मगर चिराग़ ने लौ को संभाल रखा है[1]
- · अशोक कुमार पाण्डेय
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नाकोहस जब कहानी के
रूप में आई थी तब इस पर टिप्पणी करते लिखा था – “समय का बदलना अक्सर महसूस नहीं होता. उसे कुछ
प्रतीकों के सहारे पढ़ना होता है. और यह “पाठ” भी
क्या होता है? दरअसल यह जितना पढ़ी जाने वाली चीज़ में होता है उतना
ही उस ज़मीन में भी जिस पर खड़ा हो के उसे पढ़ा जा रहा है. यानी हमारी अपनी “नज़र” पर.
बकौल साहिर “ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है/ क्यूं देखें
ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम.”
यू आर अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद के उल्लास और
पटाखों को कोई गौर से देखे तो यह किताब जालाये जाने, लेखकों
पर हमलों, मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग्स फाड़े जाने के क्रम
में तो थे लेकिन अपनी अभिव्यक्ति और सार में यह एक “गुणात्मक
छलांग” थी. महात्मा गांधी की मृत्यु पर बंटी मिठाइयों के
बाद यह पहला सार्वजनिक गिद्धभोज था,
याद कीजिए हुसैन के मरने पर भी यह दृश्य नहीं देखा
गया था. इस तरह यह एक पुख्ता प्रतीक था, हमारी ज़मीन
से देखें तो फासिज्म के विजय उद्घोष का और उनकी ज़मीन से देखें तो अच्छे दिनों
का. “नाकोहस”
इसी नई हकीक़त का एक आख्यान है.”
और देखिये इन कुछ महीनों में कितना कुछ बदल गया. अपने देश मे
दादरी से जे एन यू तक, रोहित वेमुला से ऋचा सिंह तक, पटियाला
कोर्ट परिसर से बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और ग्वालियर तक फ़ासीवाद अपनी विजय का
उन्मुक्त उद्घोष करता विचर रहा है तो अमेरिका जैसे मुक्त बाज़ार वाले देश मे
डोनाल्ड ट्रम्प खुलेआम अपनी घोर दक्षिणपंथी नीतियों के साथ ताल ठोंक कर भूमंडलीय
नेता बनने की रेस मे है. अम्प्टन सिंक्लेयर ने फासीवाद को “पूंजीवाद
+ हत्या” कहा था और आज चार सू जो मंज़र है वह इसकी सख्त ताक़ीद
करता नज़र आता है. ऐसे में नाकोहस अब जब उपन्यास के रूप में आया है और अपने फलक को
और व्यापक करता हुआ वक़्त की तस्वीर और उसके पाठ, दोनों
को और अधिक स्पष्ट करता है,
तो इस पर ज़रा तफ़सील से बात करना ज़रूरी हो जाता है.
देखें तो नाकोहस की कहानी मुख़्तसर सी है. एक कॉलेज के अलग अलग
धर्मों के तीन प्रोफ़ेसर दोस्त जो धर्मनिरपेक्ष हैं, मुखर
हैं और लगातार साम्प्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ हैं, सत्ता
के एक गोपनीय संगठन नाकोहस यानी नेशनल
कमीशन फॉर हर्ट सेंटीमेंट्स द्वारा गिरफ़्तार किये जाते हैं, उनका
उत्पीड़न होता है और फिर उन्हीं हालात में चेतावनी के साथ उन्हें वापस छोड़ दिया
जाता है. तीन लाइनों की इस कहानी के कोई एक सौ साठ पन्नों में आप किसी ‘औपन्यासिक’ उतार
चढ़ाव और रहस्य रोमांच की उम्मीद करते हों तो निराश होने की पूरी संभावना है.
नाकोहस की कथा इसके विषय वस्तु सी खुरदुरी है,
जिसमें घटनाएँ नहीं एक मुसलसल बहस और जद्दोजेहद है. यह पूरा उपन्यास हमारे
सामाजिक-राजनीतिक जीवन की इस विडंबना को आहिस्ता आहिस्ता दर्ज़ करता जाता है और
उसकी भयावहता को पाठक के दिल-ओ-दिमाग में पैबस्त करता जाता है. पन्ना दर पन्ना यह
देश के लोकतांत्रिक ढाँचे में लगती दीमकों और उसके ढहते कंगूरों की शिनाख्त करता
चलता है. असहमतियों को देशद्रोह में तब्दील कर देने वाले समय के तमाम बिम्ब
असुन्दर होने के लिए अभिशप्त हैं तो यह उपन्यास अपने खुरदुरे शिल्प के साथ, जो
न क्लासिकल अर्थों में फैंटसी या जादूई यथार्थवाद जैसी तकनीकों से परिभाषित किया
जा सकता है, न ही सपाटबयानी कहा जा सकता है, एक
प्रतिरोध की तरह, एक प्रतिआख्यान की तरह उपस्थित है जहाँ बहसें कथा
का स्थान लेती जाती हैं,
क्रूरताएं और उनसे उपजी आशंकायें रोमांच का. अपनी
पूरी संरचना में यह शिल्प नया भले न हो लेकिन इस समय की भयावहता को उसकी सूक्ष्म
पदचापों के साथ पहचानने और पाठकों तक संप्रेषित करने में काफी हद तक सफल है.
उपन्यास की भाषा पर थोड़ी बात आगे की जायेगी.
नाकोहस का कोई अर्थ नहीं बनता. अर्थ बनाने की कोई सचेत कोशिश भी नहीं
दिखती. इसके कारिंदों के लिए उपयोग किया गया पदबंध “बौनेसर” भी
क्लबों में अनियंत्रित होने वाले अतिथियों को नियंत्रित करने वाले समानधर्मी “बाउंसर” से
ध्वनि साम्य के बावजूद कोई अर्थ नहीं देता.
पर कहानी में ये अपनी उपस्थिति से,
अपने नाम मात्र से जैसे रीढ़ की हड्डियों में एक सिहरन पैदा कर देते हैं, इसके
विपरीत ये वस्तुतः अर्थहीन पदबंध हैं. यही इसकी व्यंजना है. दक्षिणपंथ के अपने
तंत्र में उपस्थित ऐसी संरचनाएं,
जो बाहर से दिखती ही नहीं, जिनका
अस्तित्व एक सभ्य समाज में निरर्थक है, पूरे समाज
को इतने गहरे प्रभावित करती हैं. आप देखिये प्रशांत भूषण पर आक्रमण करने वालों के
हाथ में भगत सिंह सेना का बैनर था. भगत सिंह और साम्प्रदायिक ताक़तों का बैनर! मनसे
को याद कीजिए. तर्कबुद्धि कहेगी,
एकदम निरर्थक, एकदम
बकवास. अनुभव कहेगा, हिंसक, भयानक, हत्यारे!
यहाँ कथा की अनुपस्थिति इस नए समय की
उपस्थिति है. जहाँ सब कुछ इतना आवेगहीन, ठंढा और
पूर्वनिर्धारित है कि कोई कुतूहल नहीं जगाता, कोई
कथानक, कोई उतार चढ़ाव नहीं, एक
सीधी सपाट रेखा पर चलता हुआ वह स्वाभाविक सा लगता चला जाता है. धीरे धीरे फासिज्म
का दर्शन सहज स्वीकार्य होता चला जाता है. हम मान कर चलते हैं कि “भड़काऊ
भाषणों” या “दंगों” या “स्नूपिंग” के
कितने भी सबूत आ जाएँ, केस हो जाएँ लेकिन कुछ होना नहीं है. हम न पुलिस की
कार्यवाही की प्रतीक्षा करते हैं न अदालत के आदेश का. अब फैसले टीवी बहसों और सड़क
की गुंडागर्दी से होते हैं जहाँ संत-साध्वी-महंत-मौलवी अपने विषाक्त धर्मादेश
बेखटके देते रहते हैं. गोएबल्स की ज़रुरत तक ख़त्म होती जाती है और लोग पहली बार ही
आत्मविश्वास से बोला गया झूठ स्वीकार कर लेते हैं, भले
ही सच की तरह नहीं. चंद टीवी चैनल और अखबार पूरे विश्वास से झूठ को लगातार दिखाते
हैं और एक भीड़ सड़कों पर नारे लगाते उतर आती है जो किसी पर कहीं भी हमला कर सकती है, उनके
लिए क़ानून और पुलिस उपस्थित होकर भी अनुपस्थित हैं या यह कहें कि उनके द्वारा छोड़ा
गया स्पेस जिन्होंने साधिकार कब्ज़ा कर लिया है. वे सत्ता के बगलगीर हैं और न्याय
के स्थानापन्न. उनके पास तर्क नहीं हैं परन्तु निष्कर्ष हैं- अप्रश्नेय निष्कर्ष. इस
उपन्यास पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बहुत गंभीरता से संचार माध्यमों के हमारे मानस और
स्पेस पर कब्ज़े को रेखांकित किया है, जिस पर आगे
विस्तार से बात की जाएगी. ज़ाहिर है,
इस आख्यान को भी ऐसा ही होना था. यह न उतार चढ़ाव और
किस्सागोई की शक्ल में आ सकता था,
न ही किसी एकालाप की शक्ल में. चेखव की एक कहानी “एक क्लर्क की मौत” याद आती है. कोई मार्केज की क्रानिकल भी याद कर सकता है और कामू की द स्ट्रेंजर भी. नाकोहस का निरर्थक होना और उसका इस क़दर वर्चस्व
अपने आप में एक व्यंजना रचता है.
