिकाओं की बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांक निकाले हैं। हालाँकि उन्होंने ये विशेषांक न निकाले होते, तो भी ये रचनाकार देर-सबेर सामने आते ही, फिर भी एक साथ बहुत-से रचनाकारों को एक मंच पर ले आने से पाठकों का ध्यान उनकी तरफ जल्दी जाता है। इसे उन विशेषांकों की एक उपलब्धि कहा जा सकता है। 
जहाँ तक युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांकों की लगभग होड़-सी दिखायी देने की बात है, मेरे विचार से उसके दो-तीन कारण हैं। एक तो यह कि प्रायः सभी पत्रिकाओं को--विशेष रूप से नियमित रूप से निकलने वाली मासिक पत्रिकाओं को--अपने पृष्ठ भरने के लिए सामग्री चाहिए। ढेर सारी सामग्री चाहिए और निरंतर चाहिए। आज हिंदी में हमेशा से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में पत्रिकाएँ निकल रही हैं। सामग्री प्राप्त करने के लिए उनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से एक होड़-सी हमेशा लगी रहती है। उनके संपादक लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि अधिक से अधिक संख्या में लेखकों की रचनाएँ उन्हें निरंतर प्राप्त होती रहें। इसके लिए वे युवा लेखकों को पकड़ते हैं--अंग्रेजी के मुहावरे ‘कैच दैम यंग’ के अर्थ में भी--क्योंकि उनमें रचनात्मक ऊर्जा ज्यादा होती है और जल्दी से जल्दी प्रकाशित और प्रतिष्ठित हो जाने की ललक भी। इसमें युवा पीढ़ी विशेषांक बहुत सहायक होते हैं, जिनके जरिये एक साथ बहुत-से युवा रचनाकारों को पकड़ा जा सकता है और अपनी पत्रिका से जोड़ा जा सकता है। 
दूसरा कारण यह है कि पहले से स्थापित प्रौढ़ लेखकों की रचनाएँ प्राप्त कर पाना कठिन होता है, क्योंकि एक तो वे लिखते कम हैं और दूसरे वे हर किसी पत्रिका में नहीं लिखते। इस कारण उनसे अच्छी रचनाएँ निरंतर प्राप्त करते रहना संपादकों के लिए मुश्किल होता है। पाठक भी प्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों से अच्छी रचनाओं की अपेक्षा करते हैं और अपेक्षा पूरी न होने पर पत्रिका से कटने लगते हैं। ऐसी स्थिति में संपादकों को युवा पीढ़ी के लेखकों को अधिक से अधिक संख्या में अपनी पत्रिका से जोड़ना जरूरी लगता है। युवा लेखक उत्साहपूर्वक और भरपूर रचनात्मक सहयोग देते हैं, इसलिए एक तो संपादकों को पत्रिका के लिए सामग्री की कमी नहीं रहती और दूसरे, उनकी कच्ची-पक्की रचनाओं को भी यह कहकर छापा जा सकता है कि ये अभी नये हैं, लिखना सीख रहे हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में कच्चापन या अधकचरापन होना स्वाभाविक है। पत्रिका के पाठक भी युवा लेखकों की रचनाओं को एक प्रकार का ‘कंसेशन’ देते हुए पढ़ते हैं और उनसे वैसी अपेक्षाएँ नहीं रखते, जैसी प्रौढ़ लेखकों से की जाती हैं। इस प्रकार युवा पीढ़ी विशेषांक निकालने वाले संपादक को एक तरफ अपनी पत्रिका के लिए ढेर सारी रचनाएँ मिल जाती हैं और दूसरी तरफ युवा पीढ़ी को सामने लाने के श्रेय के साथ-साथ उसे स्तरहीन रचनाएँ प्रकाशित करने का ‘लाइसेंस’ भी मिल जाता है। 
तीसरा कारण राजनीतिक हैप्रौढ़ और प्रसिद्ध लेखकों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई न कोई राजनीति होती है। पत्रिकाओं के संपादक उनसे अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने वाली रचनाएँ नहीं लिखवा सकते। इसलिए वे युवा लेखकों को अपनी ओर खींचते हैं और उन्हें अपनी राजनीति या विचारधारा के अनुसार ढालने का प्रयास करते हैं। व्यावसायिक पत्रिकाएँ राजनीति से ऊपर उठकर काम करने का दिखावा करती हैं, लेकिन उनकी भी अपनी कोई न कोई राजनीति अवश्य होती है। उनमें लिखने वाले युवा लेखक जाने-अनजाने उसी राजनीति में ढल जाते हैं। यह अकारण नहीं है कि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से जो युवा कहानीकार सामने आये हैं, वे या तो हर तरह की राजनीति के खिलाफ हैं, या विशेष रूप से वाम राजनीति के खिलाफ। फिर, सफल होने के लिए बाजार की शर्तों पर लिखना अराजनीतिक लगते हुए भी एक प्रकार का राजनीतिक लेखन करना है। कुछ लघु पत्रिकाएँ घोषित रूप से प्रगतिशील या जनवादी पत्रिकाएँ हैं और उनकी राजनीति स्पष्ट है। लेकिन युवा लेखकों को अपनी ओर खींचने के लिए उनके संपादक भी नयी पीढ़ी के लेखकों द्वारा लिखी जा रही प्रगतिशील या जनवादी कहानी के विशेषांक नहीं निकालते, बल्कि ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी के विशेषांक ही निकालते हैं। उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ के दो खंडों में निकले कहानी विशेषांक को आवरण पर भले ही ‘युवा कहानी विशेषांक’ के बजाय ‘समकालीन कहानी विशेषांक’ कहा गया हो, पर उनमें छपे ज्यादातर लेखक वही थे, जो अन्य पत्रिकाओं के युवा पीढ़ी विशेषांकों में छपे थे। ‘प्रगतिशील वसुधा’ में भी उन्हें युवा कथाकार या युवा पीढ़ी के कहानीकार ही कहा गया। यहाँ तक कि उनके द्वारा लिखी जा रही कहानी को भी ‘युवा कहानी’ कहा गया! संपादक कमला प्रसाद ने लिखा कि ‘‘प्रगतिशील वसुधा के ये दोनों अंक युवा कहानी पर केंद्रित हैं।’’ अर्थात् प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका के इस विशेषांक में लेखकों या उनकी कहानियों पर प्रगतिशील होने की शर्त नहीं लगायी गयी है! 

