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सोमवार, 8 अगस्त 2011

गीत चतुर्वेदी की एक लम्बी कविता - अरब सागर


चर्चगेट पर जब नहीं रुकेगी विरार से आनेवाली तेज़ लोकल 
तो धडधडाते हुए जाकर गिरेगी सीधे अरब सागर में 
कहकर वह उठा और कूदने लगा 
मैंने पकड़ लिया क्या करते हो डूब जाओगे 
डूबना तो एक दिन सबको ही है इस अरब सागर में 
तुम्हारे नहीं मेरे तो पुरखे इसी के नीचे सोए पड़े हैं 
पानी में मनुष्य नहीं रह सकता इतने महासागरों में से 
कोई एक बढ़ेगा और लील लेगा और इस ज़मीन को 
न रहने लायक बना देगा भले आज हम उसकी आँतों से 
कितनी ही ज़मीन निकाल लें 

उस दुनिया में अगर कोई खो जाए तो मुश्किल है उसे खोजना 
इस महासागर में तो असम्भव ही असम्भव मार असम्भव 
इसके जठर में हैं करोड़ों करोड़ जंतु आदमी से कई गुना छोटे 
और कई गुना बड़े आबादी तो कई करोड़ गुना ज्यादा 
छोटे तालाबों को देखा है - पावरोटी का एक टुकड़ा डाल दो  
तो कैसे बीसियों मछलियाँ दौड़ी चली आती हैं 
सोचो तुम खुद पावरोटी का एक टुकड़ा हो 

वहाँ देखो जहां हल्का बहुत 
हल्का नज़र आ रहा है टापू 
तुम्हें भी नहीं पता मुझे भी नहीं लेकिन 
दिन में वही हमारे सपनो की मोल्डिंग और डाइंग  होती हैं 
सैटेलाईट  के जरिये हमारी नींदों में घुसेड़े जाते हैं 
ग्लूकोज़ की तरह बूँद बूँद टुबुक - टुबुक 
यहाँ से वहाँ के बीच सात समन्दर हैं गिनो 
एक दो तीन चार पांच छः सात 
वह देखो ध्यान से बहुत बड़ा जहाज गुज़र रहा है 
कैंची बना समंदर को कपडे की तरह काटता  आर्काडिया प्राइड
कह रहा था न कोई खो जाए इसमें तो 
बहुत मुश्किल है उसे खोजना 
केवल सात लोग बचे तैंतीस को निगल गया डकार तक नहीं ली 
इस कलूटे की छाती पर कान लगा कर सुनो तो ज़रा 
तुम्हें सांस लेने की मद्धम और धुक -धुक आवाज़ सुनायी देगी 

ओह विलुप्त  आर्काडिया प्राइड हारे और डूबे हुए जहाज 
अपने साथ कितना गंधक मिला गए तुम इसकी नसों में
कितनी हड्डियां कितने दिमाग कितने हाथ 
कितने पैर कितना लोहा कितनी लकड़ी 
डेढ़ सौ साल पहले डूबी थीं स्टीमरें तूफानों में फँस 
अब तक जाने कितनी डूबी होंगी कितनी डूबेंगी 
ख़ैर फिर भी डूबे हुए तमाम और आर्काडिया 
प्राइड के शोक में दो मिनट का मौन धारण करूँगा 
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भाईसाहब जो लोग कहते हैं जगहें निर्जीव होती हैं 
मूर्ख होते हैं साले
जगहों में भी जान होती है शासन चलता है उनका 
उनको अपनी जगह बहुत प्यारी है उन्हें 
अपनी दिल्ली उन्हें बनारस 
मुझे महासागर के किनारे महानर्क बन गए 
इस महानगर से बहुत प्यार है कई बार सोचा छोड़ दूँ 
उस गाँव में भी गया जहां से बरसों 
पहले  भाग आये थे मेरे पुरखे 
जडें भी नहीं मिलीं अपनी 
लोग उसकी भी खाद बना चुके थे 
हर उस जगह गया जिन्हें बीज उम्मीद से देखते हैं 
लौट आया इस शहर में कोई रस्सियों से खींच रहा था 
बाप-दादा ने समुद्र से सुड़का था नमक और चुनी थी मछलियाँ 
हिंदी फिल्में देखी हों तो पता चले 
सेठ से नमकहरामी करो तो कोड़ों से मारता है वह 
वैसे ही कायम है पसीने और कोड़ों में रिश्ता 
नमकहरामी की थी नमक बेचा इसे नारियल नहीं चढ़ाया 
नारियल पूर्णिमा की दूसरी रात ही गटक गया दोनों को साथ 
बहुत छोटा था नमक का स्वाद भी नहीं जाना था 
बदन में चफना कर माँ ने सप्ताह - भर इसके नमक में इजाफा किया था 
बैंडस्टैंड के आगे झोपडी- झोपडी आगे न दारु के अड्डे हैं बहुत 
चार साल तक वहाँ किया था काम माँ ने 
और फिर वह भी कूद गयी इसी समंदर में 
समंदर में छिपे बैठे हैं मेरे बाप दादा अड़ोसी पडोसी तमाम 
उसके बदन को उसने कुतरा या केकड़ों -मछलियों ने 
दो दिनों बाद नुची - फटी बैंडस्टैंड के घाट पर मिली 
लहरों ने धक्के मारे थे बहुत फूली हुयी थी वह 


