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गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

राजेन्द्र यादव : बड़े सम्पादक और लेखक ही नहीं बड़े मनुष्य भी - पल्लव

हमारे युग के नायक राजेन्द्र यादव
पल्लव
हिन्दी कहानियों के सबसे शानदार संकलन ‘एक दुनिया समानांतर’ की भूमिका में राजेन्द्र  यादव ने एक सवाल उठाया है कि विश्वामित्र नायक हैं या खलनायक? आज जबसे खबर मिली है कि यादव जी नहीं रहे यही सवाल उनके बारे में पूछ्ने का मन हो रहा है - राजेन्द्र यादव हमारे साहित्य समय के नायक हैं या खलनायक? शुरुआत उन्होंने भी बड़ी भव्य की थी – सारा आकाश जैसे उपन्यास और कई उम्दा कहानियों के साथ । हंस के सम्पादन से उनका सितारा बुलन्दी पर पहुंचा, यह वह समय था जब बड़े समूहों की पत्रिकाएं डूब रही थीं और उधर सोवियत संघ का भी पराभव होने को था । हंस ने हिन्दी संसार में कायदे की बहसों को फ़िर जीवन दिया और एक के बाद एक बढिया कहानियां उस्में आने लगी। फ़िर मौसम में बद्लाव दिखाई देने लगा और राजनीति के साथ साहित्य में भी दलित आहट हुई। ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहन्दास नैमिशराय,सूरजपाल चौहान और श्योराज सिंह बेचैन जैसे लेखक परिदृश्य पर उभर रहे थे, कहना न होगा कि हंस ने इस दलित विमर्श को ज़मीन प्रदान की । इसके साथ साथ स्त्री विमर्श का सिलसिला भी शुरू हुआ और हंस ने लवलीन, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, सुधा अरोड़ा के साथ अनेक नयी लेखिकाओं के लिये मंच तैयार कर दिया । क्या राजेन्द्र यादव को ऐसा नहीं करना चाहिये था? क्या उन्हें खलनायक माने जाने चाहिये क्योंकि उन्होंने हाशिये के लोगों को साहित्य के सभागार में आदरपूर्वक बैठने की जगह दी और इससे मार्क्सवाद की शाश्वत लड़ाई को धक्का लगा। ये वे विमर्श थे जो उत्तर आधुनिक मुहावरे में अपनी जगह मांगते थे बल्कि कहना चाहिए कि अपनी जगह इन्होंने खुद आगे बढकर ले ली । राजेन्द्र यादव इस ऐतिहासिक क्षण में दलितों और स्त्रियों के लिए हंस में स्वागत कर रहे थे और उनके पक्ष में जिरह कर रहे थे, पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद से लड़ाई लड़ रहे थे। अपने समय का नायक वह होता है जो अपने समय के असली संघर्षों को पहचाने और उन्हें सही दिशा दे, राजेन्द्र यादव ने दलित और स्त्री विमर्श के लिये यह भूमिका निभाई। लड़ाई उनके स्वभाव का स्थाई भाव था। हिन्दी कहानी का इतिहास जानने वाले पाठकों को मालूम है कि नयी कहानी के हक़ में उन्होंने कितनी लड़ाइयां मोल ली थीं और कितने दुश्मन बनाए थे। हंस के माध्यम से यह काम आगे भी वे जीवन भर करते रहे। काशीनाथ सिंह के कथा रिपोर्ताज़ छापे तो गालियों के कारण कोहराम मचा-राजेन्द्र यादव फ़िर लेखक और लेखन के पक्ष में थे, तसलीमा का मामला हो या हिन्दी पट्टी की जड़ता के कारण –हंस अपने समय का वैचारिक दीपक बनने की कामयाब कोशिश करता रहा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिये कोई भी जोखिम उठाने की तत्परता उन्हें सचमुच बड़ा बनाती है। बड़ा सम्पादक और लेखक ही नहीं बड़ा मनुष्य भी ।
विचारों की स्वतन्त्रता के कारण ही उनका अपना वैवाहिक जीवन समाप्तप्राय: हो गया लेकिन वे अडिग थे तब भी जब सारे ज़माने ने उन्हें इसके लिये कोसा और ‘लम्पट’ तक कहा। मैं सोचता हूं कि क्या हम एक आदमी भी ऐसा नहीं बना सकते जो अपनी शर्तों पर जिन्दगी जीने की हिम्मत रखता हो। उनका अपना लेखन भी तमाम इसी तरह की चुनौतियों को स्वीकार करता हुआ लेखन है। भारतीय समाज के छ्द्म और पाखंड से वही लेखक लड़ सकता है जो स्वयं अपने जीवन में इनसे लड़ने का साहस रखता हो । राजेन्द्र यादव को इस कसौटी पर हमेशा कसा गया और वे हरदम कसे जाने के लिए तैयार रहे । हम नहीं जानते कि हिन्दी साहित्य के पाठक भविष्य में भी बने रहेंगे लेकिन यह तय है कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के सबसे चमकदार नामों की सूची में राजेन्द्र यादव का नाम बहुत ऊपर होगा।

लगभग एक दर्जन मूल किताबों और दो दर्जन सम्पादित किताबों के धनी राजेन्द्र जी ने प्रकाशन की हिम्मत भी की थी और ‘अक्षर प्रकाशन’ उनका ऐसा सपना था जो सहकारी ढंग से लेखकों की किताबें छापे और समुचित रायल्टी भी दे, यह कोशिश बहुत लम्बी नहीं चल सकी लेकिन अपनी सुरुचि और गुणवत्तापूर्ण किताबों के लिये ‘अक्षर प्रकाशन’ को याद किया जाता रहेगा।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

बहिष्कार भी समर्थन की तरह एक राजनीतिक हथियार है : सन्दर्भ हंस का सम्पादकीय

यह लेख भोपाल की एक पत्रिका के कहने पर लिखा गया था. छपा या नहीं छपा यह पता नहीं, क्योंकि कोई सूचना नहीं आई. अब इस महीने का हंस का सम्पादकीय पढने के बाद इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.
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हंस और विवादों का रिश्ता नया नहीं है. पत्रिका में लिखे को लेकर तो कभी पत्रिका के बाहर राजेन्द्र जी और उनकी मंडली के कारनामों पर विवाद होते ही रहे हैं. इस बार यह विवाद प्रेमचंद जयंती पर हंस के वार्षिक आयोजन को लेकर है. इस आयोजन में गोविन्दाचार्य, अशोक वाजपेयी, अरुंधती राय और वरवरराव के आने तथा ‘अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता’ विषयक व्याख्यानमाला में उनकी हिस्सेदारी की सूचना थी. लेकिन कार्यक्रम में अरुंधती नहीं आईं और वरवर राव ने दिल्ली आने के बाद भी कार्यक्रम में हिस्सेदारी से इंकार कर दिया. उनके बहिष्कार को लेकर सवाल उठने शुरू हुए तो उन्होंने इंटरनेट पर एक पत्र ज़ारी किया और फिर हिंदी के साहित्यिक विवादों के ‘प्रसंस्करण केंद्र’ जनसत्ता में इसे लेकर उनकी लानत-मलामत करता हुआ एक सम्पादकीय और अपूर्वानंद की एक टिप्पणी प्रकाशित हुई, जिसके उत्तर में उन्होंने एक और पत्र ज़ारी किया. संभव है आगे और वाद-प्रतिवाद आयें. फेसबुक और सोशल मीडिया पर अशोक वाजपेयी कैम्प के तमाम स्वनामधन्य साहित्यकार और जनसत्ता सम्पादक ओम थानवी तो लगातार तलवारें भांज ही रहे हैं.

देखना होगा कि वरवरराव या अरुंधति के हंस के इस सालाना उत्सव में न आने के क्या मानी हो सकते हैं? यहाँ यह याद दिला देना भी बेहतर होगा कि इसके पहले छत्तीसगढ़ के तत्कालीन पुलिस प्रमुख विश्वरंजन और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय की उपस्थिति के कारण अरुंधती ने पहले भी हंस के ही एक आयोजन का बहिष्कार किया था. उसकी वजूहात क्या थीं? ज़ाहिर है कि छत्तीसगढ़ में जिस तरह सलवा जुडूम के नाम पर राज्य दमन ज़ारी था (जो अब भी एक भिन्न रूप में रुका तो नहीं ही है) उसकी अगुवाई कर रहे व्यक्ति के साथ मंच शेयर करना आदिवासियों के दमन के खिलाफ लगातार लिख रही अरुंधती ने उचित नहीं समझा था. मुझे नहीं याद कि उसे लेकर तब किसी तरह का कोई विवाद मचा था. आज लोकतंत्र और आवाजाही के सिद्धांत पेश कर रहे लोग तब शायद इसलिए भी चुप थे कि अशोक वाजपेयी खुद विश्वरंजन और विभूति नारायण राय के बहिष्कार (छिनाल प्रकरण के बाद) में शामिल थे. मजेदार बात यह है कि तब वर्धा विश्विद्यालय और छतीसगढ़ के प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान (जिसके सर्वे सर्वा विश्वरंजन थे) के  बहिष्कार को सही बताने वाले और उसमें शामिल होने वाले लोग आज बहिष्कार की पूरी अवधारणा पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं और इसे ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ के ख़िलाफ़ बता रहे हैं. ओम थानवी सवाल उठाते हैं कि ‘अगर ‘लोकतंत्र में सभी मंच एकतान हो गए तो जिस वैचारिक और सांस्कृतिक बहुलता को हम अपने लोकतंत्र का असली आधार मानते हैं, वह समाप्त हो जायेगी’ तो अपूर्वानंद कहते हैं ‘भारत में, जो अब भी एक-दूसरे से बिलकुल असंगत विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व वाला देश है , किसी विचार को चाह कर भी सार्वजनिक दायरे से अपवर्जित करना संभव नहीं है.’ सवाल वही है कि यह लोकतंत्र ‘वर्धा’ या ‘प्रमोद स्मृति संस्थान’ में लागू क्यों नहीं होता है? क्यों यह थानवी साहब के अखबार में अपने विरोधियों के प्रतिवाद को स्थान देने के क्रम में लागू नहीं होता? (सी आई ए को लेकर लम्बे चले विवाद में थानवी ने वीरेन्द्र यादव, मेरे या गिरिराज किराडू के प्रतिवाद छापने से शब्द सीमा निर्धारण के नाम पर इंकार कर दिया था) 