  • अशोक : ‘युवा’ को आप कैसे परिभाषित करेंगे? 

रमेश उपाध्याय: कई साल पहले, जब मेरी गिनती नयी पीढ़ी के लेखकों में होती थी, मैंने ‘पहल’ में एक लेख लिखा था ‘हिंदी की कहानी समीक्षा: घपलों का इतिहास’। उसमें मैंने हिंदी कहानी को नयी, पुरानी, युवा आदि विशेषणों वाली पीढ़ियों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विश्लेषण किया था। इस प्रवृत्ति से दो भ्रांत धारणाएँ पैदा हुई थीं, जो कमोबेश आज तक भी चली आ रही हैं। एक तो यह कि हिंदी कहानी बीसवीं सदी के प्रत्येक दशक में उत्तरोत्तर अपना विकास करती गयी है और दूसरी यह कि कहानीकारों की हर नयी पीढ़ी पूर्ववर्ती पीढ़ियों से बेहतर कहानी लिखती है। आज वही पीढ़ीवादी प्रवृत्ति पुनः प्रबल होती दिखायी पड़ रही है। इसलिए अपने उस लेख की कुछ बातें मैं आपको सुनाना चाहता हूँ। सुनाऊँ? 


  • अशोक : जरूर सुनाइए। 

रमेश उपाध्याय: सुनिए, मैंने लिखा था--नयी पीढ़ी के नाम पर किये गये घपले में निहित आत्मप्रचारात्मक व्यावसायिकता की गंध आगे आने वाले लेखकों को भी मिल गयी। उनमें से भी कुछ लोगों ने खुद को जमाने के लिए अपने से पहले वालों को उखाड़ने का वही तरीका अपनाया, जो ‘नयी कहानी’ वाले कुछ लोग आजमा चुके थे। पीढ़ीवाद का यह घटिया खेल आज भी जारी है और उसे कुछ नयी उम्र के लोग ही नहीं, बल्कि कुछ साठे-पाठे भी खेलते देखे जा सकते हैं। बदनाम भी होंगे, तो क्या नाम न होगा! 
आगे मैंने लिखा था--यह खेल कितना वाहियात और मूर्खतापूर्ण है, इसका अंदाजा आपको ‘युवा पीढ़ी’ पद से लग सकता है। इसे ‘नयी पीढ़ी’ की तर्ज पर चलाया गया और इसकी कहानी को ‘नयी कहानी’ की तर्ज पर ‘युवा कहानी’ कहा गया। कई पत्रिकाओं के ‘युवा कहानी विशेषांक’ निकले। ‘युवा कहानी’ पर लेख लिखे गये। ‘युवा कथाकार’ जैसे कहानी संकलन निकाले गये। मेरी आदत है कि पत्रिका या संकलन के लिए कोई मेरी कहानी माँगता है, तो मैं आम तौर पर मना नहीं करता। इसलिए आप देखेंगे कि मेरी कहानियाँ साठोत्तरी कहानी, पैंसठोत्तरी कहानी, सातवें दशक की कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी, समांतर कहानी, स्वातंत्र्योत्तर कहानी, अमुक-तमुक वर्ष की श्रेष्ठ कहानी, प्रगतिशील कहानी, जनवादी कहानी आदि से संबंधित पत्रिकाओं और संकलनों में छपी हुई हैं। ‘युवा कथाकार’ नामक संकलन में भी मेरी कहानी छपी है। लेकिन मैं कभी नहीं समझ पाया कि ‘युवा कहानी’ क्या होती है। किसी को युवा कहने से उसकी उम्र के अलावा क्या पता चलता है? ‘युवा वर्ग’ कहने से किस वर्ग का बोध होता है? युवक तो शोषक और शोषित दोनों वर्गों में होते हैं। इसी तरह युवकों में सच्चे और झूठे, शरीफ और बदमाश, बुद्धिमान और मूर्ख, शक्तिशाली और दुर्बल, प्रगतिशील और दकियानूस--सभी तरह के लोग हो सकते हैं। तब ‘युवा कहानी’ का क्या मतलब? यह किस वर्ग के युवाओं की कहानी है? यह किस काल से किस काल तक की कहानी है? यह किस उम्र से किस उम्र तक के लेखकों की कहानी है? 
और निष्कर्ष के रूप में मैंने लिखा था--कहानी को किसी दशक या पीढ़ी की छतरी के नीचे ले आने से कहानी की किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। हिंदी कहानी के दशक उसके विकास के सूचक नहीं हैं। विकास की गति सदा इकसार और कालक्रमानुसार नहीं होती, क्योंकि विकास हमेशा अंतर्विरोधों के बीच होता है। साहित्य में यह अंतर्विरोध दशकों और पीढ़ियों के बीच न होकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों के बीच और रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों के बीच होते हैं। 
आपने देखा होगा, पिछले दिनों मैंने अपने ब्लाॅग ‘बेहतर दुनिया की तलाश’ पर आज की ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकारों से कहा था कि वे पीढ़ीवाद की निरर्थकता से बचकर सामाजिक यथार्थ के प्रति अपनाये जाने वाले दृष्टिकोणों तथा रचना में अपनाये जाने वाले कला-सिद्धांतों पर सार्थक बहस चलायें। 


