प्रकाशक : दख़ल प्रकाशन, मूल्य : 175 रुपये, मंगाने के लिए सम्पर्क करें : ashokk34@gmail.com
'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' पहले-पहल किताब का नाम बड़ा अजीब सा लगा था, लेकिन जब अशोक भाई ने फेसबुक पर शेयर किया कि किताब में बागी प्रेम विवाहों के आख्यान हैं, तो इसे पढ़ने के लिए मन उत्सुक हो उठा. पुस्तक मेले से लाने के बाद तीसरे दिन जब इसे पढ़ना शुरू किया तो एक बैठक में पढ़ गयी. जी हाँ, रात के दो बजे से सुबह के दस बजे तक पूरी किताब जैसे एक सांस में पढ़ डाली.
ऐसा इसलिए
हुआ क्योंकि इसमें प्रेम
कहानियाँ थीं, लेकिन
उससे भी अधिक इसलिए कि वास्तविक
कहानियाँ थीं और उन्हीं की
ज़ुबानी जिन्होंने निराशा के
इस दौर में प्रेम किया और उसे
शादी तक पहुँचाने का साहस भी.
यहाँ यह सवाल उठ सकता
है कि प्रेम तो प्रेम है,
क्या ज़रूरी है कि उसका
अंजाम शादी ही हो? क्या
जिनकी शादी नहीं होती, उनका
प्रेम सच्चा नहीं होता?
हाँ, होता
है. प्रेम किसी भी
रूप में हो, सच्चा
ही होता है. प्रेम
का सम्मान करने वाले हर प्रेम
को समान दृष्टि से देखते हैं.
उनके लिए प्रेमी
बस प्रेमी हैं, भले
ही वे अंततः विवाह बंधन में
बांध पाए हों या नहीं. लेकिन
प्रेम सबका दुश्मन तभी बन जाता
है, जब वह शादी के
अंजाम तक पहुँचने की कोशिश
करता है.
हमारे
समाज में एक बेचारी 'शादी'
पर ही तो पूरे समाज की
जिम्मेदारियों का बोझ है.
उसे पितृसत्ता को बनाए
रखना है, ताकि संपत्ति
और स्त्रियों की यौनिकता पर
पुरुषों का नियंत्रण बरकरार
रहे. उसे 'सामंतवाद'
को बचाकर रखना है,
ताकि धन-दौलत-बाहुबल-सत्ता
आदि का दिखावा करने का अवसर
उपलब्ध होता रहे. उसे
'जातिवाद' को
भी जिंदा रखना है, ब्राह्मणवाद
बचा रहे. उसे धर्म
की भी रक्षा करनी है, ताकि
साम्प्रदायिक ताकतें लोगों
की अंधश्रद्धा को ईंधन बनाकर
नफ़रत की आग जलाए रख सकें और
उससे अपने हाथ सेंकते रहें.
और अंततः उसे वर्ग-भेद
बनाए रखने में भी सहयोग करना
है क्योंकि शादी से सम्बन्धित
सबसे प्रसिद्ध जुमला "शादी
अपने बराबर वालों में ही होती
है.”
इन सबसे
इतर प्रेम ऊपर की किसी शर्त
को मानने को तैयार नहीं, तो
क्यों न दुश्मन हो जाए समाज
उसका? चलो, प्रेम
को तो माफ भी कर दिया जाय!
याद रहे, हमारे
समाज में अव्वल तो प्रेम करना
नहीं चाहिए, हो गया
तो कोई बात नहीं, पता
नहीं चलना चाहिए (क्योंकि
बद अच्छा, बदनाम
बुरा) और मान लो पता
भी चल गया, तो लड़कियों
को नसीहत कि "उसे
भूल समझकर भूल जाओ" और
लड़कों को सीख कि "प्यार-व्यार
तो ठीक, तुम एक क्या
हज़ार करो, लेकिन वो
लड़की इस घर की बहू नहीं बन सकती"
प्रायः यह पितृसत्तात्मक
परिवार के मुखिया का बड़े गर्व
और धमकी भरे अंदाज़ में दिया
हुआ हुक्म होता है.
तो सोचिये,
इन हालात में प्रेम
को शादी तक ले जाना कितनी बड़ी
बात है. इसीलिये
हमारे यहाँ शादी को प्रेम की
परिणति या सफलता माना जाता
है. प्रेम विवाह पितृसत्ता, सामंतवाद, वर्ग भेद, जातिवाद सबका दुश्मन है. प्रेम विवाह चाहे अंतरजातीय हो या स्वजातीय, चाहे एक धर्म में हो या अंतरधार्मिक, यह किसी न किसी स्तर पर कोई न कोई सामाजिक रूढ़ि तोड़ता है.