नाओमी क्लेन अपनी किताब ‘द शॉक थेरापी’ में
अर्जेंटीना के यातना शिविर में चार महीने गुज़ारने वाले मारियो बिलानी को उद्धृत
करती हैं. वह कहते हैं,
“मेरा सिर्फ़ एक लक्ष्य था – अगले
दिन तक ज़िंदा रहना. लेकिन सिर्फ़ ज़िंदा रहना नहीं, बल्कि
जैसा हूँ वैसे बने रहना. जैसा हैं वैसा बने रहना - यह चुनौती सुकेत की भी है, रघु
की भी और शम्स की भी. नाकोहस के यातना शिविर मे गुज़ारे कुछ घंटों मे ही नहीं बल्कि
अपने सुरक्षित घरों के हर झरोखे मे आँख लगाए बौनेसर आँखों के बीच रहते भी। यह यातना शिविर किसी एक जगह तक महदूद नहीं है बल्कि हमारे पूरे
पब्लिक और प्राइवेट स्पेस मे पसर गया है। नाकोहस सिर्फ़ शरीर को चोटिल नहीं करता.
वह दिमाग और दिल पर भी कब्ज़ा करता जाता है. लोकतंत्र के भ्रम के भीतर चेतनाओं पर
नियंत्रण का हिंसक उपक्रम करती दक्षिणपंथी राजनीति सुनहले लबादों, पवित्र
शब्दों और ख़ूबसूरत प्रतीकों की आड़ में आती है. उपन्यास के शुरू में ही शम्स कहता
है, “जो भी आमादा है, वह
गले में कुत्तोंवाला पट्टा पहनाने पर आमादा है...हिल डुल पर कोई रोक नहीं,
बशर्ते दुम साथ में हिलती रही...भौंकने की भी इजाज़त, बशर्ते
चेन मज़बूती से उसके हाथ में थमी रहे...’ उसके बाद
आये रघु के “लेकिन” के बाद के
वाक्य को पूरा करने वाले शब्द कहीं नहीं थे. यह जो निःशब्दता है, जो
बेबसी और बेचैनी है, यह उपन्यास उस बेबसी और बेचैनी का ज़िंदा दस्तावेज़
है तो उसके बाद का जो हँसी मजाक है वह इस अमानवीय वातावरण में मुखालिफ़त करते लोगों
की लाचारी भी है और हिम्मत भी. नियंत्रण
की ये कोशिशें कई कई स्तरों पर चलती हैं. घर घर में पहुँचे टी वी चैनल और हर हाथ
को काम की जगह मिले मोबाइल सेट चौबीसों घंटे आपकी चेतना के चोर दरवाज़े तलाशते रहते
हैं, रिमोट के सहारे नियंत्रण का आपका भ्रम टूट जाता है.
याद कीजिये जे एन यू की हालिया घटना जब फ़र्ज़ी वीडियोज और चयनित रिपोर्टिंग के
सहारे टीवी चैनल्स ने उन्माद का ऐसा माहौल बना दिया है कि जे एन यू के लिए ऑटो
करने पर ऑटो वाला कहता है सीधे पाकिस्तान क्यों नहीं जाते?
याद कीजिये मेरठ के पास बनाई जा रही हिन्दू सेना से जुडी कोई बीस साल की लड़की का
वह बयान जिसमें सेकंड्स में व्हाट्सेप के ज़रिये कई लाख लोगों तक अपने ज़हरीले
सन्देश पहुँचा देने की गर्वोक्ति है. मुजफ्फरपुर दंगों के समय पकिस्तान के एक
वीडियो के सहारे रातोरात दंगों की आग लगा देने की घटना याद कीजिये. सुकेत जब
कोशिशों के बावज़ूद टीवी चैनल नहीं बंद कर पाता है या मोबाइल की स्क्रीन पर नाकोहस
का कब्ज़ा कुछ ऐसा होता है कि वह उसके मन की बात भी जान लेता है तो याद कीजिये
फेसबुक की टाइमलाइन पर दर्ज वह सवाल : आपके दिमाग में क्या है? अस्सी
के दशक में लिखी नोम चोमस्की की विश्वप्रसिद्ध किताब “मैन्यूफेक्चरिंग
कंसेंट” इस अवधारणा को
बहुत विस्तार से बता चुकी है. वियतनाम युद्ध सहित तमाम घटनाओं के दौरान जनता की
अवधारणा को कैसे मिथ्या या अर्ध सत्यों और दुष्प्रचारों के सहारे सत्ता के पक्ष में निर्मित किया जाता
है इसे तबसे आज तक दुनिया भर में लगातार देखा गया है. अभिव्यक्ति की आज़ादी के नारे
के साथ अस्तित्व में आये “मुक्त” संचार
माध्यम मुक्त बाज़ार की तरह ही अपने मालिक के ग़ुलाम होते हैं और उसकी विचारधारा को
लगातार इकलौती सही विचारधारा तथा बाक़ी सबके विरोधी नहीं शत्रु होने का जो द्वैत
रचते हैं वह अंततः समाज में स्वतंत्र सोच और प्रतिरोध की सारी संभावनाओं के दमन के
लिए आवश्यक जनमत निर्मित करता है. यही वह जनमत होता है जो खुलेआम पटियाला कोर्ट
में कन्हैया की पिटाई से लेकर कलबुर्गी की हत्या तक को नज़रंदाज़ करता है. यह खाना,
पहनना, बोलना, लिखना सब
नियंत्रित करने की हिंसक हठ लिए संस्कृति के उद्धारक के वेश मे आई सांस्कृतिक सेना
को न्यायसंगत सिद्ध करने वाला जनमत है, और उसे
सही न मानते हुए भी चुप रह जाने वाला भी।
कमाने,
खाने और आनंद मनाने को नाकोहस मनुष्य के लिए ज़रूरी
और पर्याप्त काम घोषित करता है तो सुखवाद के इस दर्शन की मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था
में विन्यस्त जड़ें साफ़ दिखती हैं. आखिर मुसोलिनी ने खुद कहा था – “फ़ासीवाद
को बेहतर तरीके से कारपोरेटवाद कहा जा सकता है. क्योंकि वह राज्य और कार्पोरेट
शक्ति का सम्पूर्ण विलयन है.”
यहाँ निकोलस लामेर साउटे का उपन्यास ‘द
वाटर थीफ़’ याद आना स्वाभाविक है. तो यह सुखवाद नाकोहस के लिए
सबसे मुफ़ीद दर्शन है जो एक तरफ़ जनता को चौबीसों घंटे कमाने और खर्च करने के चक्र
में उलझा देता है तो दूसरी तरह परम्परा,इतिहास और
दर्शन की जड़ों से पूरी तरह काटकर ज्ञान की जगह सूचना पर निर्भर एक संवेदनहीन
मनुष्य में तब्दील कर देता है. उपन्यास की एकदम शुरुआत देखिये . सुकेत स्वप्न में
गजग्राह के मिथक का नया रूप देख रहा है. इसमें नया क्या है? नया
है गज की हत्या के इर्द गिर्द “ज़िन्दगी का हस्ब मामूल चलते रहना.”
कुछ भी हो जाये ज़िन्दगी हस्ब मामूल चलती रहती है. आहत भावनाओं के पोषण के लिए
सुकेत के घर आई गुंडा छात्रों की भीड़ शिक्षकों की उस कॉलोनी में बाक़ी लोगों के लिए
सिर्फ़ एक व्यवधान है, खाए अघाए संपन्न लोगों के जीवन में एक अवांछित
व्यवधान. टीचर्स असोसिएशन की बैठक में वबाल से दूर रहने की सलाहें आम शिक्षकों की
हैं तो प्रगतिशील बख्शी जी के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं भावनाओं का आहत होना
बड़ा मुद्दा है. कॉलेज से लेकर मध्यवर्गीय सोसायटी और सड़क तक सब अपने अपने समझौतों
में मशरूफ़. आपस मे बतियाते जब ये दोस्त
कहते हैं कि यह अब वह देश नहीं रहा जिसकी आदत पड़ चुकी थी हमें,
तो इस बदले हुए देश मे नाकोहस के लिए इससे अच्छा माहौल क्या हो सकता है? और
इस माहौल में सबसे बड़ा ख़लल है –
स्वतन्त्र सोच. दुनिया भर में ऐसी ताक़तों ने सबसे
पहले स्वतन्त्र सोच पर हमला किया है और दुनिया भर के लेखकों ने इसे दर्ज किया है. ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ में एक प्रसंग है। देश में सर उठा रहे दक्षिणपंथ के दौर में एक
छोटे से कस्बे में ‘हिज़ाब पहनने वाली लड़कियों को कालेज में प्रतिबंधित करने’ वाले सरकारी आदेश का सख़्ती से पालन करने वाले कालेज के निदेशक
की हत्या के इरादे से आया एक धर्मांध युवा उनसे पूछता है – ‘क्या संविधान के बनाये
नियम ख़ुदा के बनाये नियम से ऊपर हैं?’ निदेशक
के तमाम तर्कों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता और वह उसकी हत्या कर देता है। हिटलर
या मुसोलिनी के मॉडल ही नहीं अमेरिका में ओवरमैंन कमिटी या हाउस कमिटी ऑन
अन-अमेरिकन एक्टिविटीज़ जैसी संस्थाएं नाकोहस की पूर्वपीठिका हैं. अगर वामपंथी
मित्र अति संवेदनशील न हों तो स्टालिन की सत्ता संरचना भी. सन चौरासी से बयानबे तक
हमारा समाज लगातार और बीमार और संवेदनहीन होता चला गया है और प्रत्यक्ष सत्ता में
आने से पहले ही फासीवाद जनमानस में अपना वर्चस्व विभिन्न रूपों में स्थापित कर
चुका है. इस उपन्यास मे ही नेल्ली के नरसंहार का ज़िक्र है। फरवरी, 1983 मे असम मे हुए इन
दंगों मे 2000 से ज़्यादा मुसलमानों को मार दिया गया था (यह आधिकारिक संख्या है, स्वतंत्र रिपोर्टों मे
यह संख्या दस हज़ार तक बताई गयी थी)। चौदह से अधिक गांवों मे एक तरह का नस्ली
सफाया। सरकारें आती जाती रहीं लेकिन जांच के लिए बनी तिवारी समिति की रिपोर्ट आज
तक सार्वजनिक नहीं की गयी। कोई सात सौ केस दर्ज़ हुए थे लेकिन आधे से अधिक सबूतों
के अभाव मे रद्द हो गए। जीवन हस्बे मामूल चलता रहा। जातीय नरसंहारों की तो एक लंबी
सूची है। बाबरी मस्जिद विवादित ढाँचा बनती गयी और अब तो मुख्यधारा के तमाम माध्यम
इसे विवादित ढांचा कहने लगे हैं। सुकेत के लेख मे जिन बातों से भावनाएं आहत हुई
हैं उनमें से एक यह भी थी।
यहाँ
सुकेत को गिरफ्तार करने आये चौड़ा सिंह के चरित्र को अगर थोड़ा सा विवेचित कर लें तो
चीज़ें और साफ़ होंगी. संवेदना से पूरी तरह से खाली वह साक्षर लेकिन अनपढ़ नौजवान जब
एक क्षण के लिए द्रवित होता है तो उसका साथी उसे तुरंत सावधान करता है. और उसकी
संवेदना को हरने वाले टूल्स क्या हैं? बेरोज़गारी, इतिहास-दर्शन-साहित्यहीन शिक्षा, चारों तरफ़ बजता
निरर्थक संगीत. एरिक हाब्स्बाम एज ऑफ़ एक्स्ट्रीम्स में बताते हैं - ‘’फासीवादी और ग़ैरफासीवादी दक्षिणपंथ में
असली अंतर यह है कि फासीवाद निचले तबके की भीड़ को आंदोलित करके अस्तित्वमान होता
है। यह निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक और लोकलुभावन राजनीति के युग से जुड़ा हुआ है।
पारंपरिक प्रतिक्रियावादी इन राजनैतिक व्यवस्थाओं का फ़ायदा उठाते हैं और ‘जैविक राज्य’ के समर्थक इनके अतिक्रमण का
प्रयास करते हैं। फासीवाद अपने पीछे जनता को भारी संख्या में ले आने में गौरवान्वित
महसूस करता है’… ये ‘पीले बीमार चेहरे’ ही हिटलरी फरमानों को पूरी आस्था से कोई सवाल किये बिना
पालित करने वाले लोग होते हैं. कला, विद्या, ज्ञान आदि से काट दिए गए पुच्छ विषाण हीन पशु में तब्दील
कर दिए गए ये युवा आज हमें हर सड़क पर नहीं दिखाई देते? और इनके नेतृत्व मे दिखते हैं
गिरगिट। वह अपढ़ नहीं है। खूब पढ़ा लिखा है। पर तीनों उसे छेड़ते हैं और शम्स कहता है, "ऐन मुमकिन है, शे'र अभी भी फरमाते हों" इस पर उसकी प्रतिक्रिया “" आई एब्हार एवरीथिंग ऑफ माई पास्ट...बीत चुके वक्त के एक एक पल से नफरत