सवाल यहाँ यह भी है कि वाकई हंस कोई ऐसा आयोजन कर रहा था जिसमें किसी बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश थी? ज़ाहिर है कि यह कोई पैनल डिस्कशन या परिचर्चा नहीं, व्याख्यानमाला थी. इस व्याख्यानमाला में सबको अपने-अपने भाषण देने थे और किसी तरह की बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी. ऐसे में यह तर्क कि वहां वैचारिक विरोधियों से बहस की जानी चाहिए थी, बिना नींव का है. साम्प्रदायिकता के धुर विरोधी अशोक वाजपेयी ने वहाँ कट्टर साम्प्रदायिक गोविन्दाचार्य से क्या बहस की? फिर यह हंस का आयोजन था जिसे आमतौर पर एक वामपंथी मैगजीन की तरह जाना जाता रहा है. उसके उत्सव में एक धुर वामपंथ विरोधी बुर्जुआ और एक कट्टर साम्प्रदायिक को मंच पर क्यों होना चाहिए था? और अगर उत्सव में वे शामिल थे तो फिर वहां एक घोषित नक्सलवादी वामपंथी वरवरराव और आदिवासी अधिकारों की प्रवक्ता तथा कार्पोरेट विरोधी अरुंधती राय को क्यों होना चाहिए था? संसद में सबके साथ बैठने का उदाहरण देने वाले बताएँगे कि कौन सी पार्टी अपने घरेलू समारोहों में विपरीत विचारधारा के लोगों को बुलाती है? कब ऐसा होता है कि कांग्रेस के किसी समारोह में मुख्य वक्ता भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टी का होता है? समारोह के मंच के भागीदार आपके वैचारिक हमसफ़रों की घोषणा होते हैं. ज़ाहिर है हंस अपने मंच पर इन लोगों को बुलाकर कुछ और साबित करना चाहता था तो फिर किसी वरवर राव को उससे खुद को अलग करने का हक क्यों न हो? क्या भारत और विश्व के साहित्यिक परिदृश्य में बहिष्कार पहले नहीं हुए हैं? क्या सार्त्र ने नोबेल का बहिष्कार नहीं किया था? क्या एक समय में अज्ञेय ने भारत भवन का बहिष्कार नहीं किया था? क्या अरुंधती ने साहित्य अकादमी नहीं ठुकराया? क्या फोर्ड फाउंडेशन जैसे स्रोतों का लम्बे समय तक (और अब भी) तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों और कलाकारों ने बहिष्कार नहीं किया? क्या अमेरिका ने चार्ली चैपलिन जैसे कलाकार को देशनिकाला नहीं दिया? क्या ब्रेख्त को अमेरिकी साम्राज्यवाद और हिटलर के फासीवाद के विरोह की क़ीमतें तमाम देशों से दर-ब-दर होकर नहीं चुकानी पड़ीं? और क्या आज लोकतंत्र की दुहाई दे रहे वाजपेयी कैम्प ने अपने किसी आयोजन में वरवर राव या ग़दर जैसे कलाकारों को बुलाया? क्या यह एक तरह का अघोषित बहिष्कार नहीं था/ है? फिर वरवर राव अगर साम्प्रदायिक गोविन्दाचार्य और वाम विरोधी अशोक वाजपेयी के साथ एक समारोह में मंच शेयर नहीं करना चाहते तो इतनी चिल्ल-पों क्यों? बहिष्कार भी समर्थन की तरह एक राजनीतिक हथियार है और एक लेखक को इसके प्रयोग का पूरा अधिकार है. 

वरवर राव अशोक वाजपेयी को कारपोरेट कल्चर का समर्थक कहते हैं और इस रूप में अपना वैचारिक विरोधी कहते हैं. इसे लेकर बहुत शोरगुल मचाया गया और अशोक वाजपेयी के सेकुलर होने का उदाहरण पेश किया गया. सवाल यह है कि कौन उनके सेकुलर होने पर सवाल खड़ा कर रहा है? लेकिन बुर्जुआ वर्ग सेकुलर होता ही है, इससे उसका कारपोरेट विरोधी हो जाना तो सिद्ध नहीं होता? आखिर कांग्रेस, सपा, बसपा जैसी सभी पार्टियां ही नहीं हमारी फिल्म इंडस्ट्री के तमाम कलाकार और कारपोरेट भी धर्मनिरपेक्षता का दावा करते हैं और उनमें से काफी हैं भी. एक दौर में राजनीति में कारपोरेट कल्चर के सबसे बड़े प्रतिनिधि के रूप में उभरे अमर सिंह तो उस नरेंद्र मोदी के बेहद कटु आलोचक रहे जिसके खिलाफ लेखकों को इकट्ठा करने के वाजपेयी जी के प्रयास को रेखांकित कर उनके आलोचकों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. साफ है कि साम्प्रदायिकता का विरोध और कारपोरेट का विरोध दो अलग-अलग चीजें हैं. अशोक वाजपेयी का पूरा लेखन और जीवन सबके सामने है और अगर उसमें कारपोरेट कल्चर या पूंजीवाद का विरोध नहीं है तो वरवर राव को उसे रेखांकित करने और उसके आधार पर उन्हें अपना वैचारिक शत्रु घोषित करने का हक है. लगातार शासन और निजी तंत्र के गठजोड़ के हाथों उत्पीडन और दमन झेल रहे लोगों के साथ सक्रिय वरवर राव का नज़रिया आई आई सी और हैबिटाट में बैठकर साहित्यिक षड्यंत्र रचने और पद-पुरस्कार-फेलोशिप-यात्रा की जुगाड़ में लगे लोगों से अलग तो होना ही है.
इस देश के लोकतंत्र और फिर उसमें  ‘बिलकुल असंगत विचारधाराओं और विचारों के तनावपूर्ण सहअस्तित्व’ की बात करने वाले लोग वरवर राव की विचारधारा के साथ सत्ता और उसके प्रतिनिधि साहित्यकारों के सुलूक को किस आसानी से भुला देते हैं. क्या सच में तनावपूर्ण ही सही, उस विचारधारा को किसी तरह का सह अस्तित्व मयस्सर होता है इस लोकतंत्र में? क्या उनके प्रति किसी तरह की कोई सहानूभूति या समानुभूति सत्ता और उसके प्रतिनिधि लेखकों-संपादकों के यहाँ दिखती है? अगर नहीं तो उनसे यह उम्मीद क्यों? और क्या यह सच नहीं है कि क्रांतिकारी वामपंथ के अलावा इस ‘बहुलता वादी’ देश के सभी वैचारिक समूह कारपोरेट लूट के मसले पर नव आर्थिक उदारवाद की विचारधारा के साथ ‘एकतान’ हो चुके हैं और यह सेकुलर और साम्प्रदायिक दोनों विचारों की प्रतिनिधि राजनीतिक संरचनाओं की सामान आर्थिक नीतियों के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है.

दरअसल लोकतंत्र की यह दुहाई अक्सर अपने दमनकारी विचारों और अवसरवाद को लोक मानस में स्वीकार्यता दिलाने के लिए दी जाती है. इसका एक उदाहरण हंस से ही. जब हंस ने उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री की एक कहानी हंस में छापी तब ऐसे ही एक सालाना आयोजन में एक युवा पाठक के सवाल उठाने पर राजेन्द्र जी लोकतंत्र की ही दुहाई देते हुए कहानी के छपने का औचित्य साबित किया. खैर..मुख्यमंत्री महोदय ने मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कोई ऐसी कहानी नहीं लिखी शायद जिसे अपने भरपूर लोकतंत्र के बावजूद राजेन्द्र जी हंस में छाप पाते!   


सोमवार, 1 नवंबर 2010

मुझे नहीं लगता कि हिंदी लेखकों में पुनरुत्थानवाद की कोई लहर चल रही है। -राजेन्द्र यादव

बाबरी मस्ज़िद पर आये फ़ैसले को लेकर धीरेश सैनी ने हिन्दी के कुछ प्रमुख लेखकों से बात की है, जो समयान्तर के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है…इसी परिचर्चा से राजेन्द्र यादव का बयान

राजेंद्र यादव



बौद्ध धर्म की सारी किताबें, मूर्तियां और स्मारक शंकराचार्य के अनुयायियों ने नष्ट कर डाले थे। यहां तक कि बुद्ध की जो भी मूर्तियां मिलती हैं, वे अफगानिस्तान, नेपाल, तिब्बत, रंगून आदि में तो मिलती हैं लेकिन हिंदुस्तान में बुद्ध की एक भी ऐसी मूर्ति नहीं मिलती जो खंडित न हो। इस तरह हम देखते हैं कि हिंदू कम कट्टर नहीं हैं। उन्होंने बाबरी मस्जिद को भी बाकायदा योजनाबद्ध ढंग से ढहा दिया था। कुछ हिंदुत्ववादी नेता भीड़ को रोकने के नाम पर मस्जिद से बाहर खड़े रहे थे और षडयंत्र के तहत महज आधा घंटे में उसे जमींदोज कर दिया गया था। उमा भारती उल्लास में मुरली मनोहर जोशी के कंधे पर बैठकर तस्वीरें खिंचवा रही थीं। उमा भारती और ऋ तंभरा के आग उगलते हुए भाषण बाकायदा रिकॉर्ड हैं। हाई कोर्ट के फैसले में इसका कोई जिक्र नहीं है। यह मानकर चला गया है कि जहां बीच का गुंबद था, वहीं नीचे राम का जन्म हुआ था। कोर्ट ने जिस तरह जमीन का बंटवारा किया है, उसमें बीच में रामलला का मंदिर है, एक तरफ राम चबूतरा है और एक तरफ सीता रसोई। कोर्ट द्वारा मुसलमानों को दिए गए हिस्से में मस्जिद बनाई भी जाती है तो वह राम चबूतरे और सीता रसोई के बीच में होगी। जाहिर है, रोज दंगे होंगे। एक तरह से यह जान-बूझकर किया गया लगता है कि बहुसंख्यक आतंक में दबकर मुसलमान खुद ही कहें कि भैया इस जगह को भी आप ही ले लें। यह फैसला निश्चय ही अन्यायपूर्ण, अवैध और अतार्किक है। यह तर्क और कानून के ऊपर आस्था की विजय है
आखिर कोर्ट ने यह कैसे तय कर लिया कि राम कहां पैदा हुए थे? अयोध्या में ही राम के करीब 10 मंदिर ऐसे हैं जहां राम का जन्मस्थान होने का दावा किया जाता है। कोर्ट ने कानून पर आस्था को तरजीह दे दी है तो हर कहीं आस्था और अंधविश्वास को वैधता मिल जाएगी। सती, नर बलि आदि को भी परंपरा और आस्था के नाम पर सही ठहराया जा सकता है। फिर तो खाप-पंचायतें भी प्रेमी-प्रेमिकाओं के गले काटने को अपनी आस्था और परंपरा के आधार पर अपना अधिकार मानेंगी। ओझे, सयाने, झाड़-फूंक करने वाले औरतों को डायन बताकर क्यों नहीं पीटेंगे?
बाबरी मस्जिद तोड़ी गई थी तो हिंदुओं ने पाकिस्तान और बांग्लादेश में मंदिर तोड़े जाने का रोना रोया था। तरुण विजय आज भी गिनाते रहते हैं कि पाकिस्तान में कितनी मस्जिदें तोड़ी गईं और मुंबई में ब्लॉस्ट हुए। एक बात बताइए कि आप तो खुलेआम मस्जिद तोड़ दें और फिर चाहें कि दूसरा पक्ष कुछ भी न करे। हिंदुस्तान में हिंदुत्व की राजनीति करने वाले यह भी भूल जाते हैं कि उनकी वजह से पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदू कितने असुरक्षित हो जाते हैं। बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ को आधार बनाकर तस्लीमा नसरीन ने लज्जा उपन्यास लिखा था तो पांचजन्य ने कहा था कि देखिए, मुसलमान कितने अत्याचारी हैं। लेकिन, हिंदुस्तान में भी बहुसंख्यकों के आतंक का ही नतीजा है कि बाबरी मस्जिद के ऐसे फैसले को लेकर मुसलमान चुप हैं। कुछ बूढ़े-बुजुर्ग जो लंबे समय से इस मसले में लगे हैं, सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं पर सच कहूं तो मुझे सुप्रीम कोर्ट से भी कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। लेकिन क्या वाकई इस तरह मसले का निपटारा हो सकता है? हाई कोर्ट के फैसले ने भी शांति स्थापित करने के बजाय भीतर आग लगा दी है जो फिर भड़क सकती है।
एक बात यह भी कि बाबर के एक जनरल मीर बाक़ी ने जो मस्जिद बनवाई थी, वह तो आपने तोड़ दी लेकिन देश में आप क्या-क्या तोड़ेंगे? राम पर एक बहस में हिस्सा लेते हुए मैंने कहा कि राम ने लंका पर आक्रमण किया, रावण की बहन की नाक काटी। नाक काटने के मुहावरे का सीधा अर्थ है इज़्जत लेना। बाबर भी 1,800 सैनिकों के साथ हिंदुस्तान आया था। उसने भी यहां के लोगों को मिलाकर अपना साम्राज्य स्थापित किया। फिर राम और बाबर में अंतर क्या है, जो राम का इतना महत्व गाते रहते हैं? हालांकि राम सिर्फ मिथकीय चरित्र है और उसका कोई पौराणिक महत्व भी नहीं है। वाल्मीकि से पहले राम का कहीं जिक्र शायद ही मिलता हो।
हमारी राजनीति ने सांप्रदायिक समस्याओं को इतना दूषित और जटिल बना दिया है कि कोई गुजांइश नजरही नहीं आती है। लगता नहीं है कि हम लोगों की जिंदगी शांति से गुजर पाएगी। अशांति रहेगी, आतंकवादी विस्फोट होंगे। हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को इससे कोई मतलब नहीं है, उन्हें लाशों का ढेर लगाकर दिल्ली के सिंहासन पर बैठना है। हिंदुत्व की राजनीति संगठित है और हिंदू वोटों के लालच में यूपीए सरकार का रवैया भी नर्म है। कांग्रेस कोर्ट के फैसले का समर्थन ही कर रही है। रामभक्त कोर्ट में हो सकते हैं तो कांग्रेस में क्यों नहीं?
हिंदी लेखकों ने इस मसले पर जो कुछ भी लिखा, इस फैसले को आस्था और अंधविश्वास की विजय ही बताया है। भगवान सिंह, कृष्णदत्त पालीवाल जैसे कुछ लोगों को छोड़ दीजिए जिन्होंने हिंदुत्व की बात कही है। कुछ लेखकों का स्वर नर्म हो सकता है पर अधिकांश लेखक अपने स्टेंड पर कायम हैं। मुझे नहीं लगता कि हिंदी लेखकों में पुनरुत्थानवाद की कोई लहर चल रही है।

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

अरुंधती ने भेजा जवाब, नहीं जाएँगी हंस के सालाना जलसे में

(यह महत्वपूर्ण पोस्ट जनज्वार  से आभार)


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प्रिय भाइयों, 

हंस ने जो अगले सालाना आयोजन कि रूप रेखा प्रचारित की थी उसमें सब को यह आभास दिया था कि इस बार वे पुलिस अधिकारी विश्व रंजन और अरुंधती राय को एक ही मंच पर लायेंगे.लोगों में इस पर बड़ा आक्रोश था. मैंने दो-तीन दिन पहले हंस कार्यालय में राजेंद्र जी से पूछा तो उन्हों भी तस्दीक की. लेकिन जब मैं ने अरुंधती से पूछा तो उन्हों ने साफ़ कहा कि वे ऐसे कार्यक्रम में नहीं जा रहीं हैं. उनका जवाब संलग्न है

नीलाभ 

अरुंधती का जवाब- 

Dear Neelabh 

Thanks for alerting me about a meeting I had no idea about! Rajendra Yadav did call a few weeks ago and ask whether I could come to a Hans event in July. I was travelling at the time and said I'd speak to him later. And now you tell me that without my ever having agreed, it's being billed as a debate between me and the notorious policeman Mr Vishwaranjan! I had no idea about all this. I have no intention of being there. Not after my recent experience with PTI and the rubbish that is being put out by the Chhattisgarh police and headlined in the Indian Express. You say a bunch of youngsters are putting together a petition asking me not to go...please tell them that I don't need a petition to persuade me! I never agreed to go in the first place. And now it's beginning to look like a set up . You can circulate this to anyone who is worried that I might walk into this trap. (translate it if it will help?) I think there are better ways of having debates in which co-opted media people controlled by the police cannot misquote you.

All the best
Arundhati

शनिवार, 10 जुलाई 2010

हत्यारों की गवाहियां अभी बाकी हैं राजेंद्र बाबू?


देश के मध्य हिस्से में माओवादियों और सरकार के बीच चल रहे संघर्ष का शीर्षक रखने में,राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।


तमाशे के फ़िराक में राजेंद्र बाबू
इसे सनसनी माने या सच,मगर कार्यक्रम तय है कि इस बार साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’के सालाना जलसे में लेखिका अरुंधति राय और सलवा जुडूम अभियान के मुखिया छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन आमने-सामने होंगे। यह जानकारी सबसे पहले हिंदी समाज के जनपक्षधर लोगों में पढ़ी जाने वाली मासिक पत्रिका ‘समयांतर’के माध्यम से जनज्वार तक पहुंची, जिसकी पुष्टि अब ‘हंस‘ भी कर चुका है। ‘हंस’से मिली जानकारी के मुताबिक इन दो मुख्य वक्ताओं के अलावा अन्य वक्ता भी होंगे।
हर वर्ष 31जुलाई को होने वाले इस कार्यक्रम का महत्व इस बार इसलिए भी अधिक है कि ‘हंस’ अपने प्रकाशन के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव की कोशिश होगी कि धमाकेदार ढंग से पत्रिका की सिल्वर-जुबली का मजा लिया जाये। मजा लेने के शगल में पक्के अपने राजेंद्र बाबू ने माओवाद के मसले पर बहस का विषय रखा है, ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।’

‘हंस’ ऐसे किसी ज्वलंत मसले को लेकर ऐसा संस्कृतनिष्ठ और घुमावदार शीर्षक रखेगा, हतप्रभ करने वाला है। खासकर तब जबकि पत्रिका के तौर पर ‘हंस’और संपादक के बतौर राजेंद्र यादव खुल्लमखुल्ला, खुलेआमी के हमेशा अंधपक्षधर रहे हों। वैसे में देश के मध्य हिस्से में चल रहे माओवादियों और सरकार के बीच संघर्ष का शीर्षक रखने में राजेंद्र बाबू उतना भी साहस नहीं दिखा पाये हैं,जितना कि शरीर के मध्य हिस्से के छिद्रान्वेषण पर वे लगातार दिखाते रहे हैं।