लेकिन बात यहीं
खत्म नहीं होती. प्रेम
विवाह में असली परीक्षा तो
गृहस्थ जीवन की शुरुआत के
साथ शुरू होती है और इस किताब
की कुछ कहानियाँ इसी सच को
सामने लाने की कोशिश करती हैं.
सुमन केशरी, देवयानी
भारद्वाज, प्रीती
मोंगा, मसिजीवी और
ममता की कहानियाँ शादी के बाद
के संघर्षों को बयान करती हैं.
इसमें से कुछ तो आपसी
प्रेम को बचाए रखने के जद्दोजहद
का वर्णन करती हैं और कुछ प्रेम
विवाह के बाद लड़की द्वारा नए
घर-परिवार में सामंजस्य की दास्तान.
देवयानी जी ने जिस
साहस और बेबाकी से अपने वैवाहिक
जीवन के संघर्षों को चित्रित
किया है, वह बेहद
प्रभावी है. लेकिन
यह तय है कि इस प्रकार ईमानदारी
से अपने सम्बन्धों के अंतर्द्वंद्व
को परखने का साहस वही लड़की कर
सकती हो, जिसने अपने
मनपसंद युवक से प्रेम किया
और स्वयं विवाह का निर्णय
लिया, उसे पूरी
निष्ठा से निभाया और समस्याओं
को सुलझाने के अथक प्रयास
किये. और अंततः न
सुलझ पाने पर कड़े निर्णय लेने
की भी हिम्मत की.
सुमन केशरी
जी ने प्रेम के सामाजिक पहलुओं
का विश्लेषण करते हुए अपनी
कहानी को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य
में रखा है और प्रीती मोंगा
ने यह बात स्पष्टता से कही कि
यदि जीवन का एक निर्णय किसी
कारणवश हमें गलत लगने लगता
है, तो उसे बदलने
में संकोच नहीं करना चाहिए.
अमित कुमार
श्रीवास्तव, विभावरी,
नवीन रमण-पूनम,
प्रज्ञा वर्षा सिंह,
रूपा सिंह, किशोर
दिवसे, राजुल तिवारी,
मोहित खान और शकील
अहमद खान आदि सभी की कहानियाँ
प्रेम और उसे शादी के परिणाम
तक पहुँचाने के संघर्ष की
कहानियाँ हैं. इनमें
से कुछ कहानियाँ बेहद रूमानी
हैं तो कुछ सीधे-सीधे
समाज को चुनौती देती हुयी.
यहाँ यह बता देना उचित होगा कि यह किताब मात्र प्रेम कहानियों का संग्रह नहीं. इसमें संकलित कई प्रेम कहानियाँ अपने-अपने ढंग से प्रेम के साथ-साथ समाज और उसके ताने-बाने की भी निर्ममता से जाँच-पड़ताल करती हैं. इसी के साथ संपादक द्वय -नीलिमा चौहान और अशोक कुमार पाण्डेय के लेख प्रेम के समाजशास्त्रीय आयाम और प्रभावों का विश्लेषण करते चलते हैं और सुजाता का लेख अनुभव और अध्ययन से उपजा एक दस्तावेजी बयान है.
मैंने इस लेख में बहुत
ज़्यादा विस्तार इसलिए नहीं
किया क्योंकि पहली बात, मैं कोई
आलोचक या पुस्तक समीक्षक नहीं,
जो तटस्थ भाव से समीक्षा
कर सकूँ. मैंने जो
लिखा एक पाठक की दृष्टि से
लिखा. दूसरी बात,
किताब के बारे में
अधिक लिखकर मैं इसे पढ़ने का
मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहती.
लेकिन मैं कहना चाहूँगी
कि हाल ही में पढ़ी गयी कई पुस्तकों
में से इस पुस्तक ने मुझे
सबसे अधिक प्रभावित किया. जैसा कि नीलिमा जी ने
पुस्तक की भूमिका में कहा है
कि ये सिर्फ प्रेम कहानियाँ
नहीं, बल्कि
समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए
उपयोगी सामग्री भी है, मैं
भी यह मानती हूँ कि साहित्य
के अनुरागी पाठकों के साथ-साथ
सामाजिक विषयों के अध्येताओं
को भी यह पुस्तक अवश्य पढ़नी
चाहिए.
मैं इस किताब को तसल्ली से पढ़ना चाहती थी. इस लेख ने उस तसल्ली को खंडित किया है. shurkriya!
जवाब देंहटाएंTrust me - Tasali to is ko padne keep padne ke baad bhi nahi milagi!!!!!!!!!!! Waiting for ur reply
जवाब देंहटाएंकिताब मिल चुकी है
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार