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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंध राष्ट्रभक्ति और उन्मादी आज़ादी के नारों के बीच ज़रूरी सवाल : अक्षत

जे एन यू के छात्र तथा एस ऍफ़ आई और आग़ाज़ से जुड़े अक्षत सेठ ने 9 तारीख को कैपस में हुई घटना पर विस्तार से लिखा है जो दोनों पक्षों को कटघरे में खडा करता है और बहुत गंभीरता से पढ़े जाने की माँग करता है. -------------------------------------------------------------------------------------- जेएनयू में कल हुए कार्यक्रम पर कुछ बुनियादी तथ्य और सवाल रखने बहुत ज़रूरी हो जाते हैं:

पहले, उन लोगों से जो 'कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे' कहते हैं मगर आज तक वैष्णो देवी से आगे गए भी नहीं, और साथ ही उनकी सरकार, देशभक्ति के ठेकेदार मीडिया और इस विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र से:

1. दिल्ली से थोड़ी दूर एक शहर मेरठ है। आज से 68 साल पूर्व एक प्रार्थना सभा में एक निहत्थे बूढ़े पर एक तथाकथित राष्ट्रवादी ने गोली चलायी जिसने, (पॉइंट टू बी नोटेड माय लार्ड) आज तक ऑन रिकॉर्ड किसी अँगरेज़ को एक पत्थर नहीं मारा। मैं कोई गांधीवादी नहीं लेकिन इस देश के संविधान में उस बूढ़े को राष्ट्रपिता का दर्ज दिया गया है। मेरठ में हिन्दू महासभा के लोग खुलेआम गांधी की मौत पर मिठाई बांटते हैं। साक्षी महाराज गोडसे को देशभक्त कहते हैं। अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हिन्दू महासभा के स्वामी ओमजी खुलेआम कहते हैं कि गोडसे ने गांधी को मारकर गौरव का कार्य किया है। ( वीडियो ये रहा ) ये सारे लोग जेल से बाहर हैं, कोई देशद्रोही नहीं कहलाया गया और न कोई जेल में गया। ये दोहरे मापदंड क्यों कि आप इन सभी को बस प्यार से डांटकर चुप करा देते हैं और जेएनयू के पीछे पड़ जाते हैं? राष्ट्रद्रोही हैं तो दोनों हैं, वर्ना एक भी नहीं। यह दिखता है कि दो एक जैसे क़िस्सों में समानता और न्याय की दुहाई देने वाले लोकतंत्र में अलग-अलग स्टैण्डर्ड हैं।

2. अफज़ल गुरु और याक़ूब दोनों के केस में सबसे पहला विरोध फांसी की सज़ा को लेकर सिविल सोसाइटी की तरफ से हुआ है। जो लोग नहीं जानते या अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं उनकी जानकारी के लिए बता दें कि फांसी की सजा का विरोध करना हमारा संवैधानिक हक़ है। और जो संवैधानिक हक़ है उसको अगर आप एंटी-नेशनल बोलेंगे तो आपपर मानहानी का दावा भी हो सकता है (वैसे मैं मानहानी का समर्थन बिलकुल नहीं करता पर बिलकुल लीगल टर्म्स में बात कर रहे हैं). फांसी की सजा का विरोध कई देशों में हुआ है। कई देशों ने मौत की सजा को ख़त्म कर दिया है। अगर आरएसएस 26 जनवरी 1950 के दिन तिरंगा झंडा की जगह भगवा फरा सकता है तो हम भी फांसी की सजा का विरोध कर सकते हैं।

3. अफज़ल गुरु की फांसी पर माननीय उच्चतम न्यायालय का कहना है कि 'देश की सामूहिक चेतना' की संतुष्टि के लिए उसे फांसी देना बहुत ज़रूरी है। यह कॉमन सेन्स है कि सामूहिक चेतना किसी को फांसी देने का क़ानूनी तर्क नहीं है। सामूहिक चेतना तो समलैंगिकता के भी खिलाफ है पर इसे फिर भी पूर्व में क़ानूनी दर्जा दिया गया है। अगर इसे देश की न्याय पद्धति सामूहिक चेतना के नाम पर भीड़तंत्र से संचालित होने लगी तो जिस सऊदी अरब और ईरान से तुलना कर भक्त टाइप लोग फूले नहीं समाते उसमें और आपमें कोई अंतर नहीं। वहां भीड़ पत्थर मार देती है और यहाँ फांसी दे दी जाती है कागज़ी कार्यवाही के साथ। और फांसी के बाद इस सबसे बड़े लोकतंत्र की न्यायव्यवस्था, सरकार और सुरक्षा एजेंसियां इतना क्यों डर गयीं कि अफज़ल की लाश उसके परिवार वालों तक को नहीं दी गयी? ऐसा ही रोहित वेमुळे के साथ किया गया। आप यदि पाक साफ़ हैं तो क़ानून और संविधान को पूरा फॉलो कीजिये।

4. और यह सबसे अहम है। कितनों को पता है कि सिर्फ सं 1990 या 1947 ही नहीं बल्कि 1848 से कश्मीर में क्या हुआ है? कितनों को पता है कि डोगरा राज्य में जम्मू और कश्मीर में छह प्रतिशत हिन्दुओं के पास नब्बे प्रतिशत ज़मीन थी? कितनों को पता है कि 1947 में महाराजा हरी सिंह का भारत या पाकिस्तान में जाने का कोई इरादा नहीं था और वहां पर आरएसएस के अवतार प्रजा परिषद के लोग उसे हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहतेथे? कितनों को पता है कि संघ परिवार के परम पूज्य और देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल कश्मीर को भारत में मिलवाना ही नहीं चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान बहुमत वाले राज्य का भारत में कोई काम नहीं? कितने जानते हैं कि भारतीय सरकार ने कश्मीर में किसी सार्थक लोकतांत्रिक विकल्प को पैदा ही नहीं होने दिया और मजबूरी में वहां की अवाम को उग्रवाद का रास्ता पकड़ना पड़ा? कुनान पोषपुरा गाँव में महिलाओं के साथ आर्मी द्वारा किये गए सामूहिक बलात्कार के बारे में कितने लोग जानते हैं? उन गायब लड़कों के बारे में जिनको सिर्फ शक के आधार पर सेना पकड़ कर ले गयी और जिनका एनकाउंटर कर दिया गया? पल-पल अपने चारों और फ़ौज का जमावड़ा होने का मतलब जानते हैं? अच्छा कश्मीरी पंडितों के खैरख्वाह लोग कम से कम यह तो जानते होंगे कि जब पंडितों को घाटी छोड़कर जाना पड़ा तो कश्मीर में गवर्नर कौन था। उसका नाम जगमोहन था, वे भाजपा में शामिल हुए और हाल ही में उन्हें पद्मभूषण मिला है। वे पंडितों को घाटी से जाता देख तमाशा क्यों देख रहे थे? सेना भी उनके पास थी और प्रशासन भी। हर कोई कश्मीर पर ओपिनियन रखता है तो उसके बारे में पढ़ने और वहां की आम जनता की ज़िंदगी और उसके दुःख-दर्द को जानने की कितनी कोशिश की इस मीडिया या तथाकथित राष्ट्रवादियों ने?

