पिछले दिनों मैंने मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों पर एक लेखमाला लिखने का प्रस्ताव किया था जिसका आप सबने व्यापक स्वागत किया था. ज़ाहिर है काम प्रस्ताव करने जितना आसान नहीं. फिर भी शुरुआत कर दी है. अभी प्रस्तावना
मार्क्सवाद बीसवीं
सदी में दुनिया के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली विचारधारा तो है ही, लेकिन
सोवियत संघ के विघटन, चीन के धीरे-धीरे एक पूंजीवादी तानाशाही में तबदील होते
जाने, दुनिया भर के कई देशों में चाउसेस्कू जैसे तानाशाहों को जन्म देने और एक
शासन व्यवस्था के रूप में विरोधियों द्वारा पूरे जोर-शोर से ख़ारिज किये जाने के
बावजूद आज भी न केवल बौद्धिक अपितु राजनैतिक परिक्षेत्र में भी बहस का विषय बनी
हुई है. एक तरफ इसे एक मृत विचारधारा घोषित करने में पूंजीवादी प्रचार तंत्र अपना
पूरा जोर लगा देता है तो दूसरी तरफ अपनी हालिया हार के बावजूद दुनिया भर में वाम
बुद्धिजीवी तथा वामपंथी राजनैतिक दल अपने-अपने तरीके से वर्तमान सन्दर्भों में
इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करने के साथ-साथ नई परिस्थितियों के अनुसार एक वामपंथी
राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था को परिभाषित करने में लगे हैं.
इन सबके बीच ऐसे
लोगों की एक बड़ी तादाद है जो वामपंथ का आकलन इसके उन माडलों की कारगुजारियों से ही
करता है. सोवियत संघ के विघटन के बाद पैदा हुआ बच्चा आज युवा हो चुका है और वामपंथ
का मतलब उसके लिए देश के भीतर सक्रिय वामपंथी दल हैं. इससे अधिक अगर वह जानना
चाहता है तो ले-दे कर कुछ अखबारी लेख हैं या फिर यदि उसकी रूचि साहित्य में है तो
उसमे सामने हिन्दी का “साहित्यिक वाम” है जिसमें कट्टर पार्टी लाइन मानने वालों से
लेकर सुविधानुसार कहीं भी चले जाने वाले लोगों का एक ऐसा बड़ा और असंबद्ध समूह है,
जिसके लिए वामपंथ या तो संवेदना के स्तर पर ग़रीबों-मजलूमों के पक्ष में खड़ा होने
का आधार है या फिर मुख्यधारा में प्रवेश का एक ऐसा सुविधाजनक पास जिसकी कीमत सिर्फ
किसी संगठन की पचास रुपये सालाना की फीस है. ज़ाहिर है ऐसे में उस युवा के पास दो
ही रास्ते हैं – या तो वह इसी “साहित्यिक वाम” की सामंती बिरादरी में एडजस्ट होकर
छपना-चर्चा-पुरस्कार-पोस्टिंग के खेल में लग जाए या फिर इससे तीखी नफ़रत करने लगे.
लगभग एक दशक के हिन्दी साहित्य समाज के अनुभव से इतना तो मैं बिलकुल विश्वास से कह
सकता हूँ कि दर्जन भर से अधिक “मुख्यधारा” की “वामपंथी” हिन्दी साहित्यिक
पत्रिकाओं को पढ़ते हुए कोई नया पाठक कम से कम वामपंथ की कोई गहरी समझदारी तो कतई
विकसित नहीं कर सकता.
पार्टियों के अंदर
के हालात भी बड़ी तेज़ी से बदले हैं. पार्टी स्कूलों की व्यवस्था चरमराई है. कार्यकर्ताओं
को विचारधारा की गहन शिक्षा देने, विचारधारा के सवाल पर तीखी बहसों को प्रोत्साहित
करने और बदलती परिस्थितियों की अद्यतन समझदारी विकसित करने का ज़रूरी काम लगातार
पीछे छूटता जा रहा है और ट्रेड यूनियनों के लगातार बोनस-भत्ते की लड़ाई तक सीमित
होते जाने का असर यह हुआ है कि जुलूसों में संख्या बढाने वाले और सालाना सदस्यता
शुल्क जमा करने वाले सदस्यों की बहुसंख्या अपने निजी जीवन और व्यवहार में वामपंथ
के बिलकुल उलट आचरण करती नज़र आती है.
कोई भी विचारधारा जो
खुद को “कर्म का मार्गदर्शक” सिद्धांत कहती है, उसके “कर्मों” के आधार पर बनाई गयी
आम जन की अवधारणा को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाना निश्चित रूप से गलत और
वैचारिक तानाशाही जैसी चीज़ होगी. कम से कम मैं इस तरह का तर्क कभी नहीं दूंगा कि
यह सब केवल और केवल पूंजीवादी मीडिया का दुष्प्रचार है. हालांकि दुष्प्रचार नहीं
है, यह कहना भी गलत होगा. लेकिन एक दुश्मन खेमे की मीडिया से आप और क्या उम्मीद
करते हैं? उनका तो फ़र्ज़ था दुष्प्रचार. सवाल यह है कि वामपंथी पार्टियां या लेखक
अपने आचरण से उसे निष्प्रभावी क्यों नहीं कर सके? क्या यह सही नहीं कि हमने उन्हें
दुष्प्रचार के लिए पर्याप्त मौके उपलब्ध कराये? आज जब वामपंथ निश्चित रूप से
बैकफुट पर है तो इन सच्चाइयों से मुंह चुराने से बेहतर होगा कि पूरी गंभीरता से
इनका सामना किया जाए. यही हमें आगे की राह दिखायेगा.
इसके लिए सबसे ज़रूरी
है कि लोग यह जानें की मार्क्सवाद की मूलभूत शिक्षाएं क्या हैं? यह एक बेहतर दुनिया
बनाने का जो सपना दिखाता है उसके पीछे इसके तर्क क्या हैं? क्या जो लोग आज वामपंथी
होने का दावा करते हैं वे सच में इन तर्कों से संचालित हैं? हमें भूलना नहीं चाहिए
कि मार्क्स ने अपने जीते जी अपने कुछ अनुयाइयों की हरकतों से खिन्न होकर यह सवाल
किया था कि “क्या सच में मैं एक मार्क्सवादी हूँ?” तो लेनिन को “वामपंथी
कम्यूनिज्म- एक बचकाना मर्ज़” लिखना पड़ी थी. मार्क्स की मौलिक सैद्धांतिकी को समझना
एक तरफ आज की परिस्थितियों में उसकी प्रासंगिकता के आकलन के लिए ज़रूरी है तो दूसरी
तरफ संसद से लेकर जंगलों तक में सक्रिय उन लोगों की वैचारिक अवस्थिति की सही पहचान
करने के लिए भी ज़रूरी है जो खुद को मार्क्सवादी कहते हैं. इसमें हिन्दी के
“साहित्यिक वाम” को भी निस्संदेह शामिल किया जा सकता है. साथ ही, इस रौशनी
में मार्क्सवाद के आलोचकों के तर्कों को भी परखा जा सकता है और उनकी तार्किक व
न्यायसंगत आलोचना तथा दुष्प्रचार को अलग-अलग करके देखा भी जा सकता है.
वैसे एक सवाल यह भी
कि ऐसे वक्तों में मार्क्सवाद कोई पढ़े ही क्यूं? आखिर क्या है ऐसा मार्क्सवाद में
जो पराजय की इस घड़ी में भी दुनिया भर के लाखों-करोड़ों युवाओं और बुद्धिजीवियों के
बड़े हिस्से को अपनी और आकर्षित करता रहता है? आखिर ऐसा क्या है इस विचारधारा में
जो एक तरफ अनगिनत आँखों का स्वप्न बन जाता है तो पूंजीवादियों के लिए एक दुस्वप्न.