हिंदी में प्रतिष्ठित कही जाने वाली इस पत्रिका के संपादक का यह शीर्षक चिंता का विषय है और अनुभव का भी। अनुभव का इसलिए कि एक कार्यक्रम के दौरान एक दूसरे राजनीतिक मसले पर श्रोता उनके इस रूप से रू-ब-रू हुए थे। संसद हमले मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी करार दिये जाने के बाद फांसी की सजा पाये अफजल गुरु को लेकर ‘जनहस्तक्षेप’दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम किया था जिसमें अन्य वक्ताओं के साथ राजेंद्र यादव भी आमंत्रित थे।

बोलने की बारी आने पर संचालक ने जब इनका नाम उदघोषित किया तो अपने राजेंद्र बाबू ने मामले को कानूनी बताते हुए वकील कमलेश जैन को बोलने के लिए कहा। कमलेश जैन ने अफजल गुरु को लेकर वही बातें कहीं जो कि सरकार का पक्ष है। कमलेश सरकारी पक्ष को इस तरह पेश करने लगीं कि मजबूरन श्रोताओं ने हूटिंग की और आयोजकों को शर्मशार होना पड़ा। जबकि हम सब जानते हैं कि अफजल का केस लड़ रहे वकील,सामाजिक कार्यकर्ता और जन पक्षधर बुद्धिजीवी इस मामले में फेयर ट्रायल की मांग करते रहे हैं। कारण कि सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल को फांसी की सजा ‘कंसेंट आफ नेशन’ के आधार पर मुकर्रर की थी।

अफजल से ही जुड़ा एक दूसरा मसला ‘हंस’ में लेख प्रकाशित करने को लेकर हुआ। जाने माने पत्रकार और कश्मीर मामलों के जानकार एवं ‘हंस’ के सहयोगी गौतम नौलखा ने कहा कि, ‘अफजल मामले की सच्चाई हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि ‘हंस’ में इस मसले पर लेख छपे।’ गौतम के इस सुझाव पर राजेंद्र यादव ने लेख आमंत्रित किया। लेख उन तक पहुंचा। उन्होंने तत्काल पढ़ा और लेख के बहुत अच्छा होने का वास्ता देकर अगले अंक में छापने की बात कही। मगर बात आयी-गयी और वह लेख नहीं छपा।


अब सवाल यह है कि पिछले छह वर्षों से सलवा जुडूम अभियान के तमाशबीन बने रहे राजेंद्र यादव कहीं इस तमाशायी उपक्रम के जरिये अपने होने का प्रमाण देने की तो कोशिश में नहीं लगे हैं। तमाशायी कार्यक्रम इसलिए कि लेखिका अरुंधति राय सलवा जुडूम अभियान, माओवादियों और सरकार के रवैये पर क्या सोचती हैं,उनके लेखन के जरिये हम सभी जान चुके हैं। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के प्रिय डीजीपी विश्वरंजन ‘सलवा जुडूम’को एक जन अभियान मानते हैं,यह छुपी हुई बात नहीं है। याद होगा कि पिछले वर्ष दर्जनों जनपक्षधर बुद्धिजीवियों ने रायपुर में विश्वरंजन के इंतजाम से हो रहे ‘प्रमोद वर्मा स्मृति’कार्यक्रम में इसी आधार पर जाने से मना कर दिया था। इस बाबत विरोध में पहला पत्र विश्वरंजन के नाम कवि पंकज चतुर्वेदी ने लिखा था। विरोध का मजमून हिंदी पाक्षिक पत्रिका ‘द पब्लिक एजेंडा’में छपे विश्वरंजन के एक साक्षात्कार के आधार पर कवि ने लिखा था जिसमें डीजीपी ने सलवा जुडूम को जनता का अभियान बताया था।

ऐसे में फिर बाकी क्या है जिसके लिए राजेंद्र बाबू अरुंधति-विश्वरंजन मिलाप कराने को लेकर इतने उत्साहित हैं। क्या हजारों आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन से उजाड़े जाने, माओवादियों के सफाये के बहाने आदिवासियों को विस्थापित किये जाने की साजिशों से राजेंद्र बाबू वाकिफ नहीं हैं। राजेंद्र बाबू क्या आप माओवाद प्रभावित इलाकों में सैकड़ों हत्याएं,बलात्कार आदि मामलों से अनभिज्ञ हैं जो आपने विश्वरंजन को आत्मस्विकारोक्ति के लिए दिल्ली आने का बुलावा भेज दिया है। रही बात उन भले मानुषों की सोच का जो यह मानते हैं कि इस बहाने माओवाद के मसले पर बहस होगी और राष्ट्रीय मसला बनेगा फिर तो राजेंद्र बाबू आप ऐसे सेमीनारों की झड़ी लगा सकते हैं।