  • अशोक : आपके ब्लाग पर मैंने ‘लेखकों के मुँह में चाँदी का चम्मच’ वाली पोस्ट भी पढ़ी थी, जो ‘नया ज्ञानोदय’ के जून, 2010 के संपादकीय में रवींद्र कालिया के इन शब्दों पर टिप्पणी करती थी कि ‘‘आज की युवा पीढ़ी उन खुशकिस्मत पीढ़ियों में है, जिन्हें मुँह में चाँदी का चम्मच थामे पैदा होने का अवसर मिलता है।’’ 

रमेश उपाध्याय: हाँ, मैंने उसमें लिखा था कि कालिया द्वारा लिखा गया यह वाक्य एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करके बनाया गया है--‘‘बार्न विद अ सिल्वर स्पून इन वंस माउथ’’, अर्थात् वह, जो किसी धनाढ्य के यहाँ पैदा हुआ हो। इस पर अंग्रेजी के ही एक और मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए कहा जा सकता है कि कालिया के इन शब्दों से ‘‘बिल्ली बस्ते से बाहर आ गयी है’’! मतलब, कालिया कहानीकारों की जिस नयी पीढ़ी को हिंदी साहित्य में ले आने का श्रेय स्वयं ही लेने को आतुर हैं, उसका वर्ग-चरित्र उन्होंने स्वयं ही बता दिया है। वैसे यह कोई रहस्य नहीं था कि सेठों के संस्थान से निकलने वाली पत्रिकाओं से--यानी पहले भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका ‘वागर्थ’ से और फिर भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ से--पैदा हुई नयी पीढ़ी ही नयी पीढ़ी के रूप में क्यों और कैसे प्रतिष्ठित हुई! अन्यथा उसी समय में ‘परिकथा’ जैसी कई और पत्रिकाएँ ‘नवलेखन’ पर अंक निकालकर जिस नयी पीढ़ी को सामने लायीं, उसके लेखक इतने खुशकिस्मत क्यों न निकले? जाहिर है, वे लघु पत्रिकाएँ थीं, जबकि ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ तथाकथित बड़ी पत्रिकाएँ! और ‘नया ज्ञानोदय’ तो भारतीय ज्ञानपीठ जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान की ही पत्रिका थी, जिसका संपादक उस प्रकाशन संस्थान का निदेशक होने के नाते अपने द्वारा सामने लायी गयी पीढ़ी के मुँह में चाँदी का चम्मच दे सकता था! 


  • अशोक : अच्छा, यह बताइए कि 1980 के दशक के बाद के कालखंड में हिंदी कविता और कहानी, दोनों में किसी आंदोलन का जो अभाव दिखता है, उसके क्या कारण हैं?

रमेश उपाध्याय: इस प्रश्न पर सही ढंग से विचार करने के लिए साहित्यिक आंदोलन और साहित्यिक फैशन में फर्क करना चाहिए। साहित्यिक आंदोलन--जैसे भक्ति आंदोलन या आधुनिक युग में प्रगतिशील और जनवादी आंदोलन--हमेशा अपने समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आंदोलनों से सार्थक और सोद्देश्य रूप में जुड़े होते हैं, जबकि साहित्यिक फैशन ‘कला के लिए कला’ के सिद्धांत पर चलते हैं और अंततः उनका संबंध साहित्य के बाजार और व्यापार से जुड़ता है। आपने 1980 के दशक के बाद के कालखंड की बात की। अर्थात् आप 1991 से 2010 तक के बीस वर्षों में हिंदी साहित्य में किसी आंदोलन को अनुपस्थित पाते हैं। तो आप यह देखें कि आजादी के बाद से 1980 के दशक तक हिंदी साहित्य में आंदोलनों की स्थिति क्या रही। आजादी से पहले का हिंदी साहित्य मुख्य रूप से दो बड़े आंदोलनों से जुड़ा हुआ था--एक राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन से और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन से। और यह दोनों ही प्रकार का साहित्य अपने-अपने ढंग से सार्थक और सोद्देश्य साहित्य था। लेकिन आजादी के बाद जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे आंदोलन कम और साहित्य के नये फैशन ज्यादा थे। 