है मुझे..." इस बौद्धिक कौम का एक सिरा है भावनाओं के आहत
होने को लेकर संवेदित प्रगतिशील बख्शी जी तो दूसरा सिरा है अपने अतीत मे अर्जित सारे
लोकतान्त्रिक संस्कारों और ज्ञान को पूरी तरह सत्ता के पक्ष मे उपयोग करने वाला गिरगिट।
बक़ौल रसूल हमजातोव अतीत पर पिस्तौलें दागते समय पर भविष्य की तोपों के गोले गिरने
लाज़िम हैं, लेकिन उनकी जद मे जाने क्या क्या नष्ट होगा। टीवी की बहसों से अखबारों के पन्नों मे फासीवाद
का वैचारिक आधार पुख्ता करते और उसकी कार्यवाहियों को अपने (कु) तर्कों का वैचारिक कवर देते तमाम बुद्धिजीवियों और उनके अतीत को देखते
इन “गिरगिटों” की एकदम भौतिक उपस्थिति हाल के दिनों मे और मुखर होकर सामने आई है।
तो
अगर एक उपन्यास वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की इस क़दर भविष्यवाणी करने लगे तो यह
लेखक की सफलता भले हो, समाज की भयावह असफलता भी है.
इन
सब कथाओं के बीच सुकेतु के टूटे विवाह और एक प्रेम का किस्सा है. दोस्तों के हँसी
मजाक हैं. नशा है. स्त्रियाँ हैं. उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाएं और रुमान हैं. ये
सहज मानवीय कमज़ोरियाँ जो यह बताती हैं कि सच के पक्ष में खडा मनुष्य कोई परफेक्ट
मनुष्य नहीं होता रेमंड के विज्ञापन की तरह, वह हमारे आपके ही तरह
एक आम मनुष्य होता है बस उसने तर्क से दुनिया को देखना सीख लिया है. चरित्र को जिस
तरह से प्रगतिशील ताक़तों पर हमला करने के लिए हथियार बना लिया जाता है उसे हमने
नेहरू और गांधी ही नहीं हमारे अपने समय में खुर्शीद अनवर से कन्हैया तक देखा है.
तर्कों का जवाब तर्कों से देने की जगह चारित्रिक हत्याएं, अफवाहें, झूठ और दुष्प्रचार सबसे
बड़े औज़ार होते हैं प्रतिक्रियावादी ताक़तों के.
मार्क्स
ने कहा था कि किसी भी समय की संस्कृति उस समय के वर्चस्वशाली वर्ग की संस्कृति
होती है. व्यवस्था अपने सहजबोध (कॉमन सेन्स) निर्मित करती है और उसे हर तरह से
स्थापित करती है. भाषा से लेकर नाम तक उस सहजबोध का हिस्सा होते चले जाते हैं. ऑन
लिटरेचर में अपने लेख ‘फंक्शन्स ऑफ़ लिट्रेचर” में अम्बर्तो इको इटली के फासीवादी समय में भाषा के साथ हुए
व्यवहार का विस्तार से विवेचन करते हैं. हमारे समय में भी यह सहज बोध लगभग स्थापित
सा ही है. उर्दू यानी मुसलमान, संस्कृतनिष्ठ हिंदी यानी द्विज, लोकभाषा यानी गँवार
(देहाती को लगभग गँवार के पर्यायवाची की तरह उपयोग किया जाता है). फ़िल्में इस सहज
बोध को स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम हैं तो पाठ्य पुस्तकों से लेकर कथित
लोकप्रिय संचार माध्यम इसे बहुत बारीक़ी से स्थापित करते हैं और यह आम जीवन में
जितनी स्वीकार्य होती जाती है, वर्चस्वशाली वर्ग की जकड़न उतनी मज़बूत होती जाती है. अभी एकदम
हाल की घटना है कि मेट्रो में एक आयोजन का उर्दू ब्रोशर पढ़ती महिलाओं को
पाकिस्तानी कहकर लगभग धमकाया गया. पुरुषोत्तम अग्रवाल इस उपन्यास में भाषा के इस
सहजबोध का दो स्तरों पर प्रतिवाद करते हैं. पहला इस उपन्यास की अपनी भाषा और दूसरा
इसके कथ्य में विन्यस्त भाषा और संस्कृति का सवाल. यहाँ रघु एक ईसाई पिता की संतान
है, सेना में ब्रिगेडियर रहा पिता, योग और ध्यान का
अभ्यासी पिता, नैष्ठिक ईसाई और रामायण-महाभारत का जानकार पिता जिसने पुत्र का
नाम राम के पितामह राजा रघु से प्रभावित होकर रखा था. कहानी के रूप में पाखी में
प्रकाशित होने पर एक आलोचक मित्र ने इसे हिन्दू साम्प्रदायिकता से जोड़ कर देखा था.