पर सवाल उन आज़ादी के मतवालों से भी पूछना बनता है जो वहां नारे दे रहे थे:

1. आपके लिए अपनी आज़ादी ज़रूरी है या किसी और की बर्बादी ज़्यादा ज़रूरी? अगर आप आज़ादी के साथ या उससे ज़्यादा किसी और की बर्बादी की चिंता करते हैं और उन्माद में इसी कामना के साथ नारे लगते हैं तो मुझे कसकम बहुत शक है आपकी लड़ाई की ईमानदारी पर। मुझे इसमें प्रतिक्रियावाद और कट्टरपंथ की बू आती है। किसी और की बर्बादी की कामना करने वाला नारा यह दिखता है कि आपकी आज़ादी का सपना मर चुका है और आपके भीतर सिर्फ धार्मिक उन्माद और नफरत ज़िंदा है जो आज़ादी मिलने पर कश्मीर को संवारने से ज़्यादा अपनी नफरत की आग को ज़िंदा रखने पर आधारित है।

2. अगर मैं कश्मीर में हो रहे दमन के खिलाफ उठ रहीं आवाज़ों का समर्थन करता हूँ (जो कि मैं करता हूँ) तो मेरा यह पूछने का हक़ है कि आज़ादी के बाद का कश्मीर कैसा होगा? क्या वहां प्रगाश बैंड की लड़कियों को रेप की धमकियां दी जाएंगी और उनपर फतवे जारी किये जाएंगे? मैंने कश्मीर पर जेएनयू में पहले भी प्रोटेस्ट देखे हैं। इनमें कई बार धार्मिक उन्माद से भरपूर होकर नारे लगाये गए हैं। इस तरह के प्रोटेस्ट सिम्बल्स में माफ़ कीजियेगा पर मुझे इन नारों में कश्मीर या उसकी एक आइडेंटिटी को बचाता नारा नहीं दिखता बल्कि पाकिस्तान नामक एक फेल्ड स्टेट और सऊदी अरब से एक्सपोर्ट हुई मध्ययुगीय दकियानूसी वहाबियत/सलफ़ियत और अमेरिकी साम्राज्य्वाद से संचालित सऊदी पेट्रोडॉलर की बू आती है। कश्मीर में हो रहे दमन का विरोध करने का मतलब किसी भी धार्मिक कट्टरपंथ का समर्थन करना नहीं है। यह एक तथ्य है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ने बड़ी सफलतापूर्वक कश्मीर आंदोलन के सेक्युलर और कश्मीरी आइडेंटिटी पर आधारित तबके को साइडलाइन कर लगभग ख़त्म कर दिया है जिससे दोनों तरफ की शोषणकारी व्यवस्थाओं और फिरकापरस्तों को फायदा हुआ है। अगर जेएनयू जैसे कैंपस में भी कश्मीर के सवाल को भारत/पाकिस्तान और हिन्दू/मुसलमान की बाइनरी से देखा जाता है (और आरएसएस तो चाहता ही है कि ऐसा हो ताकि उनका फायदा हो) तो समझदार लोगोंके द्वारा वो नारे क्यों लगाये गए जिनकी पैदाइश कश्मीर का प्रतिरोध नहीं बल्क़ि पाकिस्तान प्रायोजित धार्मिक उग्रवाद है? यदि मैं यहाँ गलत हूँ तो ज़रूर माफ़ी चाहूंगा और मुझे करेक्ट किया जा सकता है पर यदि एडिटिंग के द्वारा झूठी अफवाहें फैयिन गयीं भी है तो भी मुझे पता है कि वहां नारे दमनके खिलाफ लग रहे थे पर साथ ही धार्मिक उन्माद के पक्ष में भी लग रहे थे। मैंने पूर्व में ऐसे नारे लगते देखे हैं और मैं सैद्धांतिक रूप से इनका विरोध करता हूँ और करने का लोकतांत्रिक हक़ रखता हूँ।