आखिर क्या है ऐसा इस विचारधारा में कि रोज-रोज खारिज़ किये जाने के बावजूद
आर्थिक-संकटों के दौर में पूरे यूरोप और अमेरिका तक में लाल झंडे सड़कों पर दिखाई
देने लगते हैं? मार्क्स ने कम्यूनिस्ट घोषणापत्र में जिस भूत की बातें की थीं,
कम्यूनिज्म का वह भूत मौत की हज़ार घोषणाओं के बाद भी पूंजी के बादशाहों की नींदे हराम
किये हुए है तो उसे जानना-समझना आज भी बेकार का काम तो नहीं ही हो सकता.
मेरी नज़र में
कम्यूनिज्म के स्वप्न का सबसे बड़ा पक्ष है बराबरी पर आधारित
सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना. आज अपने प्रचंड प्रभाव के बावजूद
पूंजीवाद जो एक चीज़ कभी नहीं दे सकता वह है समानता. इसके विकास के मूल में ही गैर
बराबरी की अवधारणा अन्तर्निहित है. लाभ की लगातार वृद्धि के उद्देश्य से संचालित
इसका कार्य व्यापार मुनाफे की एक ऎसी हवस को जन्म देता है जो एक तरफ नए-नए और
उन्नत उत्पादों की भीड़ लगाता जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें खरीदने की ताक़त को
लगातार कुछ हाथों में सीमित कर बाक़ी बहुसंख्या को उत्तरोत्तर वंचितों के खांचे में
डालता चला जाता है. दुनिया के पैमाने पर अमीर-गरीब देश बनते जाते हैं, देशों के
पैमाने पर अमीर-गरीब लोग. सत्ता इन्हीं प्रभावशाली वर्गों के व्यापारिक और सामाजिक
हितों की रक्षा का काम करती है. पर्यावरण की उस हद तक लूट की जाती है जहां ज़मीने
बंजर होती जाती हैं, नदियां सूखती जाती हैं और जंगल तबाह होते जाते हैं.
मुनाफ़ा-मुनाफ़ा-मुनाफ़ा यही देव है, यही
पैगम्बर और यही नशा. ज़ाहिर है कि जहां इतनी असमानता होगी वहाँ असंतोष होगा, अशांति
होगी और युद्ध भी होंगे. जहां मुनाफे की ऎसी हवस होगी वहाँ मानवीय संबंध भी बाज़ार
से निर्धारित होंगे. स्वार्थ ही सबसे बड़ा सिद्धांत होगा और अन्याय ताक़तवर का
हथियार होगा तो कमजोर विद्रोह पर उतरेंगे ही. मार्क्सवाद इसके बरक्स एक ऐसे समाज
का स्वप्न दिखाता है जहां मुनाफे की यह अंधी हवस न होगी. जहां
आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक प्रक्रियाएं समानता की और अग्रसर होंगी. यहाँ यह ज़रूर
कहूँगा कि यह कोई भूखमरी का सिद्धांत नहीं है कि सब बराबर हों और सब दरिद्र हों
बल्कि मेरी समझ यह है कि एक कम्यूनिस्ट समाज में सब बराबर होंगे और सब निरंतर
समृद्धि के पथ पर अग्रसर होंगे. इस समानता में शान्ति के बीज अपने आप अंकुरित
होंगे. यानि समाजवाद का एक नारा हो सकता है – शान्ति, समाजवाद, समृद्धि! आज किसी
भी समाजवादी माडल को इन तीनों ही उद्देश्यों को एक साथ साधना होगा. साथ ही इसे
वर्तमान पूंजीवाद से अधिक लोकतांत्रिक भी होना ही होगा. तभी यह समाज के व्यापक
हिस्से को अपने साथ ले पायेगा.
