द्वितीय
विश्व युद्ध के आरंभ होने पर कम्युनिस्ट पार्टी ने पीस पालिसी की घोषणा करते हुए
नारा दिया कि ‘ये जंग है साम्राज्यशाही, हम
न देगें एक पाई ना एक भाई.’ पार्टी ने सेना में भर्ती के ब्रिटिश अभियान तथा धन
जुटाने की कोशिशों का पुरजोर विरोध किया. विश्व युद्ध शुरू होने के एक महीने के
भीतर ही दुनिया कि पहली युद्ध विरोधी हड़ताल बंबई में हुई जिसमें 89 हजार कपड़ा मजदूरों के अलावा हजारों दूसरे मजदूर भी शामिल हुए. अक्तूबर
में पोलित ब्यूरो द्वारा पारित प्रस्ताव में कहा गया कि युद्धकालीन संकट का उपयोग
आजादी के लिए किया जाना चाहिए. पार्टी ने अपना लक्ष्य घोषित किया – ‘साम्राज्यवादी
युद्ध का राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध में क्रांतिकारी रूपांतरण.’ ऐसा ‘गांधीवादी
तरीकों की जंजीरों को तोड़कर मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी कार्यवाहियों के उभार’
द्वारा किया जाना था इसके उलट कांग्रेस की नीति सौदेबाजी की थी. उसने युद्ध के बाद
संवैधानिक सभाओं के निर्माण के बदले मदद की पेशकश की.
युद्ध के
दौरान कम्युनिस्ट पार्टी की आक्रामक नीतियों का प्रतिफलन जुझारू किसान मजदूर
आंदोलन के रूप में हुआ. मद्रास, आंध्र,
मालाबार बंगाल आदि तमाम जगहों पर किसानों ने हंगर मार्च निकाल कर
युद्ध के दौरान बढ़ी हुई कीमतों का विरोध किया तथा जमींदारों तथा व्यापारियों को
मुफ्त या कम कीमत पर अनाज़ उपलब्ध कराने के लिए मज़बूर किया गया. ऐसे आंदोलनों में सबसे महत्त्वपुर्ण नाम कय्यूर
का है. मालाबार से लगे इस इलाके में 15 सितंबर को पूरे देश
के साथ-साथ ‘दमन विरोधी दिवस’ मनाया गया. इसी के साथ यहां अवैध वसूली, ज़बरन बेदख़ली,
लगान वृद्धि और बढ़ती कीमतों के खिलाफ तीखा संघर्ष शुरू हो गया. 25-26 मार्च को स्थानीय पुलिस ने तमाम कम्युनिस्ट
नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. 28 मार्च को गुस्साए किसानों ने
दो पुलिसवालों की हत्या कर दी. इसके बाद तो दमन का भयावह दौर शुरू हो गया. 4 किसानों को फांसी की सज़ा हुई और 16 को आजीवन
कारावास 29 मार्च को फाँसी के फंदे को चूमते हुए उन वीर
किसानों ने नारा बुलंद किया ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘फासीवाद
मुर्दाबाद’, ‘कम्युनिस्ट पार्टी जिंदाबाद’, और इस तरह कय्यूर
का क्रांतिकारी संघर्ष इतिहास का एक सुनहरा अध्याय बन गया.
युद्ध
के इन आरंभिक वर्षों में कम्युनिस्ट पार्टी ने तीखा संघर्ष चलाया तथा युद्ध विरोधी
व ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों की अगुआई कर मजदूरों को दमन के खिलाफ
राजनीतिक रूप से जाग्रत भी किया. जबकि इस दौरान (1937-39) ब्रिटिश सरकार को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिंदू
महासभा और मुस्लिम लीग का बिना शर्त और कांग्रेस का सशर्त समर्थन मिला. यही नहीं
तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने तो कम्युनिस्ट आंदोलनों का भरपूर दमन भी किया.