यह आरोप मुझे वैसे है जैसे कोई कहे कि शरद जोशी रिवर्स
लव जिहाद के संघी नारे से प्रभावित होकर इरफाना जी से विवाह को उद्धत हुए थे.
अव्वल तो क्या किसी ईसाई का रघु या ऐसा कोई नाम होना सचमुच इतना अस्वाभाविक है? खुशवंत
सिंह के उपन्यास अ ट्रेन टू पाकिस्तान में एक पात्र है इक़बाल. वह गाँव के भाई जी को इक़बाल
सिंह, एक मोना सिख लगता है लेकिन सब इन्स्पेक्टर को इक़बाल
खान. क्यों लगता है, प्रबुद्ध पाठकों को यह बताना मुझे ज़रूरी नहीं लगता.
कबीर खान और दीपक कबीर और कबीर राजोरिया और कबीर बेदी हमारे समाज में जाने कितने
हैं. अब किसी रसखान की कृष्णभक्ति या रघुपति सहाय के फ़िराक हो जाने या किसी
ब्राह्मण शायर के शीन काफ़ निज़ाम हो जाने का क़िस्सा क्या सुनाना? मेरी
गुजरात पोस्टिंग के दौरान मेरी सहकर्मी थी मनीषाबेन क्रिश्चियन. दिल्ली में मेरे
एक सहकर्मी हैं विजय दीप मसीह. मेरी अपनी बेटी वेरा के नाम से ही अधिक जानी जाती
है. हिन्दू मिथकों से प्रभावित ईसाइयों/मुसलमानों या इसके उलट के किस्से भी हमारे
समाज में इतने अनुपस्थित तो नहीं तो रघु मसीह या रघु क्रिश्चियन नाम से इस क़दर
चौंका जाए? यह चौंकना दरअसल नाकोहस के उस गिरगिट की याद दिलाता
है जो कहानी में एक जगह कहता है,
“एक आरोप तुम पर अपनी पहचान
छिपाने का है.” गुलजार की काफी पहले लिखी कहानी धुंआ में मुसलमान
चौधरी चाहता है कि मरने के बाद दफनाने की जगह उसे जला दिया जाय. यह किन्हें नागवार
गुजरता है? गरबा
नवरात्रों में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना है. उसमें बुतपरस्ती से इंकार करने वाले
मुसलमानों का शामिल होना जिन्हें आपत्तिजनक लगता है वे कौन लोग हैं? कम्युनिस्ट उमर खालिद की जो पहचान इसे स्वीकार्य है वह मुसलमान
की है. पहचानों के नशे में इस क़दर मदहोश हो जाना कि उनमें किसी अंतरण, किसी
व्यतिक्रम के होने को अस्वीकार कर देना या संदेह की नज़र से देखना तो नाकोहस का ही
नज़रिया है! असल में उसके लिए सामने यह
पहचान ओढ़े लोग होना ज़रूरी है जिससे वह “हम” और
“वे”
की बाइनरी पैदा कर सके. तरल पहचानें उसके लिए एक
संकट की तरह हैं. इसके उलट यह होना और इस होने को रेखांकित करना उस खाई के
अस्तित्व का अस्वीकार और प्रश्नांकन है जिसकी उपस्थिति दक्षिणपंथ की उपस्थिति के
लिए प्राण तत्व है. ईसाई होकर अपनी कविता में रघु का महाभारत के चरित्र के सहारे
बात करना प्रगतिशील उमानाथजी को भी नहीं पच पाता. इसलिए जब पंडित शुक्ल जी रघु नाम
जानने पर उपहास करने के लिए पूछते हैं कि “नाम
ही नाम के रघु हैं, या कुछ ज्ञान भी है महाराज रघु के बारे में’ तो
वह इस सहजबोध के वाहकों के प्रतिनिधि बन जाते हैं और रघु जब अपनी ईसाई पहचान को
साफ़ करते हुए उन्हें शास्त्रार्थ में धाराशायी करता है तो यह उस साम्प्रदायिक
सहजबोध का एक प्रतिपक्ष रचता है. इसी तरह जब खुर्शीद कहता है, “मेरे
नाम को लेके उर्दूआइये मत”
या जब सुकेत अपने सपनों में मिथकों के सहारे
दुहस्वप्नों से गुजरते हुए देखता है कि मनुष्यों की ज़िन्दगी तो हस्ब मामूल चल ही