इस लेखमाला को लिखने
के पीछे मेरा उद्देश्य पाठक को बस मार्क्सवाद के बेसिक सिद्धांतों से परिचित करा
देना है. अब यह पाठक पर है कि वह इसकी रौशनी में (जितनी भी यह दिखा पाए) अपने समय
तथा इस समय में सक्रिय तमाम वामपंथी दलों/व्यक्तियों का आकलन कर सके. यहाँ मैं यह
साफ़ कर देना चाहता हूँ कि ऐसा कतई नहीं समझा जाना चाहिए कि हिन्दी में इस तरह की
यह कोई पहली चीज़ है. राहुल सांकृत्यायन से लेकर अनिल राजिमवाले और श्रीनिवास सरदेसाई
जी तक ने इस बाबत बहुत अच्छी किताबें लिखी हैं. मेरी अपनी जो थोड़ी-बहुत समझ बनी है
उसमें इन सब की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. इन्होने वह आधार दिया जिस पर खड़े होकर
मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्टालिन-माओ से लेकर बाद के मार्क्सवादी विद्वानों की
किताबें पढ़ी जा सकीं. इसके अलावा एमिल बर्न्स, मोरिस कोनफोर्ड सहित तमाम विद्वानों
की किताबों के हिन्दी अनुवाद भी बेहद महत्वपूर्ण हैं. लेकिन सोवियत संघ के विघटन
के बाद वहाँ से सस्ती किताबों की आपूर्ति बंद होने और भारत के भीतर भी पीपुल्स
पब्लिकेशन के लगभग निष्क्रिय होते जाने के बाद एक तरफ पुरानी किताबें अनुपलब्ध
होती गयी हैं तो दूसरी तरफ हिन्दी के साहित्यग्रस्त समाज में ऐसे विषयों पर नया
कुछ लिखने की कोशिशें भी दिखाई नहीं देतीं. इसी कमी को दूर करने के लिहाज से मैंने
वर्ष 2010 में “मार्क्स-जीवन और विचार” लिखी थी जिसका पाठकों से बहुत अच्छा
प्रतिसाद मिला था. इस लेखमाला को उसी प्रयास की अगली कड़ी माना जाना चाहिए. यहाँ भी
ज़ाहिर तौर पर कुछ नया कहने की जगह मेरा प्रयास इन विद्वानों की कही गयी बातों को
ही बदली हुई परिस्थितियों में नए तरीके से पेश कर मार्क्सवाद की एक प्राथमिक
टेक्स्ट बुक तैयार करने का है. ज़ाहिर तौर पर मुझ जैसे एक साधारण और अनुभवहीन लेखक
से आपको तमाम गलतियों की उम्मीद करनी चाहिए. लेकिन साथ ही यह जिम्मेदारी भी आप की
ही है कि उन्हें सुधारें. किसी सर्वज्ञता के दावे की जगह मेरा प्रस्थान बिंदु एक
ईमानदार कोशिश का संकल्प है.
इस लेखमाला में मैं
मुख्यतः दर्शन, इतिहास और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मार्क्स के अवदानों का
अध्ययन करने का प्रयास करूँगा. चूंकि मार्क्सवाद का कोई विवेचन केवल एक बौद्धिक
उठापठक नहीं हो सकता तो मेरी कोशिश निश्चित रूप से आज की परिस्थितियों में इनके
व्यवहारिक उपयोग की संभावनाओं और इस रूप में इनकी प्रासंगिकता पर विचार की भी
होगी. मेरी कोशिश होगी कि इस पूरी प्रक्रिया में मैं भाषा के स्तर पर सहज और विचार
के स्तर पर स्पष्ट बना रह सकूं.
इतनी बातों के साथ
मैं भूमिका से मुक्त होता हूँ और अब अगली बार जब हम मिलेंगे तो हम मार्क्सवाद के
दार्शनिक पहलू पर बात कर रहे होंगे.