लेकिन जून,
1941 में जर्मनी के रूस पर आक्रमण कर देने से माहौल पूरी तरह से बदल
गया. पूरी दुनिया पर फासीवाद का खतरा मंडराने लगा. दुनिया भर की मेहनतकश जनता की
उम्मीदों के केद्र सोवियत रूस के लिए यह युद्ध जीवन मरण का प्रश्न बन गया. इसके
बावजूद आरंभिक पांच महीनों तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने युद्ध विरोधी रूख ही
अपनाए रखा और कहा कि ‘लड़ते हुए सोवियतों की सबसे बड़ी सहायता यही हो सकती है कि हम
साम्राज्यवादी जुए को उतार फेंकें. आज़ाद हिंदुस्तान ही सोवियत संघ की सच्ची मदद कर
सकता है’. लेकिन जहां पी.सी.जोशी, के सुंदरैया, नंबूदरीपाद इस लाइन के समर्थन में थे, वहीं
कम्युनिस्ट इंटरनेशलन से प्राप्त दिशा निर्देश के बाद 1941
के अंत तक डांगे, मुजफ्फर अहमद, रणदिवे
आदि ‘जनयुद्ध लाइन’ के तहत इस युद्ध में मित्र सेनाओं को समर्थन देने के लिए
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संघर्ष रोक देने के पक्ष में हो गए. तीखी बहस के बाद अंततः
यही लाइन प्रभावी हुई.
इसी के तहत
सन 1942 में कांग्रेस ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू किया तो कम्युनिस्ट पार्टी ने
इसका विरोध किया. यहां दो बातें स्पष्ट करना ज़रूरी है, पहली यह कि कांग्रेस का यह
आंदोलन किसी बड़े उद्देश्य को ध्यान में रखकर शुरू नहीं किया गया था. यह केवल दबाव
बनाने की रणनीति थी, जिससे सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया से
मुस्लिम लीग को बाहर रखा जा सके. नेहरू ने स्पष्ट लिखा है “गांधी या उन्होंने ऐसे
कोई निर्देश जारी नहीं किए थे कि उनके जेल जाने के बाद आंदेलन की दिशा क्या हो”.
बाद में उनके जीवनी लेखक एस. गोपाल ने लिखा, ‘मानो पूरी कार्यकारिणी किसी ठोस
निर्णय से बचने के लिए जेलों में पलायित हो गई’. लेकिन उस समय तक जनता ब्रिटिश
सरकार के विरूद्ध पूरी तरह आंदोलित हो चुकी थी और ‘भारत छोड़ो’ का नारा जनता के स्वतः
स्फूर्त आंदोलन में बदल गया (गौरतलब है कि ऐसे में गांधी जी ने हिंसा की निंदा की
थी और आत्मसमर्पण की सलाह दी थी. यही नहीं, उन्होंने नाराज ब्रिटिश सत्ता की
मिजाजपुर्सी के लिए जी.डी. बिरला को दूत के रूप में भेजा था.) कम्युनिस्ट पार्टी
इस उभार के क्रांतिकारी उपयोग में असफल रही. इस समय जिस लचीले रूख की जरूत थी, वह
नदारद था और सोवियत संघ की जीत के बाद भी युद्ध का समर्थन जारी रख वही नीति अपनाया
जाना उसकी बड़ी भूल थी, जिसका अहसास पार्टी की दूसरी कांग्रेस
के दौरान 1948 में हुआ. यहां यह भी बता देना जरूरी होगा कि
यह लाइन इतनी हावी थी कि 5 अप्रैल, 1943 को माओ त्से तुंग द्वारा भेजी गई उस सलाह को भी तवज्जो नहीं दी गई जिसमें
उन्होंने सामराजी ताकतों के खिलाफ युद्ध तेज करने सलाह दी थी.
दूसरी बात यह कि आर. एस. एस.
और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग ने भी भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था. इनकी
भूमिका तो पूरे आंदोलन के दौरान ब्रिटिश एजेंटों जैसी रही. दक्षिणपंथ के बड़े नेता
श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने तो तत्कालीन मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में आंदोलन के
दमन में सक्रिय भूमिका निभाई थी. लेकिन जहां अपनी भूल के स्वीकार के बावजूद कम्युनिस्टों
को सन 42 के लिए आज भी कोसा जाता हैं, तत्कालीन ब्रिटिश राज
के विश्वस्त सहयोगी संघ की भूमिका को भुलाकर उसकी अनुयायी पार्टी राष्ट्रभक्ति के
प्रमाणपत्र जारी करती है. हम इस दौरान हिन्दुत्ववादी गिरोह के ब्रिटिश चाटुकारिता
के प्रमाण शमशुल इस्लाम के ‘काउंटर करेंट्स’ में छपे एक आलेख में दिए इन तथ्यों से
पा सकते हैं-
“आर एस एस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) और हिन्दू
महा सभा से निर्मित 'हिन्दू
खेमे ' की इस प्रसंग
में क्या भूमिका रही ? यह कुछ अज्ञात कारणोंवश अब भी अस्पष्ट है .दर असल
हिन्दू खेमे ने न केवल भारत
छोडो और आजाद हिंद फौज के दोनों आंदोलनों का विरोध किया बल्कि इनके दमन में
ब्रिटिश हुक्मरानों को अपना बहु-आयामी व बहु-विस्तारी सहयोग भी उपलब्ध करवाया. इस
सन्दर्भ में पढ़े जाने योग्य व विश्वसनीय कुछ हतप्रभ कर देने
वाले दस्तावेज उपलब्ध हैं . वीर सावरकर सुभाष चन्द्र बोस के विरुद्ध अँगरेज़
हुकूमत के साथ खड़े दिखाई देते हैं .