  • अशोक : इस बात को जरा स्पष्ट करें। 

रमेश उपाध्याय: देखिए, आजादी के तुरंत बाद हिंदी में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के जो आंदोलन चले, उनमें आपको दो तरह का लेखन दिखता है, जिसे मोटे तौर पर आप कलावादी और जनवादी कह सकते हैं। उनमें से एक का उद्देश्य साहित्य में कुछ नयापन लाना है, तो दूसरे का उद्देश्य साहित्य के जरिये एक नया समाज बनाना है। यह बात मैं ‘एब्सोल्यूट टम्र्स’ में नहीं, सापेक्ष ढंग से कह रहा हूँ, क्योंकि साहित्य में, और जीवन में भी, बहुत स्पष्ट विभाजन नहीं हुआ करते। एक प्रवृत्ति में दूसरी प्रवृत्ति घुली-मिली रहती है। देखना यह चाहिए कि उनमें मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है। ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों में आपको प्रगतिशील और जनवादी लेखक दिखायी पड़ते हैं। लेकिन प्रमुखता है आधुनिकतावादी, व्यक्तिवादी, कलावादी प्रवृत्ति की। उदाहरण के लिए, ‘नयी कविता’ में मुक्तिबोध भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त है अज्ञेय को। ‘नयी कहानी’ में अमरकांत, मार्कंडेय और शेखर जोशी भी हैं, लेकिन प्रमुखता प्राप्त करते हैं मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव। इसलिए ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ दोनों साहित्य के आंदोलन कम हैं, साहित्य के फैशन ज्यादा हैं। इन दोनों के बाद हिंदी में जो साहित्यिक आंदोलन चले, वे भी मोटे तौर पर फैशनेबल ही थे...


  • अशोक : 1970-80 के दशकों में फिर से उभरा प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन भी? 

रमेश उपाध्याय: जी हाँ, काफी हद तक वह भी। आप देखिए कि ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के दौर में आधुनिकतावाद एक फैशन की तरह आता है और बहुत-से लेखक एलियट, एजरा पाउंड, हेमिंग्वे आदि की तर्ज पर लेखन में नयापन पैदा करने लगते हैं। फिर ‘अकविता’ और ‘अकहानी’ के दौर में बहुत-से लेखक सात्र्र, कामू, काफ्का और एब्सर्ड थिएटर की तर्ज पर एक नया फैशन चलाते हैं। उसके बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन फिर से उभरता है, तो पक्षधरता, प्रतिबद्धता और वर्ग-संघर्ष से दूर रहने वाले कई लेखक भी माक्र्स, लेनिन, माओ आदि की चर्चा करते हुए क्रांतिकारी-सी लगने वाली चीजें लिखने लगते हैं। फैशन की एक खास बात यह होती है कि वह जल्दी-जल्दी बदलता रहता है। इस मामले में भी यही हुआ। माक्र्सवाद का फैशन भी जल्दी ही बदल गया। उसकी जगह दलितवाद आ गया, स्त्रीवाद आ गया, उत्तर-आधुनिकतावाद आ गया, जादुई यथार्थवाद आ गया। एक और बात है। फैशनपरस्त लेखक हमेशा अद्वितीय होना चाहते हैं। इसलिए वे अन्य लेखकों के साथ एकजुट या संगठित होने में अपनी अद्वितीयता की हानि समझते हैं। इसी कारण वे स्वयं कोई आंदोलन चलाने या किसी आंदोलन में शामिल होने में विश्वास नहीं रखते। हाँ, ऐसा हो सकता है कि जब कोई आंदोलन अपने उत्कर्ष पर हो, तो वे उसे भी कोई नया फैशन मानकर उसके साथ चलते नजर आने लगें। मगर उत्कर्ष के समय वे जितनी तेजी के साथ उसमें आते हैं, अपकर्ष के समय उतनी ही तेजी के साथ उससे अलग भी हो जाते हैं। सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद प्रगतिशील-जनवादी आंदोलन का उभार एक प्रकार के उतार में बदल गया, तो उससे अलग हो जाने वाले लेखकों के उदाहरण से इस सत्य को समझा जा सकता है। आंदोलन में आते समय ऐसे कई लेखक स्वयं को सबसे अधिक प्रगतिशील, सबसे अधिक जनवादी, सबसे अधिक क्रांतिकारी जताते थे। लेकिन उससे अलग होते समय उसकी निंदा करने या उसका मजाक उड़ाने में भी वे सबसे आगे दिखायी दिये। 


  • अशोक : क्या इस कालखंड की कहानी को, जिसे युवा पीढ़ी की कहानी कहा जा रहा है, आप कोई नाम देना चाहेंगे? 

रमेश उपाध्याय: इस कालखंड में कोई एक प्रवृत्ति नहीं रही, जिसे कोई एक नाम दिये जा सके। विभिन्न प्रवृत्तियाँ रही हैं और उनके अनुसार कहानी के विभिन्न नामकरण भी होते रहे हैं, जैसे जनवादी कहानी, दलितवादी कहानी और स्त्रीवादी कहानी--इन दोनों को दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की कहानी कहा जाता है--और फिर उत्तर-आधुनिक कहानी, जादुई यथार्थवाद की कहानी और भूमंडलीय यथार्थवाद की कहानी। ये नाम कितने सही और सार्थक हैं, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन ये नाम इस कालखंड की कहानी की विभिन्न प्रवृत्तियों को दरशाते हैं, जबकि ‘युवा कहानी’ कहने से किसी प्रवृत्ति का पता नहीं चलता। इसलिए उम्र के आधार पर कहानीकारों को बाँटना और युवा लेखकों की कहानी को युवा कहानी जैसा नाम देना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। इस कालखंड की कहानी को ‘आज की कहानी’ या ‘समकालीन कहानी’ कहना भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि उससे पता नहीं चलता कि ‘आज’ की व्याप्ति कब से कब तक है। दूसरे, इस कालखंड में कहानीकारों की एक ही पीढ़ी नहीं, अनेक पीढ़ियाँ एक साथ सक्रिय हैं और कहानी में कोई एक नहीं, बल्कि अनेक प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं। उम्र के आधार पर तो आज जो युवा है, उसे कल प्रौढ़ और परसों बूढ़ा होना ही है। तो क्या हम आज के युवा लेखक की कहानी को आज युवा कहानी, कल प्रौढ़ कहानी और परसों बूढ़ी कहानी कहेंगे? फिर, आज के युवाओं में भी सबका लेखन एक जैसा नहीं है। उसमें बड़ी भिन्नताएँ हैं। इसलिए देखा यह जाना चाहिए कि ‘आज की कहानी’ में कौन-कौन-सी प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं और उनमें से मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है, जिसके आधार पर आज की कहानी का नामकरण किया जा सके।


  • अशोक : आपके विचार से आज की कहानी की मुख्य प्रवृत्ति कौन-सी है? 

रमेश उपाध्याय: यदि आप आज की कहानी को सोवियत संघ का विघटन होने और पूँजीवादी भूमंडलीकरण के शुरू होने के बाद की कहानी मानें, तो 1991 से 2010 तक का बीस वर्षों का यह कालखंड देश और दुनिया के यथार्थ में हुए एक जबर्दस्त उलटफेर का समय है। इसमें हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही नहीं बदला है, बल्कि हमारे साहित्य और संस्कृति में भी एक स्पष्ट बदलाव आया है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने हमारे यथार्थ को ही नहीं बदला है, यथार्थ को देखने की हमारी दृष्टि को भी बदला है। पहले हम लेखक-कलाकार आदि दुनिया के बेहतर भविष्य में विश्वास रखते थे और अपनी रचनाओं से उस भविष्य को बनाने की कोशिश करते थे। अब हममें से ज्यादातर लोग यह मानने लगे हैं कि दुनिया जैसी बन सकती थी, बन चुकी है और आगे इसमें कोई परिवर्तन नहीं होने वाला है। इसलिए भविष्य के बारे में सोचने और उसका निर्माण करने की कोशिश करने के बजाय इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान में उन्हें सिर्फ बाजार दिखता है--एक भूमंडलीय बाजार--जिसमें अपनी जगह बनाना, अपना बाजार बनाना, उस बाजार में टिके रहना और ऊँची कीमत पर बिकना ही उन्हें अपना और अपने लेखन का एकमात्र उद्देश्य दिखता है। दूसरे शब्दों में इस कालखंड के ज्यादातर लेखक वर्तमान व्यवस्था में ही अपनी जगह बनाने और कामयाब होने को ही अपने जीवन और लेखन का उद्देश्य मानने लगे हैं। इस प्रवृत्ति को आप बाजारोन्मुखी कह सकते हैं और आज की मुख्य प्रवृत्ति यही है।


  • अशोक : मैं जानता हूँ कि आप बाजार आधारित अर्थव्यवस्था  के विरोधी हैं, इसलिए आप इस बाजारोन्मुखी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हो सकते। तो आज की कहानी की वह कौन-सी प्रवृत्ति है, जिसे आप सही मानते हैं?


रमेश उपाध्याय: भविष्योन्मुखी प्रवृत्ति। कहानीकार किसी भी पीढ़ी का हो, आज उसमें भविष्योन्मुखी दृष्टि से भूमंडलीय यथार्थ को समझने की और उसे कहानी में प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता होनी चाहिए।


  • अशोक : तो आपकी इन अपेक्षाओं पर युवा पीढ़ी कितनी खरी उतर पा रही है?

रमेश उपाध्याय: मुझे प्रसन्नता है कि आज की हिंदी कहानी में कई लेखक इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। मैं कहानी पढ़ते समय यह नहीं देखता कि कहानीकार युवा है या प्रौढ़, स्त्री है या पुरुष, दलित है या सवर्ण, हिंदू है या मुसलमान या किसी और धर्म का। जिन्हें कहानीकारों में ऐसे भेद करना जरूरी लगता है, उनकी वे जानें, मैं तो कहानी को देखता हूँ और हर तरह के कहानीकारों की कहानियाँ पढ़ता हूँ। इससे कई बार मुझे बड़ी आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक कहानीकार हैं द्वारकेश नेमा, जिनका पहला कहानी संग्रह उनकी उम्र के इकहत्तरवें वर्ष में छपा है। आज के चट मँगनी पट ब्याह वाले समय में यह वाकई एक अद्भुत और विलक्षण बात है कि एक कहानीकार का पहला कहानी संग्रह इकहत्तर वर्ष की उम्र में छपे और उसकी ग्यारह में से नौ कहानियाँ पैंसठ साल की उम्र के बाद लिखी गयी हों। लेकिन इस बुजुर्ग कहानीकार की कहानियों का-सा नयापन आज के बहुत-से युवा कहानीकारों की कहानियों में भी मिलना मुश्किल है। आपको विश्वास न हो, तो उनका कहानी संग्रह ‘हीरामन-अमत्र्य सेन और अन्य कहानियाँ’ पढ़कर देख लें। दूसरी तरफ एक नितांत नये लेखक अमित मनोज की ‘परिकथा’ के नवलेखन अंक (सितंबर-अक्टूबर, 2008) में छपी कहानी ‘चूड़ियाँ’ पढ़ें, तो आप पायेंगे कि नये लेखक भी आज के भूमंडलीय यथार्थ को एक भविष्योन्मुखी दृष्टि से देख रहे हैं और उनकी कहानियों में जो नयापन है, वह उस यथार्थ के व्यापक परिपे्रक्ष्य में कहानी लिखने के कारण आ रहा है। 