तब से दारु के अड्डे पर नौकरी की शादी की पढ़ाई नहीं की 
थोडा झोल झाल भी किया बोले तो 
नाइंटी टू के दंगे में बीवी और बच्चे भी खलास 
लाश नहीं मिली गोश्त तक खा गए मारने वाले 
ओ मेरे बाप मेरे दादा मेरे अड़ोसी पडोसी तमाम 
मेरी माँ मेरी बीवी मेरे बच्चे जाने - अनजाने सभी 
नाइंटी टू के दंगों में मारे गए और उससे भी पहले जो मारे गए 
और आगे भी जो मारे जायेंगे 
फूल के गुच्छे जो मैं अपने झोले से निकाल रहा हूँ 
सबको अर्पित कर रहा हूँ - तुच्छ भेंट - आत्मा को शान्ति मिले हम सबकी 
इस देह को शान्ति से क्या वास्ता 
मैं तुम सबकी याद में भी दो मिनट का मौन धारण करूँगा 
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अरब सागर की हवाएं इतनी बेहूदा हैं 
थपेड़े मार कर रख देती हैं जब 
नमक के घोल में डूब कर सूखने के लिए 
टंगा कपडा लगता है यह जिस्म 
होंठों को चाटो तो नमक ही नमक  नम -नम नमक
ऐंठ जाता है बदन काम करने को दिल नहीं करता 
छोड़ी लम्बी सड़कों पर ढुरढुराते गरम इंजन - दौड़ दौड़ 
फटफटाती गाड़ियों की छोड़ी काली गर्म सांसें - हांफ - हांफ 
आकाश को मुंह बिराती चमचमाती बिल्डिंगें - और ऊपर और ऊपर 

सब इसी समुद्र के कारण है एक दिन सबको लील जाएगा 
व्यर्थ में हम अपनी इच्छाएँ बढ़ा रहे हैं 
एक इच्छा की पूर्ति बीसियों इच्छा का सर उठा देती है 
यह शताब्दी का अवसान है मित्र सभ्यता का नहीं 
हमारे कद से हज़ारों गुना ज्यादा होंगी हमारी इच्छाएँ 
काली नागिन की तरह होती हैं 
बगल में सोना मुश्किल है
बहुत मुश्किल है इस दुनिया में जीना 
जो नहीं जी सकते वे अपना नाम खारिज कर लें 

और वह आदमी जो स्टीमर में मेरी बगल बैठ 
बोले जा रहा था  बोले जा रहा था बोले जा रहा था 
अपनी सीट पर चढ़ समुद्र में कूद गया डूब गया - उतराने लगा 
स्टीमर में कोलाहल भीड़ के बावजूद आकर बैठ गया 
बीच में ही रोक दी स्टीमर ट्यूबें फेंकी गयी दो - तीन 
मैंने नीचे पड़ी फूल की कुछ पंखुड़ियां उठाईं 
और पानी में डाल दी और देर तक कोशिश की 
उनके मौन को सुन सकूँ


  गीत चतुर्वेदी के कविता संग्रह  'आलाप में गिरह' से .

1 टिप्पणी:

  1. बहुत प्रवाह है ..... सोचा कुछ तो समेट लूँगा.. लेकिन नही! सब कुछ जैसे मिस कर गया. कुछ कविताओं के लिए आप को खास तय्यारी की दरकार होती है. कुछ वर्ष पूर्व कुल्लू मे अनूप सेठी का काव्य पाठ सुन कर ऐसा ही महसूस हुआ था . कविता का नाम याद नही आ रहा, लेकिन वह छोटी कविता थी. फिर से पढ़ूँगा. कुछ दिन लगाए रखिए .सादर.

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