हिंदुत्व गिरोह नेताजी सुभाष बोस के ,जिन्होंने भारत से अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए एक सैन्य संगठन
निर्मित करने का प्रयास किया , घोर प्रशंसक होने का ढोंग करता है . परन्तु सावरकर के नेतृत्व
में हिन्दू महासभा द्वारा इस अभियान के प्रति किये गए विश्वासघात को
कम ही लोग जानते हैं .द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी देश की आज़ादी के
लक्ष्य प्राप्ति हेतु विदेशी सहायता ,विशेषकर जापान से मदद लेकर सैन्य शक्ति द्वारा देश के
पूर्वोत्तर क्षेत्रों पर आक्रमण करना चाहते थे ,वहीँ वीर सावरकर के नाम से प्रसिद्द विनायक दामोदर सावरकर ने
अपने ब्रिटिश आकाओं को पूर्ण सैन्य सहायता का आश्वासन १९४१ में ही दे दिया था
.भागलपुर में आयोजित हिन्दू महा सभा के २३वे सत्र को संबोधित करते हुए सावरकर ने कहा -
"जहाँ तक भारत की सुरक्षा का प्रश्न है ,हिन्दुओं को बिना हिचक थल ,वायु व नौ सेना में अधिकाधिक संख्या में भर्ती
होकर हिन्दू हितों के अनुरूप , ब्रिटिश भारतीय सरकार का एक प्रतिक्रियात्मक सहयोग की भावना से
प्रेरित होकर पूर्ण सहायता के लिए तत्पर रहना चाहिए ....पुनश्च यह ध्यातव्य है की
युद्ध में जापान के प्रवेश ने हमें प्रत्यक्षतः और तुरंत ब्रिटेन के शत्रुओं के
सम्मुख असहाय छोड़ दिया है .परिणामतः ,ये हमें पसंद हो या न हो, हमें युद्ध के झंझावातों से अपने घर बार की रक्षा हेतु स्वयं
प्रयास करने होंगे और यह केवल सरकार के भारत के रक्षार्थ युद्ध -प्रयत्नों को और
तेज करके ही किया जा सकता है . अतएव हिन्दू महा सभा के सदस्यों को ,विशेषकर बंगाल व असम प्रान्त में हिन्दुओं को
सेना के सभी अंगों में बिना एक भी मिनट गंवाए अधिकाधिक संख्या में भर्ती होने हेतु
जागरूक करने की आवश्यकता है."
द्वीतीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में जब ब्रिटिश हुकूमत सैन्य बलों की नई
बटालियंस खडी करने को प्रवृत्त हुई तब वीर सावरकर के नेतृत्व में यह हिन्दू महासभा
ही थी जिसने हिन्दुओं को अधिकाधिक भर्ती कर इस अभियान में जोरदार ढंग से सर्कार का
सहयोग किया . हिन्दू महासभा के मदुरै अधिवेशन में सावरकर ने संबोधित किया ,"स्वाभाविक रूप से व व्यावहारिक राजनीतिक दृष्टि के अनुरूप ,जहाँ तक भारत भूमि की रक्षा का प्रश्न है तथा नई
सैन्य टुकड़ियाँ खडी करने का प्रश्न है , हिन्दू महा सभा ने सरकार के युद्ध प्रयत्नों तथा नई सैन्य टुकडियां
भर्ती करने के अभियान में सहभागिता का निर्णय लिया है "
ऐसा नहीं था की
इस तरह के रवैये के विरुद्ध आम जन मानस में उभरती तीव्र जनभावना से सावरकर अनभिग्य
रहें हों .हिन्दू महासभा के अंग्रेजों के सहयोग के निर्णय की लगभग किसी भी आलोचना
को सहज रूप से ख़ारिज कर देते थे , उदाहरणार्थ "भारतीय जनता जिस प्रकार से राजनीतिक मूर्खता वाली
इस सोच कि सामान्यतः भारतीय व ब्रिटिश हित अनिवार्यतः परस्पर विरोधी हैं, से
ग्रस्त हो चुकी है ,की
ब्रिटिश सरकार से सहयोगात्मक लगभग किसी भी पहल को आत्म-समर्पण ,राष्ट्र-विरुद्ध ,ब्रिटिश हाथों में खेलने जैसा व अनिवार्य तौर पर
देशद्रोह तथा इस कारण से निंदनीय माना जाता है "
जहाँ महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने द्वितीय विश्व युद्ध को
साम्राज्यवादी करार दिया और "न एक भाई ,न एक पाई "( न एक व्यक्ति सेना में भर्ती हेतु न एक पैसा
सहयोग हेतु ) का नारा बुलंद किया , वहीँ वीर सावरकर ने इस मत की तीव्र आलोचना इन शब्दों में की- " यह स्मरण रखने
की आवश्यकता है की सशस्त्र सैन्य आक्रमण की स्थिति में भी अहिंसा और अ-प्रतिरोध के
निराशाजनक व ढोंगी झक के चलते जिन्होंने सरकार के युद्ध-प्रयत्नों में सहयोग न
करने का शौक पाल रखा है अथवा जिन्होंने महज नीतिगत सिद्धांत के चलते सैन्य बलों
में भर्ती होने से इनकार किया है दर असल वे अपने को धोखा दे रहे हैं तथा पर्याप्त
उत्तरदायित्व से चूक रहे हैं "
उनके हिन्दुओं के लिए किये आह्वान में कहीं कोई संशय नहीं था ,"इसलिए हिन्दू आगे आयें और थल सेना ,नभ सेना ,जल सेना ,तोपखाने तथा अन्य युद्ध -कला से जुड़े कारखानों
में हजारों की तादाद में भर्ती हों ." जो लोग वीर सावरकर को महान राष्ट्रभक्त व
स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं उनके सर शर्म से झुक जायेंगे जब वे सावरकर का सेना में
भर्ती होने वाले उन हिन्दुओं को दिए गए सन्देश को पढेंगे -
"इस सम्बन्ध में एक बिंदु जिस पर हमारे अपने हित में अत्यंत जोर दिए जाने की जरुरत है वो यह है की जो हिन्दू 'भारतीय ( इसे 'ब्रिटिश' पढ़ें ) सेना ' में सम्मिलित्त हों वे पुरी तरह वफादार व सैन्य अनुशासन व आदेश के प्रति निष्ठावान बने रहें ,उस सीमा तक जहाँ तक इस तरह के आदेश 'हिन्दू सम्मान' को जानबूझकर ठेस पहुचानेवाले न हों "
आश्चर्यजनक रूप से सावरकर को यह नहीं अनुभव हुआ की किसी भी आत्म सम्मान वाले तथा राष्ट्रभक्त हिन्दू के लिए अपने औपनिवेशिक स्वामियों के सैन्य बल में सम्मिलित होना स्वयं में घोर अपमानजनक था. ब्रिटिश सैन्य बल में भर्ती होने की इच्छा रखने वाले हिन्दुओं की सहायता हेतु सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च स्तरीय 'युद्ध-परिषदों ' का गठन किया .इसके अतिरिक्त वायसराय ने सावरकर की पसंद के व्यक्तियों को 'राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद्' में स्थान दिया जिसके लिए सावरकर ने वायसराय तथा ब्रिटिश सेना के कमांडर-इन-चीफ को इस टेलीग्राम के जरिये कृतज्ञता ज्ञापित किया "योर एक्सीलेंसी की सुरक्षा समिति के कार्मिकों सम्बन्धी घोषणा का स्वागत है ,हिन्दू महा सभा सर्वश्री कलिकार तथा जमनादास मेहता की नियुक्ति पर गहरा संतोष व्यक्त करती है "
वीर सावरकर ने ब्रिटिश तथा मुस्लिम लीग का सहयोग कर भारत छोडो आन्दोलन से विश्वासघात किया .८ अगस्त १९४२ को किये गए 'भारत छोडो ' के आह्वान के अलोक में ब्रिटिश हुकमरानों ने कई प्रान्तों की कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त कर दिया .ब्रिटिश शासकों ने आम तौर पर राज्य के आतंक व दमनचक्र का सूत्रपात कर दिया .जबकि कांग्रेस के काडर व सामान्य जनता का अधिकांश हिस्सा औपनिवेशिक शासन के घोर दमन का सामना कर रहे थे तथा राज्य की संस्थाओ के बहिष्कार का निर्णय किये थे ,वहीँ हिन्दू महासभा ब्रिटिश शासकों का साथ दे रही थी . कानपूर में आयोजित हिन्दु महासभा के २४वे अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने औपनिवेशिक सत्ता के साथ सहयोग की अपनी नीति को इन शब्दों में परिभाषित किया -
"हिन्दू महासभा 'प्रतिक्रियावादी सहयोग' को व्यावहारिक राजनीति का अग्रणी सिद्धांत स्वीकार करती है ,फलतः यह विश्वास करती है की जो भी हिन्दू संगठन
वादी पार्षद ,मंत्री ,विधायक ,या किसी सार्वजनिक अथवा निगम निकाय संचालक हैं
तथा गैर-हिन्दू वर्गों के वैध हितों को निश्चित रूप से बिना क्षति पहुंचाए यदि
हिन्दुओ के वैध हितों के रक्षण तथा संवर्धन हेतु अपने शक्तियों का उपयोग करते हैं ,वे निश्चित रूप से देश को महती सेवा अर्पित कर
रहे हैं.जिन सीमाओं में वे कार्य करते हैं उनको ध्यान में रखते हुए महासभा ये
अपेक्षा करती है की दी हुई परिस्थितियों में जो भी अच्छा कार्य वे कर सकते हैं
करें और ऐसा करने में यदि वे असफल नहीं होते तो महासभा उनके अच्छे कार्य सम्पादन
हेतु उनके प्रति कृतग्य होगी . सीमायें क्रमशः स्वयं चरणवार ढंग से सीमित होतीं
जायेंगीं और अंततः पुरी तरह लुप्त हो जाएँगी .प्रतिक्रियावादी सहयोग की निति जो
बिना शर्त सहयोग से लेकर सक्रिय व यहाँ तक की सशस्त्र प्रतिरोध तक की देशभक्ति परक
गतिविधियों को स्वयं में समेटे हुए है ,समय की मांग , उपलब्ध संसाधन व राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा के अनुरूप अपेक्षित
ढंग से संशोधित होती रहेगी ."
यह बहुत कम
लोगों को पता होगा कि जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह के सम्बन्ध
का निषेध किया था उसी समय हिन्दु महासभा ने मुस्लिम लीग से मिलकर सिंध व बंगाल में
गठबंधन सरकारें चलाईं थीं .सावरकर ने इस ‘अनैतिक
गठजोड़’ को १९४२ में कानपूर में संपन्न २४वे सत्र को
संबोधित करते हुए निम्नलिखित शब्दों में जायज ठहराया था ,”महासभा भलीभाँति अवगत है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें आगे बढ़ने हेतु
किंचित समझौते भी करने होंगे .उदहारण के तौर पर सिंध में आमंत्रण मिलने पर महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकार चलाई. बंगाल का मामला सर्व-विदित है .वही दुष्ट लीगी जो कांग्रेस के दब्बूपने भरे आचरण के बावजूद शांत नहीं हो
सके ,ज्यों ही हिन्दु महासभा के संपर्क में आये,
पर्याप्त समझौतावादी तथा सामाजिक रूप से मिलनसार आचरण पर उतर आये और श्री फज़ल उल
हक के मुख्यमंत्रित्व तथा हमारे श्रद्धेय नेता श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी के
नेतृत्व में दोनों समुदायों के भले के लिए गठबंधन सरकार एक साल से अधिक समय तक चली.”
तो अंग्रेजों
का साथ देने में ये दोनों साम्प्रदायिक पार्टियां पूरी ताक़त से लगी हुई थी.
स्वाधीनता संग्राम के पूरे दौर में अलग-अलग रूपों में यही इनकी प्रमुख भूमिका रही.-
कुछ ज़रूरी लेख यहाँ
सुभाष चंद्र पटनायक
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सुभाष चंद्र पटनायक
नौसेना विद्रोह पर Arun M Advaid,
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