  • अशोक : कुछ ऐसे युवा कहानीकार, जिनमें आपको संभावना दिखायी देती है? कुछ ऐसी कहानियाँ, जिनमें वाकई नयी रचनाशीलता दिखायी दी हो? 

रमेश उपाध्याय: देखिए, संभावना तो हर लेखक में रहती है और हर लेखक के विषय में यह आशंका भी कि आज वह जो बहुत अच्छा लिख रहा है, कल बहुत खराब लिखने लगे। या आज जो बहुत नया लग रहा है, कल ही पुराना पड़ जाये। मैं नाम नहीं लूँगा, लेकिन रवींद्र कालिया ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ से जिस युवा पीढ़ी को सामने लाये और परमानंद श्रीवास्तव जैसे नामगिनाऊ आलोचकों ने उस पीढ़ी के जिन कहानीकारों को रातोंरात आसमान पर चढ़ा दिया, वे अपने से आगे वाले युवा कहानीकारों की तुलना में आज ही पुराने पड़ गये लगते हैं। उदाहरण के लिए, ‘नया ज्ञानोदय’ के ही मई-जून, 2007 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की कहानियों की तुलना जून, 2010 में निकले युवा पीढ़ी विशेषांक में छपे लेखकों की कहानियों से करें, तो आप पायेंगे कि इन तीन सालों में ही ‘युवा पीढ़ी’ के कई चमकीले सितारे अपनी चमक खोकर पुराने-से लगने लगे हैं। मैं यह नहीं कहता कि उनमें संभावना नहीं रही। मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि संभावना के नाम पर की गयी भविष्यवाणियाँ अक्सर गलत साबित होती हैं। नयी पीढ़ी का स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन इस प्रकार नहीं कि उनके आगमन मात्र से जैसे कोई क्रांति हो गयी हो और अब तक साहित्य में जो कुछ हुआ, वह सब पुराना और बेकार हो गया हो। लेखकों की उम्र से नयी रचनाशीलता का कोई सीधा संबंध नहीं होता। उदाहरण के लिए, अभी मैंने जिन दो कहानीकारों के नाम लिये, उनमें अमित मनोज केवल 28 वर्ष के हैं और द्वारकेश नेमा 71 वर्ष के। लेकिन दोनों की कहानियों में नयी रचनाशीलता दिखायी पड़ती है। अमित मनोज की कहानी के बारे में मैंने विस्तार से ‘परिकथा’ के नवंबर-दिसंबर, 2008 के अंक में लिखा था और नेमा जी कहानियों पर विस्तार से ‘कथन’ के जुलाई-सितंबर, 2010 के अंक में लिखा है। 

  • अशोक : इस नयी रचनाशीलता की क्या विशेषताएँ हैं? 

रमेश उपाध्याय: नयी रचनाशीलता का कोई एक रूप नहीं होता। उसके विभिन्न रूप होते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्रकार की नयी रचनाशीलता आपको ‘नया ज्ञानोदय’ के युवा पीढ़ी विशेषांकों में मिलेगी, तो दूसरी प्रकार की नयी रचनाशीलता ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में। ‘नया ज्ञानोदय’ वाली युवा पीढ़ी की विशेषताएँ उसके संपादक रवींद्र कालिया के शब्दों में ये हैं--‘‘इस पीढ़ी के पास अपनी शब्द संपदा है, अपने मुहावरे हैं। वाक्य विन्यास में भी नये-नये प्रयोग देखे जा सकते हैं। ये भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी नहीं हैं और न ही आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं।’’ ध्यान से देखें, तो यहाँ नयी रचनाशीलता भाषा में आये बदलाव में देखी जा रही है। कथ्य में आये बदलाव की बात यहाँ सकारात्मक रूप से नहीं, बल्कि नकारात्मक रूप में की जा रही है। उससे ‘युवा पीढ़ी’ की कहानी की अंतर्वस्तु का पता नहीं चलता कि उसमें क्या है। बस, इतना पता चलता है कि क्या नहीं है। और उससे ‘युवा पीढ़ी’ की प्रशंसा के बहाने प्रगतिशील-जनवादी कहानी की निंदा की गयी है और उस पर कुछ आक्षेप किये गये हैं। मसलन, प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार भाषा के स्तर पर बहुत शुद्धतावादी हैं, जो ये युवा पीढ़ी के कहानीकार नहीं हैं। या प्रगतिशील-जनवादी कहानीकार अपनी कहानियों में आदिवासियों, दलितों और शोषितों के प्रति घड़ियाली आँसू बहाते हैं, जो युवा पीढ़ी के कहानीकार नहीं बहाते। मतलब यह कि प्रगतिशील-जनवादी कहानीकारों का लेखन एक प्रकार का छद्म लेखन है और इस युवा पीढ़ी का लेखन जेनुइन है। मैं ‘छद्म’ और ‘जेनुइन’ शब्दों का इस्तेमाल जान-बूझकर कर रहा हूँ, क्योंकि यह शब्दावली हिंदी को प्रगतिशील-जनवादी लेखन के विरोधियों की देन है। 

  • अशोक : तो आपके विचार से ‘परिकथा’ तथा अन्य पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों से सामने आ रही नयी पीढ़ी के कहानीकारों की कहानी की क्या विशेषताएँ हैं? 