3. जब धार्मिक उन्माद में मध्यवर्गीय रूमान जनवाद और प्रतिरोध का मुखौटा लिए आता है तो बस हंगामा खड़ा होता है, सूरत नहीं बदलती। क्या दमनकारी शक्तियों के विरोध को भारत के टुकड़े करने की कामना का रूप दे देना और झंडे को लात मारना (अगर ऐसा हुआ है तो, नहीं हुआ तो माफी चाहता हूँ ऐसा कहने की एडवांस में) का मक़सद सिर्फ प्रोवोक करना और कॉर्पोरेट मीडिया में सनसनी फैलाना नहीं था? आज तक जेएनयू में कश्मीर पर हंगामा हुआ है, डिबेट करके लोगों के नज़रिये को बदलने की कोशिश बहुत ही कम हुई है कमसकम जबसे मैं रहा हूँ। डोगरा रूल में हुए अन्याय से लेकर 47 की घटनाओं और उसके बाद भारत सरकार के अपने ही संविधान का मखौल उड़ाकर कश्मीर की लोकतांत्रिक अस्मिता को कुचलने के सिलसिलेवार क़िस्सों को तथ्यों के साथ पेश किया गया? जर्गन से और हंगामे से आगे जानेकी कोशिश की गयी। मेरी समझ से नहीं की गयी क्योंकि सनसनी पर आधारित नवउदारवादी संस्कृति के मानकों को लेफ्ट के जरगन के साथ हूबहू कॉपी करने की टेंडेंसी आ गयी है। और उसमें धार्मिक उन्माद की दिशाहीन विचारधारा को ही आज़ादी की लड़ाई का अंतिम सत्य मान लिया गया है।

4. जब दुश्मन हमसे बदला लेने के मौके ढूंढ रहा है तो क्या हमें उसके जाल में फंसकर हमारे कैंपस के लोकतांत्रिक स्पेस को खतरे में डालना चाहिए था( मेरी असहमति सिर्फ वहां लगाये नारों से है, वह आयोजन बिलकुल होना चाहिए तह और ऐसे आयोजन और होने चाहिएं) जबकि उनके पास स्टेट मशीनरी और मीडिया मैनेजमेंट है? यह तो वही क़िस्सा हो गया कि मेरे पिताजी बड़े बहादुर थे, तो क्या किया? शेर सेलड़ गए। और शेर ने खा लिया। और सब ख़त्म। एक कम्युनिस्ट होने के नाते मुझे इस तरह के हथकंडे revolutionary nihilism ही लगते हैं। मिडिल क्लास हिरोइज़्म कमसकम मेरे लिए सीखने की चीज़ नहीं है।

कश्मीर में जैसा की मैंने कहा, पूरी कोशिश हुई है कि जेकेएलएफ और बाक़ी संगठनों से उसका सेक्युलर और जनवादी करैक्टर छीनकर उसे साम्प्रदायिक रंग देने की। इससे दोनों मुल्कों के ठेकेदारों को अपने-अपनेहिस्सों को आज़ाद कहते हुए जेल बनाये रखने में मदद मिलती है। ऐसे में तथ्य सामने लाये जाने चाहिएं, वैचारिक बहसें होनी चाहिएं। मीडिया को दिखाने के लिए स्टंटबाजी एबीवीपी जैसों का हथियार है, उसे उन्हीं के पास रहने दिया जाए।

आराम से कहा जा सकता है कि हमारे कैंपस के डेमोक्रेटिक स्पेस को बचाने गए छात्र समुदाय के एक तबके में भी संशय की स्थिति बनी है और सबका मानना है कि जहाँ आरएसएस के सपोले मौके का फायदा उहने और राज्य की मशीनरी काइस्तेमाल करने के मौके ढूंढ रहे थे, वह मौक़ा उन्हें वैचारिक अपरिपक्वता ने थाली में सजाकर दे दिया है।

इस समय ज़रुरत है अफज़ल गुरु और कश्मीर से जुड़े सवालों पर तथ्य सामने लाने की। जिन लोगों को ये एक न्यायसंगत लड़ाई से ज़्यादा सऊदी स्टाइल धार्मिक जिहाद लगता है वे फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का सहारा लेना छोड़ें।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सबसे पहले ये साफ कर लेते हैं, कि कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे जैसे नारे फिल्मों यानी मास मीडिया से आए हैं, जनमानस इसे स्वीकारे ये ज़रूरी नहीं