आपने जो अच्छे संकेत दिये हैं उन्हे पढ़ने का इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंअच्छे नोट पर शुरुआत है. इससे इस लेखन का औचित्य सही तरीक़े से प्रतिपादित हो गया है. ध्यान आगे रखना है. मेरा सुझाव है कि अगले अध्याय में पहले मार्क्सवाद के तीनों स्रोतों को ले लेना, फिर आगे बढ़ना. यह महत्वपूर्ण योगदान साबित होगा.
जवाब देंहटाएंशुरुआत में ही इतना क्षमा प्रार्थी होने की जरुरत नहीं है. उद्देश्य अच्छा है. मार्क्सवाद व्यक्ति को समाज साक्षर बनाने की नहीं, शिक्षित बनाने की बात करता है. यह न तो पंचांग है न कुंडली, न कुतुबनुमा है न नक्शा..यह ठोस परिस्थितियों के ठोस अध्ययन का एक नजरिया है..एक औजार है. रही मौजूदा वक़्त में इसकी प्रासंगिकता की तो इस पर वे ही सवाल उठा रहे हैं जो इस से डर रहे हैं. नव पूंजीवाद के पुरोधा जोसेफ स्तिग्लित्ज़ ने २००८ के संकट के बाद एक आयोजन में एरिक होब्स्वोम की बांह पकड़ कर कहा था कि "इस भद्र पुरुष (मार्क्स) ने डेढ़ सौ साल पहले ही देख लिया था कि पूंजीवाद किस तरह के संकट में घिरने वाला है- अगर बीमारी की सही सही जानकारी इसके पास थी तो समाधान भी उसी का सही होगा" हाँ...हम बिना कोई उपक्रम किये बैठे रहें, और एक किनारे बैठे सदियाँ गुजार दें तो इसका मतलब यह नहीं कि "किनारा उस ओर है और इसे तैर कर पार करना होगा" कहने वाला गलत था.सामाजिक बदलाव के लिए वस्तुगत परिस्थितियाँ ही काफी नहीं- मनोगत तैयारियां भी जरूरी हैं. इन्हें न कर पाना हम जैसों की (व्यवहार की)
जवाब देंहटाएंअसफलता है...विचार की नहीं.
मोहन सर से सहमत..! लेखन का औचित्य सही तरीके से प्रतिपादित हो गया. नवागतों और अनुभवियों के लिए भी. आपने भाषा एवं विचार के लिए जो प्रतिमान तय किया,उसमें सफल हैं. शुभेच्छायें.
जवाब देंहटाएंभूमिका अच्छी है !आशा है लेखमाला नए पाठकों की मार्क्सवाद को समझने में सहायता करेगी ,साथ ही पुराने मार्क्सवादियों की समझ को भी माँज कर चमकाने में मदद करेगी !विषय कठिन है जिसे समझाने के लिए दैनिक जीवन के सरल उदाहरणों की मदद ली जा सकती है !इससे रोचकता भी बनी रहेगी !
जवाब देंहटाएंहम सबके लिए एक बहु-प्रतीक्षित शुरुवात .....उम्मीद है कि इससे हमारे समय के कई जाले साफ़ होंगे....प्रस्तावना हमें साथ लेकर चलने की उम्मीद जगाती है ...हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि जैसे जैसे यह श्रृंखला आगे बढ़ेगी , हमारी भागीदारी भी सक्रिय होती जायेगी ......और फेसबुक तथा ब्लॉगों की दुनिया का यह उपयोग हमें इसके आलोचकों को जबाब देनें के लिए भी एक बेहतर तर्क उपलब्द्ध कराएगा...|..हमारी ढेर सारी शुभकामनाये आपको ...
जवाब देंहटाएंअशोक भाई बधाई....