रमेश उपाध्याय: मैंने ‘परिकथा’ के सितंबर-अक्टूबर, 2008 वाले नवलेखन अंक में प्रकाशित कहानियों पर जो लेख उसके नवंबर-दिसंबर, 2008 वाले अंक में लिखा था, उसका शीर्षक था ‘कलावाद और अनुभववाद से मुक्त होती हिंदी कहानी’। लेकिन इधर की चर्चित, बल्कि जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की ये ही दो विशेषताएँ हैं--कलावाद और अनुभववाद! आप इस ‘युवा पीढ़ी’ की सारी कहानियाँ पढ़ जाइए, उनमें ‘बात’ पर कम और ‘बात कहने के ढंग’ पर ज्यादा जोर है। ये कहानीकार कहानी का कथ्य अपने निजी अनुभव से लेते हैं, जो स्वाभाविक है कि पहले की पीढ़ियों के अनुभव से भिन्न है, नया है--नयी टेक्नोलाजी, नयी सूचना-संस्कृति, नयी जीवन-शैली के कारण--लेकिन आज के भूमंडलीय यथार्थ की व्यापकता को देखते हुए वह अत्यंत सीमित है। वह लगभग निरुद्देश्य और लगभग निरर्थक भी है, क्योंकि ये लेखक शायद यह मानकर चल रहे हैं कि दुनिया जैसी है, वैसी ही हमेशा रहनी है और उसका कोई विकल्प नहीं है। इससे बेहतर दुनिया की कोई कल्पना या परिकल्पना उनके पास नहीं है, इसलिए उनकी कहानियों का कथ्य किसी बेहतर भविष्य की ओर प्रवाहित गतिशील धारा का नहीं, बल्कि यथास्थितिवाद के पोखर में रुके हुए सड़ते पानी का-सा अहसास कराता है, जिसे वे भाषाई चमत्कारों से सुंदर बनाने की कोशिश करते दिखायी देते हैं। लेकिन यह कोशिश सड़ते हुए पानी में कमल के फूल खिलाने की-सी कोशिश होती है--हिंदी की जगह हिंग्लिश के प्रयोग से, गालियों और भदेस अभिव्यक्तियों से, दुनिया भर की सूचनाओं की भरमार से, विदेशी लेखकों के संदर्भरहित उद्धरणों से, कहानी के बीच में लंबे-लंबे चमत्कारपूर्ण उपशीर्षकों से, किसी भी संदर्भ में घुसा दिये जाने वाले यौन-प्रसंगों से या एक प्रकार का बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने के प्रयासों से!

  • अशोक : पर आज की सभी कहानियों में तो यह सब नहीं होता।

रमेश उपाध्याय: मैं सभी कहानियों की नहीं, इधर की चर्चित और जरूरत से ज्यादा चर्चित ‘युवा पीढ़ी’ की कहानियों की बात कर रहा हूँ। इस ‘युवा पीढ़ी’ के कहानीकार गर्व से कहते हैं कि वे उदय प्रकाश को अपना आदर्श मानते हैं। अब आप देखें कि उदय प्रकाश के लेखन में सबसे ज्यादा जोर किस चीज पर होता है। उस भाषा पर, जो बौद्धिक आतंक उत्पन्न करने वाली सूचनाओं से लदी-फँदी भाषा है। ‘युवा पीढ़ी’ के लेखक भी ऐसी भाषा लिखने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, प्रभात रंजन स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि ‘‘जब मैं कहानियाँ लिखता हूँ, यह उदय प्रकाश से सीखा है कि जो चीज आप उस समय पढ़ रहे हैं, उसका उपयोग जरूर कर लें।’’ इन कहानीकारों का जोर कहानी के कथ्य पर उतना नहीं है, जितना भाषा और शिल्प पर। मगर ये सभी कहानीकार इस मामले में एक जैसे नहीं हैं। भाषा और शिल्प पर जरूरत से ज्यादा जोर देना ठीक नहीं है, यह बात इनमें से कई लेखक आत्मालोचना के रूप में कहते भी हैं। लेकिन ज्यादातर का जोर भाषा और शिल्प पर ही रहता है। 

  • अशोक : कुछ उदाहरण? 