    1. गांधी हत्‍या के बाद गुरुजी पर धारा-302 के तहत हत्‍या के षडयंत्र में शामिल होने का मुकदमा दर्ज किया गया था और उन्‍हें 1 फरवरी 1948 को गिरफतार कर जेल में डाल दिया गया। इसके बाद 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया और देश भर में हजारों संघ कार्यकर्ताओं को घर से उठा-उठा कर जेल में बंद किया गया। 5 फरवरी को गुरुजी ने प्रतिबंध हटाए जाने तक संघ को विसर्जन करने का आदेश जेल से ही जारी किया। उन्‍होंने इस आशय का लिखित आदेश अपने वकील मित्र दत्‍तोपंत देशपांडे के जरिए भेजा था। उस पत्र में लिखा था, ''इस समय सरकार ने संघ को अवैध घोषित कर दिया है। अत: मैं यह उचित समझता हूं कि प्रतिबंध हटाए जाने तक संघ को विसर्जित कर दूं, इसलिए ये कहना कि बापू की हत्या में कोई देशद्रोही नहीं कहलाया गया और न कोई जेल में गया, ग़लत होगा। ये और बात है कि ना तो संघ, ना वाम, ना ही दलित संगठऩों के मुख्यालय की तस्वीरों में बापू को जगह मिलती है। ( कम से कम जितने दफ्तरों को मैंने देखा है )

    2. फांसी की सज़ा का कई लोगों ने विरोध किया लेकिन उसकी आड़ में आप भारत की बर्बादी की दुआ करें पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाएं ये कहां तक जायज है। सिविल सोसायटी वाम या दक्षिणमार्गियों की मिल्कियत नहीं है।


    3. अफज़ल की लाश नहीं दी गई, इसका भी विरोध हुआ ... लेकिन एक कलम में लाश की बात पर रोहित वेमुला को जोड़ देना मुद्दे को थोड़ा भटकाता है। अफज़ल की लाश पर सरकार को आशंकाएं रही होंगी, फिर भी मुझे लगता है ये ग़लत था।


    4. डोगरा जैसे पुराने उदाहरण देने पर अगर लोग औरंगजेब की जुल्मत की बातें करने लगें तो ? ये क्या तर्क है कि 300-400 साल पहले कुछ हुआ तो आप किसी को 80 के दशक में मार भगाने लगें, फिर जब आप कहते हैं तो बंगाल के साथ कश्मीर में भूमि सुधार सबसे अच्छे तरीके से हुआ तो इस तर्क का कोई आधार बचता है? हरी सिंह की तरह कई नवाबों या राजाओं के तर्क अलग थे ।

    आख़िरी बात दो ग़लत मिलकर एक सही नहीं बन जाता

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  2. इतिहास की बारीक जानकारी नहीं है सर, विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं ... जो थोड़ा बहुत पढ़ा उसके हिसाब से कश्मीर में अफ़ग़ान, मुग़लों आदि का राज रहा, शायद कुछ वक्त के लिए महाराजा रणजीत सिंह के पास भी, बाद में गुलाब सिंह डोगरा ... वैसे यहां मौर्य, कुषाण, हूण के राज की भी बात पढ़ी है। लेकिन ये भी पढ़ा है कि सिकन्दर बुतशिकन ने कई मूल कश्मीरी हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन पर मजबूर किया। इसलिये इतिहास के पन्ने पलटकर क्या हासिल होगा ... ये हमेशा विजेता और विजितों की लड़ाई रहा है ... आज़ादी के बाद की बात करें, बहरहाल आपने भूमि सुधार को अनछुआ कर दिया, अगर बंगाल और कश्मीर में सबसे बढ़िया भूमि सुधार हुआ था तो 80 के दशक तक 6 फीसदी के पास नब्बे फीसदी ज़मीन का तर्क समझ से परे है

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  3. समालोचना। किन्तु किधर है आसानी से प्रतीत होता है।

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