जवाब देंहटाएं-आप ने शुरुआत में ही ये गुंजाईश खत्म करदी की हम इसे वाम के मौजूदा स्वरुप से जोड़े....और उसका उदाहरण दे अनर्गल बहस में पड़े/
-आप के इस प्रयास को पढ़ मेरे जैसे पूँजीवाद समर्थक को भी मार्क्स के मूल सिधान्तों के बारे में सही ज्ञान मिलेगा और साथ ही पुनर्विचार का एक मौका/
-आप समय-समय पर अपनी ही ओर से यदि वाम के मौजूदा स्वरुप और पतन के कारण पर भी रौशनी डाल पाए तो बेहतर होगा...एक बार पुन्ह आप के सहृदय प्रयास के लिए बधाई एवं शुभ कामनाये
अशोक भाई बधाई....
जवाब देंहटाएं-आप ने शुरुआत में ही ये गुंजाईश खत्म करदी की हम इसे वाम के मौजूदा स्वरुप से जोड़े....और उसका उदाहरण दे अनर्गल बहस में पड़े/
-आप के इस प्रयास को पढ़ मेरे जैसे पूँजीवाद समर्थक को भी मार्क्स के मूल सिधान्तों के बारे में सही ज्ञान मिलेगा और साथ ही पुनर्विचार का एक मौका/
-आप समय-समय पर अपनी ही ओर से यदि वाम के मौजूदा स्वरुप और पतन के कारण पर भी रौशनी डाल पाए तो बेहतर होगा...एक बार पुन्ह आप के सहृदय प्रयास के लिए बधाई एवं शुभ कामनाये
अशोक जी, निश्चित रूप से आपने एक बेहतर शुरुआत की है.तमाम किंतु परन्तु के बावजूद मार्क्सवाद अगर आज भी प्रासंगिक है तो यही उसकी सफलता है. शोषितों वंचितों की बात मार्क्सवाद की आधारभूमि है और समाज,राजनीति और अर्थनीति तीनों के बीच के संबंधों को बेहतर तरीके से समझने की धुरी भी.आपकी लेखमाला अपने मंतव्य में जरूर सफल होगी. हमारी शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंअशोक जी, निश्चित रूप से आपने एक बेहतर शुरुआत की है. तमाम किंतु परन्तु के बावजूद मार्क्सवाद अगर आज भी प्रासंगिक है तो यही उसकी सफलता है. शोषितों वंचितों की बात मार्क्सवाद की आधारभूमि है और समाज, राजनीति और अर्थनीति तीनों के बीच के संबंधों को बेहतर तरीके से समझने की धुरी भी.आपकी लेखमाला अपने मंतव्य में जरूर सफल होगी. हमारी शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंअब तक सहमत .......देखें यह सहमति कितनी दूर तक ????? या फिर असहमतियों का क्या हश्र होता है मार्क्सवाद के किले में ??
जवाब देंहटाएंअच्छी पहल..
जवाब देंहटाएंहमें बादल सरोज की टिप्पणी से सहमत मानिये !
जवाब देंहटाएंइंतज़ार रहेगा !! ......मुझे विश्वास है यह प्रोजेक्ट पूँजी वादियों और पूँजीपतियों और यहाँ तक कि मार्क्सवादी विद्वानों को भी सम्बोधित न हो कर आम , अशक्त और निस्सहाय आदमी को सम्बोधित होगा. कि वे मार्क्सवाद का मर्म सही से समझ जाएं . कुछ टर्म्ज़ की विस्तृत ऐतिहासिक व्याख्या चाहिये होगी -- जैसे "पार्टी स्कूल" ....."कम्यूनिज़्म" ..... आदि आदि.
जवाब देंहटाएंकड़ी के अगले लेखों की प्रतीक्षा रहेगी। मुझे लगता है गंभीर विवेचनाओं के तौर-तरीकों से अलग आपके लेखों से मुझे मार्क्सवाद के बारे कुछ अच्छा पारंभिक ज्ञान हो सकेगा, वह भी समकालिकता के साथ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया और ज्ञानवर्धक पहल
जवाब देंहटाएंसर आपका फ़ोन नंबर दें ताकि इस किताब को मंगा सकूँ
जवाब देंहटाएं8375072473..swagt
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