रमेश उपाध्याय: उदाहरण के लिए, ‘प्रगतिशील वसुधा’ में छपे युवा लेखकों के संवाद को देखें। उसमें आपको दोनों प्रकार के विचार मिल जायेंगे। मसलन, ज्योति चावला कहती हैं कि ‘‘विषय तो हर युग में बदलते रहे हैं। लेकिन इस युवा कहानी ने जो अपनी अलग पहचान बनायी है, इसका कारण उसका अपना शिल्प है, उसकी भाषा है, उसका ट्रीटमेंट है, उसका प्रेजेंटेशन है।’’ लेकिन संजय कुंदन इससे सहमत नहीं। वे कहते हैं कि ‘‘कई बार तो हम पूरी कहानी पढ़ जाते हैं और भाषा के चमत्कार में बँधकर रह जाते हैं। अंत में पता चलता है कि कहानी में तो कुछ था ही नहीं।’’ प्रभात रंजन कहते हैं कि ‘‘मैं मानता हूँ, कोई भी लेखक जो है, वह भाषा से ही है।’’ इसके विपरीत योगेंद्र आहूजा का विचार है कि ‘‘कई बार कंटेंट की कमी को भाषा से ढँकने की कोशिश भी की जाती है।’’ लेकिन कुणाल सिंह पुनः भाषा पर जोर देते हुए कहते हैं कि ‘‘भाषा अपने-आप में कंटेंट है।’’ शायद भाषा और शिल्प पर इतना जोर देने के कारण ही ये लेखक स्वयं को प्रगतिशील और जनवादी लेखकों की परंपरा का नहीं, बल्कि निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी और उदय प्रकाश की परंपरा में रखकर देखते हैं। उदय प्रकाश इनके आदर्श शायद इसलिए भी हैं कि उन्हें साहित्य के बाजार में अद्वितीय और असाधारण सफलता प्राप्त हुई है। ये लेखक भी ऐसी ही सफलता के आकांक्षी हैं। 

  • अशोक : लेकिन इसी पीढ़ी में दूसरे लेखक भी तो हैं, जो भाषा या शिल्प और शैली पर इतना जोर न देकर कहानी के कथ्य और आज के यथार्थ का चित्रण करने पर जोर देते हैं। वे भी बहुत अच्छी और महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिख रहे हैं, पर उनकी इतनी चर्चा नहीं होती। इसका क्या कारण है? 

रमेश उपाध्याय: यह सवाल आलोचकों से पूछा जाना चाहिए। 

  • अशोक : हिंदी कहानी की आलोचना की अब क्या भूमिका है? क्या वह वास्तव में नये रचनाकारों की परख कर पा रही है? 

रमेश उपाध्याय: आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर निहित है। लेकिन यह देखना चाहिए कि इसका कारण क्या है। मुझे लगता है कि हिंदी कहानी और कहानी की आलोचना दोनों को बाजारवाद बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। बाजारोन्मुख कहानीकार और आलोचक यह मानकर चल रहे हैं कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह दुनिया अब हमेशा ऐसे ही चलेगी। इसे बदलना, सुधारना, सँवारना, बेहतर बनाना संभव नहीं है। साहित्य से, और कहानी जैसी विधा से तो बिलकुल नहीं। वे कहानी को बाजार में बिकने वाली वस्तु मानते हैं। कहानीकार आलोचकों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी कहानी को--और उनको भी--बाजार में ऊँचे दामों में बिकने लायक बनायें। अर्थात् उनका विज्ञापन करें, बाजार में उनकी जगह बनायें, उनकी कीमत बढ़ायें। दुर्भाग्य से आलोचक स्वयं भी यही चाहते हैं कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहें, ताकि वे स्वयं भी बाजार में टिके रहें और उनकी अपनी कीमत भी बढ़ती रहे। ऐसे लेखक और आलोचक दुनिया के भविष्य के बारे में नहीं, केवल अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं। 


  • अशोक: लेकिन ऐसे कहानीकार और ऐसे आलोचक भी तो हैं, जो अपना भविष्य दुनिया के भविष्य के साथ जोड़कर देखते हैं?

रमेश उपाध्याय: निश्चित रूप से हैं। मगर उन्हें आपस में जोड़ने वाला कोई आंदोलन न होने के कारण वे बिखरे हुए हैं, अलग-थलग पड़े हुए हैं। जरूरत है कि वे निकट आयें और मिल-जुलकर एक आंदोलन चलायें। एक नया कहानी आंदोलन।

  • अशोक : आपके विचार से उस नये आंदोलन का नाम और रूप?

रमेश उपाध्याय: रूप तो आंदोलन चलाने वाले लेखक ही उसे देंगे, पर मैं एक नाम सुझा सकता हूँ। हमारी इस बातचीत में अभी-अभी दो शब्द आये--बाजारोन्मुखी और भविष्योन्मुखी। तो हम बाजारोन्मुखी कहानी के बरक्स भविष्योन्मुखी कहानी का आंदोलन ही क्यों न चलायें?

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11 अगस्त, 2010



4 टिप्‍पणियां:

  1. आभार
    अच्छा लगा यह साक्षात्कार पढ़कर...

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  2. निश्चित तौर पर इस साक्षात्कार में कई जरुरी प्रश्नों को उठाया गया है | युवा को परिभाषित करने का तरीका पसंद आया और यह भी कि एक लेखक को प्रतिबद्ध होना ही चाहिए | फिर उनका अंतिम सुझाव भी बहुत अच्छा है ...भविष्योन्मुखी कहानी आंदोलन वाला सुझाव ..| ..कथा आलोचकों के बारे में की गयी टिप्पड़ी भी काफी महत्वपूर्ण है,कि वे लेखकों का बाजार बना और बिगाड़ सकने की भूमिका में बने रहना चाहते हैं , जो दुर्भाग्यपूर्ण है |

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  3. युवा लेखकों के बारे में कई दृष्टिकोणों को तलाश करता हुआ साक्षात्कार ! अशोक जी को धन्यवाद !

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