जैसे अभी विश्वरंजन को बुलाने की बजाय भोपाल गैस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को बुलाइये जिससे राष्ट्र के सामने वह अपना पक्ष रख सके कि उसने त्रासदी बुलायी थी या आयी थी। इसी तरह सिख दंगों के मुख्य आरोपियों और गुजरात मसले पर गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी को भी दंगे,हत्याओं और बलात्कारों की मजबूरियां गिनाने के लिए एक चांस आप ‘ऐवाने गालिब सभागार’में जरूर दीजिए। समय बचे तो निठारी हत्याकांड के सरगना पंधेर और कोली को बुलावा भिजवा दीजिए जिससे कि उसके साथ अन्याय न हो,कोई गलत राय न बनाये। राजेंद्र बाबू आप ऐसा नहीं करेंगे और मुझे अहमक कहेंगे क्योंकि इन सभी पर राज्य ने अपराधी होने या संदेह का ठप्पा लगा दिया है। तब हम पूछते हैं राजेंद्र बाबू आपसे कि जिसको जनता ने अपराधी मुकर्रर किया है,उसकी गवाहियों में मुंसिफ बनने की अनैतिकता आप कैसे कर सकते हैं?

राजेंद्र बाबू अगर आप कुछ बहस की मंशा रखते ही हैं तो गृहमंत्री पी.चिदंबरम को बुलवाने का जुगाड़ लगाइये। मगर शर्त यह रहेगी कि 5 मई को जेएनयू में जिस तरह की डेमोक्रेसी वहां के छात्रों को झेलनी पड़ी, जिसे वहां के छात्रों ने चिदंबरी डेमोक्रेसी कहा, इस बार उनके आगमन पर माहौल वैसा न हो। गर यह संभव नहीं है तो विश्वरंजन से क्या बहस करेंगे, वह कोई कानून बनाते हैं?

राजेंद्र बाबू आप बड़े साहित्यकार हैं। सुना है आपने दलितों-स्त्रियों को साहित्य में जगह दी है। इस भले काम के लिए मैं तहेदिल से आपको बधाई देता हूं। साथ ही सुझाव देता हूं कि साहित्य में पूरा जीवन लगा देने के बावजूद गर आप दण्डकारण्य को एक आदिवासी साहित्यकार नहीं दे सके तो,आदिवासियों के हत्यारों की जमात से आये प्रतिनिधियों को साहित्यकार बनाने का तो पाप मत ही कीजिए।

राजेंद्र बाबू आप भी जानते हैं कि साहित्यकारों की संवेदनशीलता और संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है। आज बाजार का रोगन चढ़ा है, मगर ऐसा भी नहीं है सब अपना पिछवाड़ा उघाड़े खडे़ हैं और फिर हमारे युवा मन का तो ख्याल कीजिए। हो सकता है उम्र के इस पड़ाव पर आप डीजीपी कवि की कविताओं को सुनने में ही सक्षम हों,मगर हमारी निगाहें तो उन खून से सने लथपथ हाथों को देखते ही ताड़ जायेंगी। एक बात कहें राजेंद्र बाबू, एक दिन आप अपने नाती-पोतों को वह हाथ दिखाइये, अच्छा ठीक है किस्सों में अहसास ही कराइये। यकीन मानिये आप बुद्धना, मंगरू, शुकू, सोमू, बुद्धिया को अपने घरों में पायेंगे जो पिछले छह वर्षों से दण्डकारण्य क्षेत्र में तबाह-बर्बाद हो रहे हैं। इन जैसे हजारों लोग जो आज मध्य भारत में युद्ध की चपेट में हैं, आपको एक झटके में पड़ोसी लगने लगेंगे और आप साहित्य के वितण्डावादी आयोजन की जगह एक सार्थक पहल को लेकर आगे बढ़ेंगे।

महोदय कवि हैं ?

उम्मीद है कि अर्जी पर आप गौर करेंगे। गौर नहीं करने की स्थिति में हमें मजबूरन अरुंधति राय से अपील करनी पड़ेगी। फिर वही बात होगी कि देखो हिंदी से बड़ी अंग्रेजी है और न चाहते हुए भी सारा क्रेडिट अरुंधति के हिस्से जायेगा। हिंदीवालों की पोल खुलेगी सो अलग। इसलिए राजेंद्र बाबू घर की इज्जत घर में ही रखते हैं। कोशिश करते हैं कि हमारी भाषा में जनपक्षधरता को गहराई मिले। कम-से-कम अपने किये पर समाज के सबसे कमजोर तबके (आदिवासियों)के सामने तो शर्मसार न होना पड़े। खासकर तब जबकि उस तबके ने हमारे समाज और सरकार से सिवाय अपनी आजादी के किसी और चीज की उम्मीद ही न की हो।

अजय प्रकाश