रही है, देवताओं को भी उस गज को बचाने की कोई फ़िक्र नहीं तो
यह एक तरफ़ उन पार्थक्य के उन बाड़ों को तोड़ते हैं जिनके बिना दक्षिणपंथ का कोई
अस्तित्व ही नहीं तो दूसरी तरफ़ उस संवेदनहीन हो चुके समाज को रेखांकित करते हैं जिसके लिए एक लेखक की मृत्यु पर हो रहे नृत्य में कुछ
भी आपत्तिजनक नहीं. दूसरे स्तर पर यह काम लेखक ने उपन्यास की भाषा से
किया है. जैसा कि मैंने शुरू में ही ज़िक्र किया, बेहद
गंभीर विषय पर लिखे इस उपन्यास में एक पात्रों के बीच के लम्बे लम्बे संवादों में
भी एक बेफ़िक्री है. शम्श ख़ासतौर बेहद मजाहिया है. हालांकि कई बार यह भाषा को हलके
स्तर पर और फूहड़ मजाकों तक भी ले जाता है. मेरे लिए इसकी एक अपनी व्यंजना है. यह
शत्रु को हलके में लेना नहीं है बल्कि प्रतिरोध को किसी उदास आख्यान की जगह एक
ज़िंदादिल संघर्ष की तरह ज़िंदा रखना है. लोकभाषा से लेकर सोशल मीडिया और टीवी पर
निर्मित हुई “नई वाली हिंदी” तक
का बखूबी प्रयोग साजिशों की व्याप्ति के बरक्स उन स्पेसेज पर प्रतिरोध की आवश्यकता
को बड़े सटल तरीके से इंगित करता है. और इन सबके साथ हर खंड की शुरुआत जिस तरह के
काव्यात्मक वाक्यों या कहें कविता की दो पंक्तियों से हुई है वह संवेदना की आतंरिक
तहों तक दस्तक देती है. लम्बी बहसें कई जगह ऊबाऊ हुई हैं, कई
जगह इनमें उपन्यासकार पर आलोचक हावी होता दिखा है लेकिन अपनी सम्पूर्ण निर्मिति
में भाषा प्रतिरोध के एक आदमक़द आख्यान के निर्माण के ज़रूरी टूल की तरह सामने आई
है.
एक आखिरी उल्लेखनीय बात यह कि इस उपन्यास में कोई कृत्रिम
उम्मीद नहीं. हाल में मुक्तिबोध को पढ़ते यह लगा है कि उनकी निराशा कितनी ईमानदार
थी और उसी दौर में दस साल में क्रान्ति हो जाने की आशाएं कितनी निरर्थक. एक तरह का
क्रांतिकारी नियतिवाद भी होता है जो अतिउत्साहों की जड़ में होता है. पामुक के
उपन्यास ‘अ स्ट्रेंजनेस इन माई माइंड’ में
वामपंथी युवा फ़रहत भीतर भीतर आसन्न संकट और हार को जानता है लेकिन प्रत्यक्ष में
कहता है हम जीतेंगे. एक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए यह ज़रूरी हो सकता है लेकिन एक
लेखक के लिए यह असल में बेईमानी है. उसे निराशाओं को भी उनकी पूरी भयावहता के साथ
दर्ज़ करना होता है जैसे अम्पटन सिंक्लेयर ‘जंगल’ में
करते हैं या मुक्तिबोध ‘अँधेरे में’ जैसी
कविता में. इस निराशा और नाउम्मीदी का स्वीकार ही सामने खड़ी चुनौती का असली आकार
देखने को मजबूर करता है और उसके बरक्स ज़रूरी लड़ाइयों की हदें भी। ‘नाकोहस’ में
जो अँधेरा है उसमें उम्मीद की इकलौती मद्धम रौशनी तीन दोस्तों की बेफ़िक्र हँसी में
है, ज़िद में है, पागलपन
में है, बेबसी में है, उदासी
में है. इसलिए यह उपन्यास महान उपन्यास हो न हो आज एक
बेहद ज़रूरी उपन्यास है. अपने समय का एक ज़िंदा दस्तावेज़ जो जितनी जल्दी अप्रासंगिक
हो जाए, समाज के लिए उतना ही
प्रासंगिक होगा.
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पाखी के मई अंक से साभार
पाखी के मई अंक से साभार
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